रिसॉर्ट में छिपता गौरवशाली लोकतंत्र
भारत लोकतंत्र की जननी है, ऐसा कई बार प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कहा है। इस लिहाज से कह सकते हैं कि भारत का लोकतंत्र गर्व करने की चीज है। लेकिन इस लोकतंत्र की आज जो दुर्दशा है वह भी समय समय पर दिखती रहती है। संसदीय कार्यवाहियों में, हर साल होने वाले चुनावों में, विपक्ष को जानी दुश्मन मान कर उसे खत्म करने की रणनीतियों में, केंद्रीय एजेंसियों के इस्तेमाल में, संवैधानिक संस्थाओं की चुप्पी में, प्रतिबद्ध मीडिया की कवरेज में कहीं भी आप भारतीय लोकतंत्र की दुर्दशा देख सकते हैं। लेकिन इसका सबसे अद्भुत नमूना तब देखने को मिलता है, जब राज्यसभा के चुनाव आते हैं। राज्यसभा के चुनावों में जब भाजपा विरोधी पार्टियां अपने अपने विधायकों को पांच सितारा होटलों या रिसॉर्ट्स में छिपाती हैं तब भारत के गौरवशाली लोकतंत्र की वह विद्रूपता जाहिर होती है, जिसके बारे में किसी भी सभ्य समाज में सोचा तक नहीं जा सकता है।
आमतौर पर इसे विपक्षी पार्टियों की कमजोरी के तौर पर प्रचारित किया जाता है और उनका मजाक उड़ाया जाता है। उनकी मजबूरी पर अट्टहास किए जाते हैं। लेकिन क्या सचमुच यह पूरा प्रकरण सिर्फ विपक्षी दलों की कमजोरी या उनकी मजबूरी से जुड़ा हुआ है? अगर आज कांग्रेस राजस्थान और हरियाणा के विधायकों को रिसॉर्ट में छिपा रही है या शिव सेना अपने विधायकों को पांच सितारा होटलों में ले जाकर बाड़ेबंदी कर रही है तो क्या यह सिर्फ उनकी कमजोरी है? नहीं ऐसा कतई नहीं है? यह भारत के लोकतंत्र की कमजोरी है। जिस तरह एक आम नागरिक चोर-लुटेरों से अपने कीमती सामान की रक्षा करने के लिए उसे उनकी नजर से बचा कर रखता है उसी तरह अगर विपक्षी पार्टियों को भाजपा की नजरों से अपने विधायकों को छिपा कर रखना पड़ रहा है तो यह भाजपा की राजनीति पर ज्यादा बड़ा सवाल है। अगर 50-50 कोस दूर रात में रोते हुए बच्चे को चुप कराने के लिए गब्बर सिंह का डर दिखाया जाता है तो यह उस रोते हुए बच्चे या चुप कराती हुई उसकी मां की कमजोरी नहीं है, बल्कि गब्बर सिंह का आतंक है, जिस पर ज्यादा चर्चा होनी चाहिए।
आज अगर कांग्रेस और शिव सेना के विधायक छिपाए जा रहे हैं तो इसका कारण भाजपा का डर है। तभी कांग्रेस और शिव सेना का मजाक उड़ाने या उनकी मजबूरी पर अट्टहास करने की बजाय भाजपा के पैदा किए डर पर विचार करने की जरूरत है। लोकतंत्र के लिए असली खतरा यह नहीं है कि कोई विपक्षी पार्टी कमजोर हो गई है और उसे अपने विधायकों को एकजुट रखने के लिए होटल या रिसॉर्ट में छिपाना पड़ रहा है। असली खतरा यह है कि एक पार्टी सर्वशक्तिशाली हो गई है, जिसे किसी भी कीमत पर विपक्षी पार्टियों के विधायकों, सांसदों या नेताओं को तोड़ कर अपनी तरफ लाने में कोई हिचक नहीं है। उसे न अपनी विचारधारा की चिंता है और न दूसरी पार्टी छोड़ कर आने वाले नेताओं की विचारधारा, पृष्ठभूमि या राजनीतिक इतिहास की चिंता है। अपने विधायकों की बाड़ेबंदी कर रही कांग्रेस और शिव सेना जैसी पार्टियों के लिए भी निश्चित रूप से यह आत्मचिंतन का समय है।
उन्हें इस पर सोचना चाहिए कि वे कैसी राजनीति कर रही हैं, उनकी विचारधारा क्यों इतनी कमजोर हो गई है कि वह किसी को बांधे रखने में कामयाब नहीं हो रही है या उनका संगठन कैसे इतना कमजोर हो गया है कि कोई उसमें अपना भविष्य नहीं देख रहा है। परंतु उनसे ज्यादा भाजपा को आत्मचिंतन करने की जरूरत है कि किसी भी कीमत पर विपक्ष को खत्म करना उसके लिए क्यों जरूरी है? क्या लोकतंत्र की मजबूती के लिए विपक्ष जरूरी नहीं है? अभी तो खुद प्रधानमंत्री ने कहा है कि वे चाहते हैं कि देश में एक मजबूत विपक्ष हो, फिर क्यों विपक्ष को खत्म करने का प्रयास है?
इन दिनों हर आदमी इस बात का मजाक बना रहा है कि हार्दिक पटेल तीन साल तक भाजपा को गालियां देते रहे और आज उसी भाजपा की शरण में चले गए। हार्दिक जब कांग्रेस में शामिल हुए थे तब उन्होंने भाजपा के विरोध में कई ट्विट किए थे। उन्होंने लिखा था कि सुबह का देशद्रोही शाम में भाजपा में चला जाए तो देशभक्त हो जाता है। उन्होंने यह भी लिखा था कि भाजपा में रहना है तो अमित शाह की जूती बन कर रहना होता है। इसे लेकर उनका मजाक बनाया जा रहा है। लेकिन इस बात को दूसरी तरह से भी देखने की जरूरत है। उनकी कुछ मजबूरी रही होगी, जिससे वे भाजपा में चले गए लेकिन भाजपा की क्या मजबूरी है, जो उसने उनको ले लिया?
भाजपा की भी तो कोई मजबूरी होगी, जो उसने अपने ऐसे धुर विरोधी, जिसके ऊपर राजद्रोह सहित न जाने कितने तरह के मुकदमे खुद भाजपा की सरकार ने ही किए हैं, उसे अपनी पार्टी में ले लिया! असली विचार भाजपा की उस मजबूरी पर करने की जरूरत है। आखिर उसकी ऐसी क्या मजबूरी है कि वह बिल्कुल दूसरे वैचारिक छोर पर खड़े नेता को भी अपनी पार्टी में शामिल कर रही है? नेताओं की निजी ईमानदारी और प्रतिबद्धता में ह्रास अपने आप में चिंता की बात है। लेकिन पाला बदलने को तैयार हर नेता का बांह पसार कर भाजपा क्यों स्वागत कर रही है यह बड़ा सवाल है।
इस सवाल का जवाब मिलेगा तभी भारत के गौरवशाली लोकतंत्र के सामने खड़ी चुनौतियों से निपटने का रास्ता मिलेगा। विपक्षी पार्टियों की वैचारिक और सांगठनिक कमजोरी लोकतंत्र के लिए अगर खतरा है तो देश और दुनिया की सबसे बड़ी पार्टी होने का दावा करने वाली भाजपा के वैचारिक आग्रह का लगातार कमजोर होते जाना और अपनी मजबूती के लिए किसी भी दल में तोड़-फोड़ कर देना, चुनी हुई सरकार गिरा देना या किसी पार्टी के व्यक्ति को अपनी पार्टी में शामिल करने या हर चुनाव जीतने के लिए कोई भी कदम उठाने के लिए तैयार रहना लोकतंत्र के लिए ज्यादा बड़ा खतरा है।
यह लोकतंत्र के विचार शून्यता के दौर में पहुंचने का समय तो है ही साथ ही लोकतंत्र के लाठीतंत्र में बदल जाने का समय भी है। यह जिसकी लाठी उसका लोकतंत्र वाला समय है। भाजपा के पास सत्ता है, सारी केंद्रीय एजेंसियां और संवैधानिक संस्थाएं हैं, बिना हिचक इनके इस्तेमाल की सोच है, संसाधन हैं (ध्यान रहे भाजपा की पिछले साल की बैलेंस शीट कोई पांच हजार करोड़ रुपए की है) तो फिर लोकतंत्र भी उसी का है। ऐसे में अगर विपक्षी पार्टियों अपने विधायकों को छिपाती फिर रही हैं तो सिर्फ उन्हीं को दोष क्यों देना!