न्यायिक सक्रियता से क्या टकराव बढ़ेगा?
न्यायपालिका और विधायिका के बीच टकराव का क्या नया दौर शुरू होने जा रहा है? देश के मुख्य न्यायाधीश डीवाई चंद्रचूड़ ने एक मीडिया समूह के कार्यक्रम में कहा है कि विधायिका चाहे तो नए कानून बना सकती है लेकिन वह अदालत के किसी फैसले को सीधे खारिज नहीं कर सकती है। यह उनका अपना आकलन नहीं है, बल्कि संवैधानिक स्थिति है, जिसका जिक्र करके उन्होंने स्थिति स्पष्ट की। इस बयान को एक के बाद एक हो रही घटनाओं के साथ मिला कर देखें तो समझ में आता है कि आने वाला समय टकराव का हो सकता है। एक के बाद एक अनेक ऐसे मुद्दे सुप्रीम कोर्ट के सामने पहुंच रहे हैं, जिनमें संविधान का सवाल शामिल है। संभवतः तभी चीफ जस्टिस चंद्रचूड़ ने कुछ समय पहले कहा था कि वे सात सदस्यों की एक स्थायी संविधान पीठ गठित करने पर विचार कर रहे हैं। अगर ऐसा होता है तो इसका मतलब होगा कि टकराव नहीं भी हो तो विधायिका और न्यायपालिका में स्थायी तनाव बना रहेगा।
वैसे अभी तक देश की उच्च न्यायपालिका और सरकार के बीच एक मुद्दे को छोड़ कर टकराव की स्थिति नहीं बनी है। टकराव का एकमात्र मुद्दा जजों की नियुक्ति का है। सुप्रीम कोर्ट की कॉलेजियम की ओर से भेजी गई सिफारिशों को सरकार आंख मूंद कर स्वीकार नहीं कर रही है। इस पर कई जज आपत्ति कर चुके हैं। सुप्रीम कोर्ट की एक बेंच ने पिछले दिनों कहा कि वह हर 15 दिन पर इस मसले पर सुनवाई करेगी। चीफ जस्टिस ने कहा कि सरकार कॉलेजियम की ओर से भेजे गए नामों को एक बार में मंजूरी नहीं दे रही है, जिससे जजों की वरिष्ठता प्रभावित हो रही है। कॉलेजियम की ओर से भेजी गई दर्जनों सिफारिशें सरकार के पास लंबित रहती हैं। सो, जजों की नियुक्ति के एक मामले को छोड़ दें तो सरकार और न्यायपालिका में टकराव नहीं हुआ है। अदालतें सुनवाई के दौरान सख्त टिप्पणी करती हैं लेकिन फैसला उस टिप्पणी के अनुरूप नहीं करती हैं। कई बार टिप्पणी के बिल्कुल विपरीत फैसला होता है। टिप्पणियों से लगता है कि अदालत बहुत नाराज है और सरकार के खिलाफ फैसला आएगा लेकिन ऐसा नहीं होता है।
परंतु आने वाले दिनों में यह स्थिति बदल सकती है। चीफ जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़ का एक साल का अगला कार्यकाल टकराव वाला हो सकता है। सुप्रीम कोर्ट के कुछ फैसलों से इसकी बुनियाद रखी जा चुकी है। मिसाल के तौर पर एक फैसला महाराष्ट्र के स्पीकर को विधायकों की अयोग्यता के बारे में फैसला करने की टाइमलाइन देने का है। केंद्र और राज्य सरकार के विरोध के बावजूद सुप्रीम कोर्ट ने स्पीकर राहुल नार्वेकर को कहा कि वे शिव सेना विधायकों की अयोग्यता पर 31 दिसंबर तक और एनसीपी विधायकों की अयोग्यता पर 31 जनवरी तक अंतिम फैसला करें। इससे पहले सुप्रीम कोर्ट ने कई बार स्पीकर की निष्क्रियता को लेकर टिप्पणी की थी। अदालत ने कहा था कि वे अनिश्चितकाल तक मामले को लंबित नहीं रख सकते। लेकिन स्पीकर ने इस पर कोई ध्यान नहीं दिया। उलटे उन्होंने कहा कि वे फैसले में न देरी करेंगे और न जल्दबाजी करेंगे क्योंकि जल्दबाजी करने से अन्याय होने की संभावना बढ़ जाती है। उनके इस रवैए को देखते हुए सुप्रीम कोर्ट ने आदेश पारित कर दिया। इस मामले में सरकार ने कहा था कि इससे पीठासीन अधिकारियों को टाइमलाइन देने की गलत परम्परा शुरू होगी और हाई कोर्ट भी इस तरह के आदेश देने लगेंगे।
इसके अलावा दो और मामले थे, जिनमें लगा था कि अदालत का टकराव सरकार के साथ बढ़ सकता है, लेकिन सर्वोच्च अदालत ने अपने फैसले से इस स्थिति को टाल दिया। पहला मामला दिल्ली के पूर्व उप मुख्यमंत्री मनीष सिसोदिया की जमानत का था, जिसमें सुप्रीम कोर्ट ने ईडी के कामकाज को लेकर बहुत सख्त टिप्पणी की थी। अदालत ने यहां तक कहा था कि एजेंसी सबूत ले आए नहीं तो केस दो मिनट नहीं टिकेगा। हालांकि बाद में अदालत ने सिसोदिया को जमानत नहीं दी। इसी तरह दूसरा मामला आप के ही दूसरे नेता राघव चड्ढा का था। उनको राज्यसभा से निलंबित किए जाने पर अदालत ने बहुत सख्त टिप्पणी की थी। सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि इस तरह से सदस्यों को अनिश्चितकाल के लिए निलंबित करना चिंताजनक है। तब लगा था कि शायद अदालत संसद के दोनों सदनों के पीठासीन अधिकारियों को लेकर कोई आदेश पारित कर सकती है। लेकिन अंत में अदालत ने चड्ढा को कहा कि वे राज्यसभा के सभापति से बिना शर्त माफी मांग कर मामले को खत्म करें। साथ ही सभापति को भी अदालत ने कहा कि अगर चड्ढा बिना शर्त माफी मांगते हैं तो वे सहानुभूतिपूर्वक इस पर विचार करें।
इन दो-तीन मामलों के बाद अब जो मामले सर्वोच्च अदालत के सामने लम्बित हैं और एक के बाद जिस तरह के मामले अदालत के सामने पहुंच रहे हैं उसे देखते हुए लग रहा है कि आने वाले दिनों में टकराव का नया दौर शुरू हो सकता है। इन मामलों में चुनावी बॉन्ड का मामला है, जिस पर सुनवाई पूरी करके अदालत ने फैसला सुरक्षित रख लिया है। इस मामले में भी सुनवाई के दौरान अदालत की टिप्पणी बहुत सख्त थी। सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि यह मानने में बहुत मुश्किल है कि नागरिकों को चंदे का स्रोत जानने का हक नहीं है। अदालत ने यह भी कहा कि इस मामले में चुनिंदा गोपनीयता है यानी सत्तापक्ष को स्रोत का पता है, जबकि विपक्ष को नहीं पता है। इस मामले में अदालत का फैसला बहुत अहम होगा। इसी तरह प्रवर्तन निदेशालय यानी ईडी के अधिकारों को चुनौती देने वाली याचिकाओं पर सुनवाई भी अहम होगी। सुप्रीम कोर्ट इस मामले में अपने ही फैसले के कुछ पहलुओं की समीक्षा करने वाली है।
इसके अलावा विपक्ष के नेता जिस रफ्तार से सुप्रीम कोर्ट की दौड़ लगा रहे हैं उससे भी टकराव की संभावना पैदा हो रही है। हाल के दिनों में तीन राज्य सरकारों ने अदालत का रुख किया है। पंजाब सरकार इस बात को लेकर सुप्रीम कोर्ट पहुंची है कि राज्यपाल ने विधानसभा सत्र में पेश करने के लिए भेजे गए विधेयकों को मंजूरी नहीं दी। हालांकि पंजाब सरकार के अदालत में जाने और उस पर सुनवाई से पहले राज्यपाल ने दो धन विधेयकों को मंजूरी दे दी। इसी तरह तमिलनाडु और केरल की सरकारें सुप्रीम कोर्ट पहुंची हैं। उनका कहना है कि राज्यपालों ने विधानसभा से पास किए गए विधेयकों को लटका कर रखा है, उस पर मंजूरी नहीं दे रहे हैं। इस बीच तृणमूल कांग्रेस की सांसद महुआ मोइत्रा का मामला आया है। लोकसभा की एथिक्स कमेटी अगर उनकी सदस्यता खत्म करती है तो वे इसके खिलाफ सुप्रीम कोर्ट जाएंगी। ध्यान रहे पिछले दिनों सुप्रीम कोर्ट ने मानहानि के मामले में राहुल गांधी को राहत दी थी, जिसके बाद उनकी सदस्यता बहाल हुई थी और अब राजद के नेता तेजस्वी यादव भी सुप्रीम कोर्ट पहुंचे हैं। बहरहाल, राज्यपालों के अधिकारों और कामकाज से लेकर संसद व विधानसभाओं के पीठासीन अधिकारियों और केंद्रीय एजेंसियों के कामकाज से लेकर राजनीतिक दलों के चंदे से जुड़े इतने मामले में अदालत में पहुंच गए हैं या पहुंचने वाले हैं कि आने वाले दिन टकराव वाले हो सकते हैं।