असहमति के प्रति इतनी असहिष्णुता क्यों?
राष्ट्रीय स्तर पर ख्याति पा चुकीं भोजपुरी की लोक कवि नेहा सिंह राठौड़ ने पिछले दिनों एक न्यूज चैनल के कार्यक्रम में कहा था, ‘कवि दो तरह के होते हैं। एक लोक कवि, एक सरकारी कवि’। यह बात उन्होंने कार्यक्रम में मौजूद हिंदी कविता के मंच की लोकप्रिय कवि अनामिका जैन अंबर की मौजूदगी में उनकी ओर इशारा करके कहा था। इसके थोड़े दिन बाद ही बिहार सरकार ने अनामिका जैन अंबर को बिहार के एक कार्यक्रम में शामिल होने से रोक दिया। बिहार के सोनपुर में हर साल लगने वाले सबसे बड़े पशु मेले में एक कवि सम्मेलन होना था, जिसके लिए अनामिका जैन को आमंत्रित किया गया था। वे इस कार्यक्रम में हिस्सा लेने के लिए पटना पहुंच गई थीं लेकिन उनको सोनपुर नहीं जाने दिया गया। अच्छी बात यह रही कि उनके समर्थन में बाकी कवियों ने कवि सम्मेलन का बहिष्कार किया। यह सही है कि राज्य में जिस राजनीतिक गठबंधन की सरकार है उसकी अनामिका जैन के विचारों से असहमति होगी लेकिन क्या यह उनको बोलने से रोक देने का पर्याप्त कारण है?
ध्यान रहे बिहार में जिस राजनीतिक गठबंधन की सरकार है उसमें राष्ट्रीय जनता दल, कांग्रेस और तीन वामपंथी पार्टियां शामिल हैं, जो अभिव्यक्ति की आजादी की चैंपियन मानी जाती हैं। इन तीनों पार्टियों का बड़ा सरोकार रहा है कि पिछले आठ साल में देश में असहमति की आवाजों को दबाया जा रहा है, अभिव्यक्ति की आजादी पर हमले हो रहे हैं और देश में अघोषित आपातकाल लग गया है। इसके बावजूद इन पार्टियों की सरकार ने एक कवियत्री को इसलिए काव्य पाठ करने से रोक दिया क्योंकि एक पक्ष उनको सरकारी कवि मानता है और उन्होंने उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के समर्थन में कविता लिखी थी। अनामिका जैन ने उत्तर प्रदेश के पिछले विधानसभा चुनाव में नेहा सिंह राठौड़ की कविता ‘यूपी में का बा’ के जवाब में ‘यूपी में बाबा’ कविता लिखी थी। इस आधार पर उनको सरकारी कवि कहा गया और एक गैर भाजपा शासन वाले राज्य में उनको काव्य पाठ करने से रोक दिया गया।
ऐसा करके सरकार में शामिल सभी लिफ्ट, लिबरल और डेमोक्रेटिक विचार वाली पार्टियों और इसका समर्थन करने वाले तमाम बुद्धिजीवियों ने अपनी नैतिक ताकत कम कर ली है। अब अगर देश के किसी राज्य में वीर दास या कुणाल कामरा का कार्यक्रम रद्द होता है या सुरक्षा कारणों से मुनव्वर फारूकी का कार्यक्रम रद्द किया जाता है या अपने बौद्धिक ज्ञान की वजह से विकास दिव्यकीर्ति का बहिष्कार होता है, रिचा चड्ढा और अली फजल सोशल मीडिया में निशाना बनाए जाते हैं तो कैसे ये पार्टियां और बुद्धिजीवी इसका विरोध करेंगे? वे कैसे वीर दास, कुणाल कामरा और मुनव्वर फारूकी के समर्थन में उतरेंगे? जब वे अनामिका जैन की अभिव्यक्ति के अधिकार को दबा रहे हैं तो कैसे किसी और की अभिव्यक्ति के अधिकार का समर्थन करेंगे? यहां यह तथ्य नोट रखने की जरूरत है कि अनामिका जैन कोई भड़काऊ कविता नहीं पढ़ती हैं। वे अपने को राष्ट्रवादी कवियत्री कहती हैं और अपनी राजनीतिक समझ के हिसाब से एक विचारधारा का समर्थन करती हैं। इस आधार पर अगर उनकी अभिव्यक्ति की आजादी बाधित की जाती है तो फिर किसी दूसरी विचारधारा का समर्थन करने वालों की अभिव्यक्ति की आजादी का समर्थन कैसे किया जाएगा?
अभिव्यक्ति की आजादी का समर्थन सेलेक्टिव नहीं हो सकता है। यह एब्सोल्यूट होना चाहिए। जैसा कि वोल्टेयर ने कहा था- अगर सारी दुनिया एक विचार को मानती है और एक व्यक्ति अलग राय रखता है तो उस व्यक्ति की अभिव्यक्ति की आजादी की रक्षा के लिए मैं अपनी जान भी दे सकता हूं। स्वतंत्रता और अभिव्यक्ति की आजादी का समर्थन इस तरह से होना चाहिए। विचारधारा चाहे जो हो और उससे आपकी चाहे जैसी असहमति हो, अगर आप अपने से भिन्न विचारधारा की अभिव्यक्ति को बाधित करते हैं तो फिर उदार, लोकतांत्रिक या सहिष्णु नहीं कहे जा सकते हैं। फिर आप चाहे किसी भी तर्क से समझाना चाहें पर आपकी असहिष्णुता और उनकी असहिष्णुता में कोई फर्क नहीं रह जाएगा।
दुर्भाग्य से सोशल मीडिया के इस दौरे पर अभिव्यक्ति की आजादी के समर्थन और विरोध को बहुत सेलेक्टिव बना दिया गया है। कवियों, साहित्यकारों, अभिनेताओं और पत्रकारों को उनकी विचारधारा के आधार पर ब्रांड किया जा रहा है और उस आधार पर उनका समर्थन या विरोध हो रहा है। हर दिन किसी न किसी कवि, लेखक, पत्रकार, अभिनेता या सार्वजनिक जीवन में रहने वाले किसी व्यक्ति की बातों से समाज आहत हो रहा है और उसके बहिष्कार की घोषणा हो रही है। जिस समाज में आदिकाल से संवाद और शास्त्रार्थ की परंपरा चली आ रही है वहां संवाद की सारी संभावनाओं को खत्म किया जा रहा है। कोई भी व्यक्ति दूसरा पक्ष या अपना प्रतिपक्ष सुनने को तैयार नहीं है। यह स्थिति देश को विचार शून्यता के दौर में ले जा रही है। हर व्यक्ति अपनी विचारधारा और अपनी सोच को लेकर श्रेष्ठता बोध से ग्रसित है। उसे लग रहा है कि देश और समाज के भले के लिए सिर्फ वहीं सोच रहा है।
इसका दूसरा पक्ष यह भी है कि राजनीतिक विचारधारा की तरह अब साहित्य और सिनेमा भी राजनीति का एक टूल हो गया है। साहित्यकार और अभिनेता जान बूझकर इसका हिस्सा बन रहे हैं क्योंकि इससे उनका एक समर्थक वर्ग तैयार होता है। वे एक खास विचारधारा के लोगों में अपना समर्थन बढ़ाने के लिए उस राजनीतिक विचारधारा का समर्थन करते हैं। यह पूरी तरह से सुनियोजित होता है। यह भी एक खतरनाक ट्रेंड है और केंद्र से लेकर राज्यों तक में सरकारों को इससे सावधान रहना चाहिए। लेकिन दुर्भाग्य से सरकारें भी सोशल मीडिया में बनने वाले नैरेटिव से प्रभावित होती हैं। वे कंटेंट की गुणवत्ता या उसके गुण दोष पर विचार नहीं करती हैं। इसी का नतीजा है कि कहीं वीर दास और मुनव्वर फारूकी के कार्यक्रम रोक दिए जाते हैं तो कहीं अनामिक जैन को कविता नहीं पढ़ने दिया जाता है। वीर दास और फारूकी का कार्यक्रम रद्द होने पर जो वर्ग इसके विरोध में अभिव्यक्ति की आजादी का झंडा उठाता है वह अनामिका जैन की अभिव्यक्ति के अधिकार का मामला आने पर या तो चुप हो जाता है या उनको कविता पढ़ने से रोके जाने को सही ठहराने लगता है।
इस तरह की प्रवृत्ति सत्ता को मजबूती देती है। किसी साहित्यकार या कलाकार की अभिव्यक्ति को बाधित करने वाली सरकार को भरोसा होता है बुद्धिजीवियों में इतना वैचारिक विभाजन है और आजादी को लेकर उनकी सोच इतनी सतही व कमजोर है कि एक वर्ग जरूर उसका समर्थन करेगा। ध्यान रखने की जरूरत है कि चाहे कोई भी सत्ता हो वह कविता से डरती है। सुभद्रा कुमारी चौहान से लेकर पाश और मुक्तिबोध तक सत्ता को डराते रहे हैं। लेकिन इतिहास में कभी ऐसा नहीं हुआ कि कोई सत्ता किसी विदूषक से डरती हो। सत्ता की चाकरी करने वालों से कोई नहीं डरता। प्रतिरोध की कविता डराती है, चारण की कविता कभी नहीं डराती। नेहा सिंह राठौड़ की कविता सत्ता को डरा सकती है लेकिन अनामिक जैन की कविता से किसी को क्यों डरना या घबराना चाहिए?