दिवालीः जगमग अंधेरा!

तब लाइटें नहीं थीं, मिट्टी की दीये थे। तब ऑनलाइन आई मिठाई, चॉकलेट, पेस्ट्री नहीं थी, घर का स्वाद था। तब रेडिमेड पूजा सामग्री नहीं थी, बैर-खील-पताशा, सांठा, हलवा, नमकीन था। तब पटाखे देशी थे और प्रदूषण या पाबंदी की चिंता, उसका फीकापन नहीं था। तब घर के सब जन इकट्ठे होते थे, पड़ोस का साझा था। वह सामाजिक और वैयक्तिक दोनों की उमंग में भरापूरा था। तब संयुक्त परिवार था एकल परिवार नहीं। तब त्योहार नैसर्गिक आनंद था न कि दिखावा। तब मिट्टी के गणेश-लक्ष्मी थे, चांदी की मूर्तियां नहीं। पूजा में चवन्नी-अठन्नी के सिक्के थे न कि चांदी-सोने के सिक्के। तब पूजा मन की आस्था से थी न कि पूजा की खातिर पूजा। लक्ष्मीजी को तब मातृशक्ति, गृहलक्ष्मी से घर की सुख-समृद्धि का आह्वान होता था न कि लालच, अंधी भूख में पंडितों के जरिए पूजा थी। तब सबके मन मिले हुए थे बिखरे और भटके नहीं। तब ऐसे विवाद नहीं थे कि पूजा गुरूवार के दिन या शुक्रवार के दिन। एक की दिवाली गुरूवार की काली अमावस्या में वही दूसरा शुक्रवार सुबह-दोपहर की अमावस्था में पूजा करता हुआ!

तब हम अपने हाथों घर और मन की सफाई करते थे। तब वह सोशल मीडिया नहीं था, जिससे पूजा के दिन में गंदगी बने, दिन का कंफ्यूजन बने या मुहूर्त के समय का! पूजा के नाम पर तब टोने-टोटके और नुस्खों के अंधविश्वासों में दिल-दिमाग कलुषित नहीं था। सब सात्विक था, मौलिक और सहज था। दिमाग उजले थे। मन सच्चे थे। सब कुछ स्वच्छ था। घर और पड़ोस में व्यर्थ की बातों, राजनीति से डिवीजन नहीं था। दिवाली के साथ अपने त्योहार की चकाचौंध के वैश्विक जलवे जैसे अहंकार और नैरेटिव नहीं थे।

सोचें, आस्था-ध्यान के अपने देवलोक में विराजमान देवी महालक्ष्मी पर! वे आज के कलियुगी हिंदुओं पर प्रसन्न होती होंगी या रूष्ट? क्या नहीं मानती होंगी कि कैसा यह समय जो मानसिक दरिद्रताओं में इतना भी विवेक नहीं कि संपन्नता, श्रीदेवी (लक्ष्मी) की चाहना मन, साधन की पवित्रता, मर्यादाओं से मुमकिन है न कि दिखावे की जगमग और कलुषित भूख और पाखंड से! दीपावली का अभिप्राय है अंधकार से मुक्ति की प्रार्थना। अपने बूते अपने को मन मष्तिष्क से साफ स्वच्छ और सच्चा बनाए रखने के लिए श्रीदेवी (लक्ष्मी) से अपनी क्षमता में श्रीवृद्धि की कामना करना। अमंगल (बंगाल में काली पूजा) को मिटाना। इस कार्य के दिन में भी हमारा यह बुद्धिभ्रम की पूजा अमावस्या की रात के प्रारंभ में करें या बाद में!

बहरहाल, अब यह आम बात है जो हिंदू हर बात पर विवाद बनाएं और फिर सच्चे-झूठे की तू-तू, मैं-मैं करें। कितनी बेहूदा बात जो सरकार भी अपने कैलेंडर की तारीख पर टिके रहने (आखिर वह पहले से ज्योतिष गणना अनुसार है तो उसकी छुट्टी प्रामाणिक होनी ही चाहिए) की बजाय कथित लोक भावना के नाम पर दीपावली मनाने के लिए एक और दिन की छुट्टी घोषित कर देती है!

और कौन सी लोकभावना? सनातन धर्म में प्रतिवर्ष, वर्ष के विशेष दिन, उसके पवित्र क्षणों-समय में देवी-देवता विशेष के आह्वान, पूजा का शास्त्र और ज्योतिष निश्चित है। दिवाली त्योहार में अमावस्या की रात लक्ष्मी और काली पूजा का रिवाज है तो इतना ही बहुत है। और पूजन इसलिए है, बकौल विद्यानिवास मिश्र, क्योंकि यह त्योहार दीपों का त्योहार है। घर का कोना-कोना साफ हो जाए, लिप-पुत जाए, कोने-कोने में अपने हाथों जलाकर दीप एक छंद के साथ रखा जाए, घर के बाहर मुंडेर से ले कर नीचे तक दीप पंक्तियां बिछा दी जाएं, द्वार खोलकर श्रीदेवी के दर्शन देने की प्रतीक्षा की जाए, इन सबके पीछे अभिप्राय एक है, अंधकार से जूझना, मानवीय प्रयत्न के बल पर जूझना, बाहर और भीतर के मोह को ध्वस्त करना।… बंगाल में कालीपूजन का दिन है, क्योंकि काली अमंगल के सर्वनाश की देवता हैं।

क्या वर्तमान में इस भाव में व्यक्ति, घर और परिवार अपने मन मंदिर में अंधकार मिटाने का संकल्प धारे होता है? घर और मन के दरवाजे खोल लक्ष्मीजी के दर्शन की क्या कामना लिए होता है?

महत्व भावना और सात्विकता का है! और इन दोनों पहलुओं में अब दिखावा, अहंकार, तामसीपना है। अब प्रदर्शन है और धन की भूख का प्रायोजन है। तभी इक्कीसवीं सदी की दिवाली और मेरे बचपन की दिवाली में कई तरह के फर्क हैं। तब दीया मिट्टी का था, सब कुछ अपने समाज, पड़ोस के भीतर में बना हुआ था। कुछ भी आयातित और चाइनीज नहीं था। तब अंधेरा और रोशनी दोनों के आमने-सामने होने का बोध था। क्या सच और क्या झूठ की असलियत उजागर थी। दिवाली इस तरह के घमंड नहीं पाले हुए थी अब व्हाइट हाउस में भी दिवाली मनती है। वैश्विक त्योहार है। वह व्यक्ति और परिवार की पूजा थी। वह मोहल्ले, घर-गली के धोबी, कुम्हार, रैगर, दर्जी, समृद्ध बनियों और पूजापाठी पंडितों का वास्तविक साझा त्योहार था। आज जैसा तब जातिगत दुराव, भेदभाव नहीं था। तब आज के वर्ग-वर्ण विशेष के अपार्टमेंट, कॉलोनियों जैसी बसावट नहीं थी। कस्बों, शहरों के मोहल्लों में मोटा मोटी मिक्स आबादी थी। और हर त्योहार किसी न किसी रूप में सभी जातियों में परस्पर मदद और बांटने से मना करता था (मेरा यह अनुभव है)। दिखावा और अहंकार कतई नहीं। यदि पड़ोसी सूदखोर बनिया पैसे वाला है तो गली में उसकी दिवाली से बाकी लोग जलेभुने, ऐसा नहीं था। मुझे भी बचपन में दूसरों से फूलझड़ी, चकरी मिला करती थे और कोई कोठी, रॉकेट फोड़ता था तो बाल मंडली की किलकारी बनती थी।

छोटी-छोटी बातें हैं लेकिन इन्हीं से तो दिवाली बड़ा त्योहार था। साल का एक इंतजार था। उत्साह था। उत्सव के सरल, सहज रस में त्योहार की सजावट, घर साफ सफाई में पुताई करते थे। खरीदारी कम और सस्ती थी लेकिन संतोष भरपूर। वही अब अमेजन से खरीदारी है। सोशल मीडिया के फटाखे है। चाइनीज रोशनी की जगमगाहट है। और सब दिखावा है। पैसे और ताकत का अहंकार है। और अहंकार का एक प्रतिमान यह भी कि देखो हमने इतने लाख दीये जलाए। और देखो, देखो हमने गिनीज बुक में रिकॉर्ड बनाया है। गिनीज बुक का रिकॉर्ड हिंदुओं का शो है, कंपीटिशन है, दूसरों को दिखाना है हम क्या हैं! सोचें, अयोध्या में लाखों दीयों का शो मर्यादापुरूष राम को अपनी मर्यादा के उजाले का प्रसार समझ आया होगा या भक्तों के मन मष्तिष्क का अंधकार? दिवाली हम अब दिल-दिमाग में फैलते अंधकारों में मना रहे हैं या प्रकाश के सच्चे उजियारे में?

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