क्यों चुनाव पर उदासीनता?
देश में जिससे बात कीजिए वह कहता मिलेगा कि यह बहुत अहम चुनाव है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने पहले चरण के मतदान से पहले अपनी पार्टी के कार्यकर्ताओं को संबोधित किया तो कहा कि यह सामान्य चुनाव नहीं है। राहुल गांधी ने भी कांग्रेस कार्यकर्ताओं में जोश भरते हुए कहा कि यह कोई सामान्य चुनाव नहीं है। एक तरफ प्रधानमंत्री मोदी हैं, जो लगातार तीसरी बार चुनाव जीत कर देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू के रिकॉर्ड की बराबरी करने के लिए लड़ रहे हैं। वे चुनाव को इसलिए अहम बता रहे हैं क्योंकि वे अपनी सरकार के कामकाज के निरंतरता बनाए रखना चाहते हैं ताकि 2047 तक भारत विकसित राष्ट्र बने। दूसरी तरफ राहुल गांधी और विपक्ष के अन्य नेता हैं, जिनका दावा है यह आखिरी चुनाव है और अगर मोदी फिर से जीते तो संविधान और लोकतंत्र दोनों को समाप्त कर देंगे यानी देश में फिर चुनाव नहीं होगा। यह एक किस्म की अतिवादी धारणा है।
इसके बावजूद हैरानी की बात यह है कि पहले चरण में मतदान प्रतिशत बढ़ने की बजाय कम हो गया। चुनाव आयोग के आंकड़ों के मुताबिक पहले चरण में जिन सीटों पर मतदान हुआ है उन सीटों पर पिछली बार के मुकाबले चार फीसदी कम वोट पड़े हैं। पिछली बार इन सीटों पर 70 फीसदी के करीब मतदान हुआ था, जबकि इस बार 66 फीसदी के करीब वोट पड़े हैं। यह पिछले बार के राष्ट्रीय औसत से भी एक फीसदी कम है। सवाल है कि जब चुनाव इतना अहम है। संविधान और लोकतंत्र बचाने की लड़ाई है या एक भारत, श्रेष्ठ भारत बनाने की लड़ाई है तो फिर मतदाता जोश क्यों नहीं दिखा रहे हैं? क्यों नहीं वे बड़ी संख्या में बाहर निकल रहे हैं और अपनी अपनी वैचारिक मान्यताओं के हिसाब से वोट डाल रहे हैं?
अगर हाल के दिनों की बात करें तो इस तरह का स्पष्ट वैचारिक विभाजन वाला चुनाव 2020 में अमेरिका में हुआ था, जब तत्कालीन राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप दूसरे कार्यकाल के लिए लड़ रहे थे। डेमोक्रेटिक पार्टी की ओर से जो बाइडेन उनको चुनौती दे रहे थे। तब अमेरिका के जाने माने स्तंभकार थॉमस एल फ्रायडमैन ने अपने कॉलम में लोगों से अपील की थी कि वे किसी हाल में मतदान केंद्र पर जाएं और वोट डालें। उन्होंने ट्रंप को हरा कर अपने देश को बचाने की अपील करते हुए अमेरिकी लोगों से कहा था कि अगर वे चल नहीं चलते हैं तो रेंग कर जाएं लेकिन बूथ पर जाएं और वोट डालें।
उनके जैसे अनेक बुद्धिजीवी, लेखक, कलाकार, अभिनेता आदि लोगों से ऐसी ही अपील कर रहे थे। चाहे इनकी अपील का असर हो या अपनी समझदारी हो, अमेरिकी लोग बाहर निकले और वोट किया। अगर भारत में सचमुच संविधान और लोकतंत्र खतरे में है तो फिर लोग क्यों नहीं वोट डालने निकल रहे हैं? क्या उनको यह खतरा समझ में नहीं आ रहा है? उनकी उदासीनता से क्या यह निष्कर्ष निकाला जाए कि संविधान और लोकतंत्र पर खतरे की बात सिर्फ विपक्षी पार्टियों की निजी चिंता है और वे सत्ता में आने के लिए ऐसा प्रचार कर रही हैं? या कहीं ऐसा तो नहीं है कि आम लोग उम्मीद छोड़ चुके हैं और उनको लग रहा है कि उनके वोट देने से कुछ नहीं बदलने वाला है? आखिर दशकों पहले महान व्यंग्यकार मार्क ट्वेन ने कहा था- अगर वोट देने से कुछ भी बदलता तो वे हमें कभी वोट नहीं देने देते।
हरहाल, पहले चरण के मतदान में आम लोगों की जो उदासीनता दिखी है, खासकर उत्तर भारत की हिंदी पट्टी में या दक्षिण, पश्चिम के बड़े राज्यों में वह चिंता में डालने वाली है। सोचें, मध्य प्रदेश में पिछले 20 साल में पहली बार ऐसा हुआ कि लोकसभा चुनाव में पहले से कम मतदान हुआ। राजनीतिक रूप से सबसे जागरूक माने जाने वाले बिहार की चार सीटों पर सिर्फ 49 फीसदी वोटिंग हुई, जबकि इन चार सीटों पर पिछली बार 53 फीसदी वोटिंग हुई थी। 53 फीसदी के न्यूनतम बेस पर भी चार फीसदी वोट कम पड़े। राजस्थान में 2019 में 64 फीसदी वोट पड़े थे लेकिन इस बार सिर्फ 57.65 फीसदी मतदान हुआ है। तमिलनाडु में पिछली बार 72.44 फीसदी वोट पड़े थे लेकिन इस बार 69.46 फीसदी ही वोट पड़ा है। कम मतदान के लिए गरमी को एक कारण बताया जा रहा है लेकिन उत्तराखंड जैसे पहाड़ी राज्य में भी पिछली बार के 62.88 के मुकाबले 56.72 यानी छह फीसदी कम मतदान हुआ। अगर पूर्वोत्तर के राज्यों और एकाध केंद्र शासित प्रदेशों को छोड़ दें तो उत्तर, मध्य और पश्चिमी भारत में मतदान का औसत बहुत कम रहा है।
हो सकता है कि आगे के चरणों में मतदान का औसत सुधरे लेकिन पहले चरण के आंकड़ों के साथ साथ एक दूसरा आंकड़ा भी है, जिससे मतदाताओं खास कर युवा मतदाताओं की लोकतंत्र और राजनीति के प्रति उदासीनता दिखती है। चुनाव आयोग की ओर से जारी आंकड़ों के मुताबिक 18 से 19 साल के युवाओं में से सिर्फ 38 फीसदी ने मतदाता के तौर पर अपना पंजीकरण कराया है। उत्तर प्रदेश, बिहार और महाराष्ट्र जैसे बड़े राज्यों में तो यह 25 फीसदी से भी कम है। बिहार में 18 से 19 साल की उम्र के सिर्फ 18 फीसदी युवाओं ने मतदाता के रूप में अपना पंजीकरण कराया है। यह लोकतंत्र से मोहभंग है या पिछले 10 साल के शासन से असंतोष है, जिसकी वजह से युवाओं में विरक्ति का भाव पैदा हुआ है?
याद करें 10 साल पहले युवाओं में कैसा उत्साह था! देश भर के युवा मोदी, मोदी के नारे लगा रहे थे। युवा पेशेवर अपने कामकाज से छुट्टी लेकर सोशल मीडिया में या सड़क पर उतर कर मोदी के लिए कैंपेन चलाते हुए थे। युवाओं में एक उम्मीद थी, उत्साह था लेकिन इस बार वह उत्साह नदारद है। प्रधानमंत्री बनने के बाद मोदी ने परीक्षा पर चर्चा शुरू की। वे हर साल बोर्ड परीक्षा देने वाले किशोरों और युवाओं से संवाद करते हैं। उन्हें चुनाव और लोकतंत्र का महत्व भी समझाते हैं लेकिन 18 से 19 साल की उम्र के 62 फीसदी युवाओं ने मतदाता के रूप में अपना पंजीकरण ही नहीं कराया!
पहले चरण में कम मतदान और युवाओं के चुनाव व मतदान से विरक्ति की परिघटना को कई तरह से देखा जा सकता है। इसकी एक व्याख्या तो यह है कि इस बार चुनाव में कोई सस्पेंस नहीं है। यह धारणा बन गई है कि फिर से मोदी जीत रहे हैं। सस्पेंस सिर्फ इतना है कि उनको सीटें कितनी मिलेंगी। चुनाव में जब सस्पेंस खत्म हो जाता है यानी मतदाता को एक अच्छा मुकाबला होता नहीं दिखता है तो चुनाव में उसकी दिलचस्पी खत्म हो जाती है। यह किसी भी मुकाबले के लिए कहा जा सकता है। एकतरफा मुकाबला कौन देखना चाहता है! हो सकता है कि सत्तापक्ष की ओर से एकतरफा मुकाबले की हवा बनाने से लोग उदासीन हुए हों। हालांकि यह सवाल अपनी जगह है कि ऐसी हवा बनाने से सत्तापक्ष के समर्थक मतदाता उदासीन हुए हैं या विरोधी भी उदासीन हुए हैं? अगर सत्तापक्ष के समर्थक उदासीन हुए तो अपना ही प्रचार भाजपा को भारी पड़ जाएगा।
दूसरा कारण यह हो सकता है कि मतदाताओं को इस लड़ाई में शामिल होने के लिए कोई ठोस और अच्छा मुद्दा नहीं दिख रहा हो। युवाओं को लग रहा हो कि सब कुछ एक ढर्रे पर चल रहा है तो वे क्यों अपनी दिनचर्या में खलल डालें। अगर ऐसा है तो यह बेहद चिंताजनक प्रवृत्ति है, जो लंबे समय में लोकतंत्र के लिए खतरनाक है। मतदाताओं को आगे आना चाहिए और लोकतंत्र के इस उत्सव में शामिल होना चाहिए। यह ध्यान रखने की जरुरत है कि राजनीतिक रूप से जागरूक नागरिक की लोकतांत्रिक प्रक्रिया में भागीदारी ही किसी देश या समाज के भविष्य को बेहतर बनाती है।