राजभवनों की क्या सक्रियता कम होगी?
पता नहीं लोकतांत्रिक गणतंत्र भारत संविधान आधारित संसदीय प्रणाली की शासन व्यवस्था की हिप्पोक्रेसीज यानी दोहरे रवैए से कब मुक्त होगा? कब यह कहना बंद किया जाएगा कि संवैधानिक पदों पर बैठे लोग दल निरपेक्ष होते हैं और संविधान के हिसाब से काम करते हैं। कब यह कहना बंद होगा कि राष्ट्रपति तटस्थ होता है और पक्ष-विपक्ष दोनों उसके लिए बराबर होते हैं या कब यह कहना बंद किया जाएगा राज्यपाल दल निरपेक्ष होते हैं या लोकसभा के स्पीकर व राज्यसभा के सभापति और विधानसभाओं के स्पीकर पार्टी से ऊपर होते हैं? जिस दिन यह हिप्पोक्रेसी समाप्त हो जाएगी उस दिन भारत की शासन प्रणाली की आधी से ज्यादा समस्याएं सुलझ जाएंगी। लेकिन दुर्भाग्य है कि सब इस दिखावे में लगे रहते हैं कि राष्ट्रपति, उप राष्ट्रपति, राज्यपाल या स्पीकर दल निरपेक्ष होते हैं। वे दल निरपेक्ष नहीं होते हैं। वे सत्तारूढ़ दल से जुड़े रहे होते हैं और उसी के द्वारा चुने जाते हैं इसलिए संवैधानिक पद पर होने के बावजूद मोटे तौर पर वे सत्तारूढ़ दल के लोग होते हैं। अगर नहीं होते हैं तो कोई बताए कि क्या किसी ने कभी किसी राष्ट्रपति के मुंह से सुना है कि ‘मेरा विपक्ष ऐसे काम कर रहा है या मेरा विपक्ष वैसे काम कर रहा है’?
राष्ट्रपति संसद में खड़े होकर कहते रहे हैं कि ‘मेरी सरकार बहुत अच्छा काम कर रही है’। लेकिन कभी यह कहते नहीं सुना गया कि ‘मेरा विपक्ष बहुत अच्छा काम कर रहा है’। इसलिए क्योंकि विपक्ष उनका नहीं होता है। अगर होता तो जिस तरह से सरकार भाषण लिख कर देती है राष्ट्रपति को वैसे ही विपक्ष भी भाषण लिख कर देता और राष्ट्रपति दोनों को मिला कर अपना भाषण तैयार करते। लेकिन यहां तो राष्ट्रपति को सरकार का लिखा भाषण अक्षरशः पढ़ना होता है। क्या किसी ने सुना है कि सरकार के किसी फैसले या कानून को विपक्ष के कहने पर राष्ट्रपति ने बदलवाया है? नहीं बदलवाया है। भले बाद में उस कानून को सुप्रीम कोर्ट ने अवैध घोषित किया हो लेकिन राष्ट्रपतियों ने सरकार को कुछ नहीं कहा है।
यह भी एक बड़ी हिप्पोक्रेसी है कि राष्ट्रपति सर्वोच्च नागरिक है। हकीकत यह है कि उसे वही करना होता है, जो सरकार करने को कहती है। इस बारे में संसदीय प्रणाली के सबसे बड़े अध्येता सर आइवर जेनिंग्स ने कहा है कि अगर ब्रिटेन की कैबिनेट महारानी की मौत की सजा का प्रस्ताव भेजे तो महारानी को उस पर भी दस्तखत करना होगा। यह वेस्टमिनिस्टर मॉडल की हकीकत है। भारत में इसी मॉडल को अपनाया गया है। फर्क यह है कि ब्रिटेन गणतंत्र नहीं है तो वहां महारानी हैं और भारत में गणतंत्र है तो एक चुना हुआ राष्ट्रपति होता है। वही राष्ट्रपति सरकार की सलाह पर राज्यों में राज्यपालों की नियुक्ति करता है।
आजादी के बाद अपनाई गई हिप्पोक्रेसी में हम मानते रहे थे कि राज्यपाल दल निरपेक्ष होता है। हालांकि पहले दिन से सबको पता था कि राज्यपाल केंद्र सरकार की ओर से नियुक्त किया गया होता है और उसकी निष्ठा संविधान से ज्यादा केंद्र के प्रति होती है। वैसे भी संविधान ने राज्यपाल की कोई खास भूमिका तय नहीं की है। यहां तक कि राज्यपाल के पद को लेकर संविधान सभा में चल रही बहस जब बढ़ गई तो डॉक्टर भीमराव अंबेडकर ने कहा था कि यह एक सजावटी पद है इसलिए इस पर चर्चा में ज्यादा समय व्यर्थ गंवाने की जरुरत नहीं है। इससे इस पद की महत्व और जरुरत को समझा जा सकता है।
बहरहाल, राज्यपाल पहले भी केंद्र सरकार की मर्जी से काम करते थे और पहले तो अक्सर राज्यों को बरखास्त करने की रिपोर्ट भेजते रहे थे और सरकारें बरखास्त होती रही थीं। अब सरकारें बरखास्त नहीं होती हैं। अनुच्छेद 356 का इस्तेमाल रूक गया है लेकिन राजभवन समानांतर सत्ता केंद्र बन गए हैं। खास कर उन राज्यों में जहां भाजपा विरोधी पार्टियों की सरकारें हैं। राजभवनों पर तटस्थ और निरपेक्ष होने का जो झीना सा परदा था वह अब उतर गया है। अब राज्यपाल खुल कर राजनीति करते हैं। राज्य की समस्याओं पर पदयात्रा करते हैं। गांवों, कस्बों के दौरे करते हैं। लोगों की समस्याएं सुनते हैं। अधिकारियों के साथ बैठक करते हैं। भाजपा विरोधी पार्टियों की सरकारों को बदनाम करने के नैरेटिव्स तैयार करते हैं। कानून और व्यवस्था पर सरकारों को आड़े तिरछे हाथों लेते हैं। सरकार की सिफारिशें रोकते हैं। अपनी पसंद से और कई बार तो अपनी जाति व अपने राज्य के लोगों को लाकर विश्वविद्यालयों में कुलपति बनवाते हैं, विश्वविद्यालयों की नियुक्ति में दखल देते हैं, विधानसभा से पास हुए विधेयकों को लटका कर रखते हैं, सरकार का लिखा अभिभाषण विधानसभा में पढ़ने से मना कर देते हैं या उसमें संशोधन करने लगते हैं।
और एक राज्यपाल तो ऐसे निकले, जिन्होंने राज्य का नाम बदलने की वकालत कर दी और राजभवन के आधिकारिक निमंत्रण में राज्य का नाम बदल दिया। सबसे दिलचस्प बात यह है कि ऊपर बताए कामों में से कोई भी काम किसी राज्यपाल ने उस राज्य में नहीं किया, जहां भाजपा की सरकार है। इसका मतलब क्या यह है कि जहां भाजपा की सरकारें हैं वहां रामराज्य है और वहां राज्यपाल को कुछ भी करने की जरुरत नहीं है और जहां भाजपा विरोधी पार्टियों की सरकारें हैं वहां चुनी हुई सरकार इतनी निकम्मी है कि सब कुछ राज्यपाल को करना पड़ रहा है?
पंजाब से लेकर केरल, तेलंगाना से लेकर पश्चिम बंगाल और तमिलनाडु तक, जहां भी विपक्षी पार्टियों की सरकारें हैं उनको राज्यपालों का कहर झेलना पड़ रहा है। महाराष्ट्र और बिहार में जब भाजपा विरोधी सरकार थी तब उनको भी झेलना पड़ा था और जहां उप राज्यपाल हैं वहां के तो क्या ही कहने! केंद्र सरकार ने तो कानून में बदलाव करके चुनी हुई सरकार के ऊपर उप राज्यपाल को ही असली सरकार बना दिया है। बहरहाल, अब सुप्रीम कोर्ट के एक फैसले से यह उम्मीद जगी है कि राजभवनों की सक्रियता में थोड़ी कमी आएगी। सिर्फ इसलिए नहीं कि सुप्रीम कोर्ट ने तमिलनाडु के राज्यपाल द्वारा रोके गए 10 विधेयकों को मंजूरी दे दी है और विधेयक रोके रखने को अवैध ठहराया है, बल्कि इसलिए कि सुप्रीम कोर्ट ने विधेयकों की मंजूरी के कुछ नियम तय कर दिए हैं। अगर सरकार संसद में कानून बना कर उन नियमों को बदलती नहीं है तो कम से कम विधेयकों के मामले में सरकारों को राहत मिल जाएगी। सर्वोच्च अदालत ने कहा है कि विधानसभा से पास होकर आने के बाद राज्यपाल को एक से तीन महीने के भीतर विधेयक का निपटारा करना होगा। यानी वह अनंतकाल तक विधेयक लटका कर नहीं रख सकता है।
वह विधेयक को मंजूरी दे सकता है, वापस कर सकता है या राष्ट्रपति के पास विचार के लिए भेज सकता है। सुप्रीम कोर्ट ने इसके आगे यह भी नियम बना दिया है कि अगर पहली बार में उसने विधेयक वापस लौटाया है और विधानसभा ने दोबारा उसे पास करके राज्यपाल के पास भेजा है तो राज्यपाल उस विधेयक को राष्ट्रपति के पास नहीं भेज सकते हैं। यानी उनको अनिवार्य रूप से विधेयक को मंजूरी देनी होगी। इसका मतलब है कि राष्ट्रपति के पास किसी विधेयक को भेजने का फैसला राज्यपाल पहली बार में ही कर सकते हैं। अगर पहली बार नहीं किया है तो दूसरी बार में उसे राष्ट्रपति को नहीं भेज सकते हैं।
तमिलनाडु के राज्यपाल के विधेयक लंबित रखने को अवैध ठहराने और विधेयकों को मंजूरी देने के बाद अब केरल की सरकार ने भी कहा है कि उसके मामले को भी जस्टिस जेबी पारदीवाला के पास भेजा जाए। असल में केरल सरकार के भी अनेक विधेयकों को पिछले राज्यपाल महोदय ने लंबित रखा था। हालांकि कानूनी जानकारों का कहना है कि सुप्रीम कोर्ट का फैसला अपने आप इस तरह के सभी मामलों में लागू होगा। यानी अब विधेयकों को लंबित रखना कठिन हो गया। लेकिन इसके अलावा बाकी कामों का क्या होगा? क्या सुप्रीम कोर्ट की इस बात से कि ‘राज्यपाल को संविधान के हिसाब से काम करना होता है किसी पार्टी के हिसाब से नहीं’, राज्यपालों की अंतररात्मा जग जाएगी और वे विपक्षी पार्टियों की सरकारों के साथ भी संविधान के हिसाब से आचरण करने लगेंगे? यह मुश्किल लग रहा है। क्योंकि भारत में उच्च नैतिक व संवैधानिक मूल्यों का पालन करने वाले लोग सक्रिय राजनीति में बचे ही नहीं हैं। जो सक्रिय राजनीति में हैं या अभी अभी रिटायर हुए हैं वे कोई भी पद पाने के लिए किसी भी हद तक समझौता करने वाले लोग हैं। इसलिए उम्मीद करना बेमानी है कि वे संविधान की शपथ के हिसाब से काम करेंगे। माना जाना चाहिए कि वे पद देने वाले के प्रति निष्ठा से ही काम करेंगे।