सब किस्सा कुर्सी का है
भारत के विश्वगुरू बनने और हिंदू पुनर्जागरण की प्रायोजित फिल्म समाप्त होगी तब पता चलेगा कि असल में यह ‘किस्सा कुर्सी का’ धारावाहिक की अगली कड़ी थी, जिसमें देश के लोग इतने खोए थे कि उनको पता ही नहीं चला कि वे धारावाहिक देख रहे हैं या हकीकत में जी रहे हैं। असल में देश में जो कुछ भी चल रहा है वह कुर्सी के लिए है और कुर्सी के द्वारा है। साठ के दशक में आई फिल्म ‘दोस्ती’ के गाने की तरह कि ‘मेरा तो जो भी कदम है वो तेरी राह में है’! सब कुछ कुर्सी की राह में है। कुर्सी के लिए प्रायोजित कहानियां हैं, विकास के प्रायोजित आंकड़े हैं, विश्वगुरू होने की प्रायोजित तस्वीरें हैं, इतिहास का खंडन-मंडन है, हिंदू-मुस्लिम का विवाद है, पाकिस्तान पर चढ़ाई का संकल्प है, विरोधियों पर छापे हैं, ईमानदारी की कहानियां हैं, परिवारवाद से दूरी और सादगी का प्रचार है। सब सिर्फ कुर्सी से है और कुर्सी के लिए है।
एक तरफ विपक्ष पर परिवारवाद का आरोप है और परिवारों के कुर्सी से चिपके रहने का नैरेटिव है तो दूसरी ओर खुद कुर्सी नहीं छोड़ने की जिद है। कोई परिवार 20 साल से किसी पार्टी का प्रधान है तो वह गलत है क्योंकि उससे युवाओं के अवसर समाप्त होते हैं लेकिन आप खुद 20 साल से मुख्यमंत्री और प्रधानमंत्री पद पर हैं तो यह उपलब्धि है! आप अनंतकाल तक पद पर बने रहना चाहते हैं तो उससे किसी का अवसर समाप्त नहीं होता है। यह कुर्सी का खेल नहीं है तो क्या है? क्या देश सेवा करने के लिए सचमुच कुर्सी की जरूरत होती है? महात्मा गांधी ने तो कोई कुर्सी नहीं ली थी और न जयप्रकाश नारायण और विनोबा भावे ने कुर्सी ली थी। भाजपा की राजनीति में ही आदर्श पुरूष रहे विनायक दामोदार सावरकर या दीनदयाल उपाध्याय के पास भी कोई कुर्सी नहीं थी तो क्या उन्होंने देश, समाज या अपने पार्टी-संगठन की सेवा नहीं की! प्रधान सेवक के नेतृत्व वाले विश्वगुरू भारत में ऐसा लग रहा है कि बिना कुर्सी के देश की या हिंदुओं की सेवा हो ही नहीं सकती है और इसलिए कुर्सी सर्वोपरि है। उसके लिए कुछ भी किया जा सकता है।
कुर्सी के लिए क्रोनी कैपिटलिज्म का मजबूत होना जरूरी है। देश के तमाम संसाधन और धन-दौलत का चंद लोगों के हाथ में इकट्ठा होना जरूरी है। कुर्सी के लिए देश के करोड़ों लोगों का गरीब होना या गरीब बने रहना जरूरी है। देश के 80-90 करोड़ लोगों का पांच किलो अनाज पर अनंतकाल तक पलते रहना भी कुर्सी के लिए जरूरी है। देश के मतदाता का नमकहलाल होना जरूरी है ताकि कुर्सी बची रहे। सैनिकों की शहादत का इस्तेमाल भी कुर्सी के लिए जरूरी है और जरूरत पड़ने पर अखंड भारत का अभियान भी जरूरी है। देश के अलग अलग हिस्सों में मंदिरों की मुक्ति के अभियान की तरह पाकिस्तान के कब्जे वाले कश्मीर की मुक्ति का प्रयास भी संभव है। आखिर इस देश के लोगों को धारावाहिक की हर अगली कड़ी में कुछ रहस्य, रोमांच, एक्शन, इमोशन के डोज की जरूरत होती है। यहां मेलोड्रामा सुपरहिट है। जितनी हिंसा है, एक्शन है, आंसू है फिल्म उतनी हिट है।
हुक्मरान के तराने सुन कर सब झूम रहे हैं। जब नशा उतरेगा तब पता चलेगा कि यह सब कुर्सी का ही किस्सा था। तब पता चलेगा कि विपक्ष के नेताओं पर छापों से भ्रष्टाचार नहीं मिटा है, बल्कि इन छापों से विपक्ष की छवि दागदार करके सिर्फ अपनी छवि चमकाने का प्रयास हुआ है। सामाजिक कार्यकर्ताओं, लेखकों, पत्रकारों पर छापों से लोकतंत्र मजबूत नहीं हुआ है, बल्कि निरंतर कमजोर होता गया है और तभी इस पर नियंत्रण रखना आसान हुआ। फिल्म खत्म होगी तब पता चलेगा कि विश्व नेताओं के गले मिलने से देश की कूटनीति मजबूत नहीं हुई है और न भारत विश्वगुरू बना है। तभी यह भी पता चलेगा कि कुछ मस्जिदों में पूजा की अनुमति हासिल कर लेने या लाखों मंदिरों के बीच एक और भव्य मंदिर के निर्माण से हिंदू सशक्तिकरण नहीं हुआ है। फिल्म का द एंड होगा तब आत्मनिर्भर भारत की हकीकत पता चलेगी। तभी पता चलेगा कि आतंकवादियों पर कार्रवाई या पाकिस्तान को रोज दी जाने वाली धमकियों से घाटी का हिंदू सुरक्षित नहीं हुआ है, बल्कि घाटी से उनका रहा-सहा जुड़ाव भी खत्म हो गया है। हां, इन सबसे कुर्सी की मजबूती जरूर सुनिश्चित होगी।