विपक्ष क्या भ्रष्टाचार का मुद्दा बना पाएगा?
भारत में आजादी के बाद से अब तक हुए सत्ता परिवर्तनों में कुछ बातें बहुत कॉमन रही हैं। ऐसा शायद कभी नहीं हुआ है, कम से कम राष्ट्रीय स्तर पर, कि देश के मतदाताओं ने सकारात्मक रूप से सत्ता परिवर्तन के लिए मतदान किया हो। अच्छे की उम्मीद में या ज्यादा विकास की उम्मीद में मतदान करके सत्ता परिवर्तन की मिसाल नहीं है। राज्यों के स्तर पर जरूर ऐसी कुछ मिसालें हैं लेकिन राष्ट्रीय स्तर पर संभवतः एक बार भी ऐसा नहीं हुआ।
लगभग हर बार सत्ता परिवर्तन के लिए किए गए मतदान के पीछे भ्रष्टाचार सबसे कॉमन कारण रहा। उसके बाद महंगाई और फिर सत्ता का दुरुपयोग ये दो कारण रहे। 1977 में इंदिरा गांधी सत्ता के दुरुपयोग के आरोपों के कारण हारी थीं। लोगों ने संविधान के प्रावधानों का इस्तेमाल करके देश में इमरजेंसी लगाने, विपक्षी नेताओं को जेल में डालने, मीडिया पर सेंसरशिप लागू करने जैसी ज्यादतियों के लिए उनको सजा दी थी। एक बार सजा देने के बाद लोगों ने तीन साल में ही फिर उनकी सत्ता में वापसी भी कराई थी।
इसके अलावा बाकी सत्ता परिवर्तन चाहे वह 1989 का हो या 2014 का वह भ्रष्टाचार और महंगाई के मुद्दे पर हुए थे। 1996 या 1998 में हुए बदलाव को सत्ता परिवर्तन की बजाय सत्ता हस्तांतरण कह सकते हैं। क्योंकि सारी पार्टियां और गठबंधन सीटों की संख्या के लिहाज से आसपास ही थे, जिसने बेहतर गठबंधन किया उसने सरकार बना ली। सत्ता परिवर्तन से उलट सत्ता की निरंतरता हमेशा सकारात्मक रही है। लोग बेहतर की उम्मीद में सत्तारूढ़ गठबंधन की वापसी कराते रहे हैं। अटल बिहारी वाजपेयी को भी 13 महीने सरकार चलाने के बाद दूसरा मौका मिला था।
मनमोहन सिंह को भी पांच साल के बाद दूसरा मौका मिला और नरेंद्र मोदी को भी पांच साल के बाद दूसरा मौका मिला है। लगातार तीसरा मौका इस देश में सिर्फ पंडित जवाहरलाल नेहरू को मिला था। तभी यह यक्ष प्रश्न है कि क्या नरेंद्र मोदी देश के पहले प्रधानमंत्री पंडित नेहरू का रिकॉर्ड तोड़ पाएंगे या उन्हें रोकने के लिए कांग्रेस और दूसरी विपक्षी पार्टियां भ्रष्टाचार, महंगाई और सत्ता के दुरुपयोग का मुद्दा बना पाएंगी? इस समय देश में ऐसी स्थितियां मौजूद हैं या ऐसे घटनाक्रम हुए हैं, जिनसे विपक्ष भ्रष्टाचार , महंगाई और सत्ता के दुरुपयोग यानी तीनों का मुद्दा बना सकता है। ध्यान रहे 1975 में इंदिरा गांधी (Indira Gandhi) का चुनाव इलाहाबाद हाई कोर्ट ने इस आधार पर खारिज किया था कि उनके निजी सहायक यशपाल कपूर ने अपना इस्तीफा स्वीकार होने से पहले इंदिरा गांधी का चुनाव प्रचार संभाला था। सोचें, यशपाल कपूर ने इस्तीफा दे दिया था और स्वीकार होने से पहले इंदिरा गांधी के चुनाव क्षेत्र में चले गए थे तो इस आधार पर इंदिरा गांधी का चुनाव रद्द हो गया था!
अभी भाजपा के एक नेता ने, जिसे चंडीगढ़ के मेयर के चुनाव में पीठासीन अधिकारी बनाया गया था उसने विपक्ष के आठ वोट अवैध घोषित करके भाजपा को चार वोट से जीत दिला दी थी। सुप्रीम कोर्ट ने न सिर्फ गिनती रद्द करके वापस आम आदमी पार्टी का मेयर बनाया है, बल्कि भाजपा के नेता अनिल मसीह पर मुकदमा दर्ज करने को कहा है। यह सत्ता के दुरुपयोग का प्रत्यक्ष उदाहरण है। ऐसे कई उदाहरण विपक्ष को मिल जाएंगे। विपक्षी नेताओं पर केंद्रीय एजेंसियों की कार्रवाई, विपक्षी नेताओं की गिरफ्तारी, राज्यपालों का मनमाना रवैया, मीडिया पर अघोषित पाबंदी जैसे कई मुद्दे हैं, जिन्हें विपक्ष गाहे-बगाहे उठाता रहता है।
जहां तक भ्रष्टाचार की बात है तो चुनावी बॉन्ड पर आया सुप्रीम कोर्ट का फैसला एक नजीर है। सरकार ने चुनावी चंदे के लिए एक ऐसी योजना लागू की थी, जिसमें शून्य पारदर्शिता थी। चुनावी बॉन्ड के जरिए चंदा देने की योजना में इतनी गोपनीयता थी कि किसी को पता नहीं चल पाता कि किसने बॉन्ड खरीदा, कितने का खरीदा और किसको कितनी राशि दी। इसे धन विधेयक की तरह सिर्फ लोकसभा से पास करके कानून बनाया गया था और सूचना के अधिकार कानून का दायरे से बाहर रखा गया था।
छह साल से यह योजना चल रही थी और इसके जरिए दिए गए 11 हजार करोड़ रुपए के चंदे में से साढ़े छह हजार करोड़ रुपया अकेले भाजपा को मिला था। सुप्रीम कोर्ट के पांच जजों की संविधान पीठ ने इस कानून को अवैध बताते हुए इसे रद्द कर दिया और इस पर रोक लगा दी। अभी सात जजों की एक पीठ इसे धन विधेयक की तरह पेश किए जाने के मामले की सुनवाई कर रही है। चुनावी बॉन्ड योजना को रद्द करने के साथ अदालत ने इसमें ‘क्विड प्रो को’ मिलीभगत की आशंका भी जताई।
अगर महंगाई की बात करें तो वह 2014 के मुकाबले कई गुना बढ़ गई है। महंगाई कई रूपों में आम लोगों का जीना मुहाल किए हुए है। पेट्रोल की कीमत देश के अनेक हिस्सों में एक सौ रुपए प्रति लीटर से ऊपर है। डीजल की कीमत भी 90 रुपए लीटर के आसपास है। रसोई गैस के सिलिंडर की कीमत जो 2014 में चार सौ रुपए थी, वह नौ सौ रुपए है, जो थोड़े दिन पहले तक 11 सौ रुपए हो गई थी। यह तब है, जबकि अंतरराष्ट्रीय बाजार में कच्चे तेल की कीमत बहुत कम हो गई है। खाने-पीने की चीजों की महंगाई भी बहुत बढ़ी हुई है।
एक तरफ कीमतें बढ़ रही हैं तो दूसरी ओर कंपनियां डब्बाबंद वस्तुओं का वजन कम करती जा रही हैं, जिसे स्रिंकफ्लेशन नाम दिया गया है। हर महीने जीएसटी की वसूली का नया रिकॉर्ड इसलिए नहीं बन रहा है कि उपभोग बढ़ रहा है। वह तो सरकार के आंकड़ों से ही पता कि जीडीपी की विकास दर अगर सात फीसदी है तो उसमें उपभोक्ता खर्च की बढ़ोतरी चार फीसदी के आसपास है। जीएसटी का रिकॉर्ड महंगाई बढ़ने की वजह से बन रहा है।
इस तरह कह सकते हैं कि देश में सत्ता के दुरुपयोग, भ्रष्टाचार और महंगाई तीनों की स्थितियां मौजूद हैं। लेकिन क्या विपक्ष इसे चुनावी मुद्दा बना पाएगा? क्या विपक्ष के पास इसकी सलाहियात है कि वह एकजुट होकर साझा तौर पर इन तीनों का मुद्दा बनाए और अगर विपक्ष ऐसा कर भी लेता है तो क्या जनता इस पर यकीन करेगी? यह बड़ा सवाल है क्योंकि यह विपक्षी पार्टियों की अपनी साख से जुड़ा मामला भी है। उनकी अपनी साख इतनी बिगड़ी हुई है कि लोग उनकी बातों पर यकीन नहीं करते हैं। भाजपा ने 10 साल की सत्ता का इस्तेमाल करके सुनियोजित तरीके से विपक्ष की साख खराब की है। विपक्षी पार्टियों को भ्रष्ट और परिवारवादी साबित किया गया है।
कांग्रेस के इमरजेंसी की हमेशा याद दिलाई जाती रही है। परिवारवादी प्रादेशिक पार्टियों के शासन के दौरान की मनमानियों की भी लोगों को याद दिलाई जाती है। इसके साथ साथ भाजपा की केंद्र सरकार ने अपने संसाधनों के दम पर लाभार्थी मतदाताओं का एक ऐसा वर्ग तैयार किया है, जिसे सत्ता के दुरुपयोग, भ्रष्टाचार या महंगाई से मतलब नहीं है। उसे पांच किलो अनाज मुफ्त में मिल रहा है, किसान सम्मान निधि के नाम पर पांच सौ रुपया महीना मिल रहा है, कहीं पीएम जनमन के तहत आदिवासियों को कुछ लाभ मिल रहे हैं तो कहीं शहरी व ग्रामीण आवास योजना के तहत मकान मिल रहे हैं, शौचालय बन रहे हैं, लखपति दीदी बनाई जा रही हैं तो लाड़ली बहनों को नकद पैसे मिल रहे हैं। भाजपा को चुनाव जीतने लायक वोट इन लाभार्थियों से मिल जाते हैं, जबकि भ्रष्टाचार और महंगाई से सबसे ज्यादा आहत होने वाला मध्य वर्ग हिंदू पुनर्जागरण के सपने में खोया हुआ है।
यही कारण है कि कांग्रेस और दूसरी विपक्षी पार्टियों का कोई राजनीतिक अभियान कामयाब नहीं हो पा रहा है। ऐसा नहीं है कि राहुल गांधी ने कोई कसर छोड़ी हो। उन्होंने मोदी राज के पांच साल बाद ही यानी 2019 में भ्रष्टाचार का मुद्दा बनाया था। ‘चौकीदार चोर है’ का नारा देकर उन्होंने चुनाव लड़ा था। राफेल का मुद्दा भी बड़े जोर-शोर से उठाया गया था। सत्ता के दुरुपयोग का आरोप तो लगभग सभी विपक्षी पार्टियां किसी न किसी रूप में लगाती ही रहती हैं और गाहे बगाहे महंगाई का मुद्दा भी उठता रहता है। लेकिन मोदी सरकार ने अपने ईर्द-गिर्द ऐसा सुरक्षा कवच बनाया है, कि कोई भी आरोप उसके ऊपर नहीं चिपक रहा है।
यह आयरन डोम की तरह है, जिससे टकरा कर सारे आरोप बेकार हो जा रहे हैं। ऐसा लग रहा है कि मोदी सरकार आरोप प्रूफ हो गई है, कोई भी आरोप उस पर चस्पां नहीं हो रहा है। लोग सरकार को भ्रष्ट मानने को तैयार नहीं हैं और सरकार के प्रचार का कमाल है कि विपक्षी नेताओं के खिलाफ कार्रवाई को भी जनता सत्ता का दुरुपयोग नहीं मान रही है। महंगाई जरूर लोग महसूस कर रहे हैं लेकिन उसके लिए सरकार को सजा देने को तैयार नहीं हैं। इसलिए विपक्ष के सामने हिमालय पर चढ़ने जैसा टास्क है कि वह लोगों को उन मुद्दों पर अपने पीछे एकजुट करे और उन मुद्दों पर मतदान के लिए प्रेरित करे, जिन मुद्दों पर आज तक भारत में सत्ता परिवर्तन होता रहा है।