खूफिया जांच एजेंसियों पर सरकार का कब्जा क्यों…?
हाल ही में सामने आई एक अंतर्राष्ट्रीय जांच एजेंसी की रिपोर्ट में यह चौकाने वाला खुलासा सामने आया है कि भ्रष्टाचार के मामले में हमारा भारत देश विश्व में पांचवें नम्बर पर आ गया है, अर्थात् ‘‘पृथ्वी का स्वर्ग’’ कहलाने की हमारी तमन्ना अब इस रूप में हमारे सामने आई है और इसी रिपोर्ट में यह भी स्पष्ट किया गया है कि भारत में सरकारी स्तर पर भ्रष्टाचार आम भ्रष्टाचार के मुकाबले सर्वाधिक है। इस रिपोर्ट ने विश्वस्तर पर भारत की छवि तो खराब की ही, साथ ही इस पर एक आम भारतवासी को चिंतन हेतु मजबूर भी कर दिया है।
अब यदि इस अंतर्राष्ट्रीय जांच रिपोर्ट के माध्यम से सिर्फ इस पहलू पर विचार किया जाए कि भारत में आम भ्रष्टाचार के मुकाबले सरकारी स्तर पर भ्रष्टाचार सर्वाधिक क्यों है? तो इसका जवाब हमें कई पहलुओं के तारतम्य में खोजना पड़ेगा। जिनमें से सबसे अहम् पहलू इस भ्रष्टाचार में राजनीति का योगदान है। इस विश्वस्तरीय जांच रिपोर्ट ने यह भी उजागर किया है कि भारत में सत्तारूढ़ राजनीतिक दल और उस पर विराजित राजनेता के भ्रष्टाचार का प्रतिशत सर्वाधिक याने सत्तर फीसदी से अधिक है।
इस रिपोर्ट में उजागर हुए तथ्यों ने हर जागरूक भारतीय को परेशान करके रख दिया है, इसी रिपोर्ट में यह भी उल्लेख है कि भारत में भ्रष्टाचार को रोकने, भ्रष्टाचारियों के दिल-दिमाग में भय पैदा करने के लिए प्रवर्तन निदेशालय (ईडी) तथा केन्द्रीय जांच ब्यूरो (सीबीआई) जैसी केन्द्र स्तर पर तथा सीआईडी जैसी राज्य स्तर पर जांच एजेंसियां भी है, किंतु वे भी भारत की इस बदनामी को रोक नहीं पा रही है, इसकी एक मात्र वजह यह है कि इन खूफिया जांच एजेंसियों पर सत्तारूढ़ भ्रष्ट राजनीतिज्ञों का ही नियंत्रण है और इसलिए जांच एजेंसियां स्वतंत्रतापूर्वक अपने दायित्व का निर्वहन नहीं कर पा रही है। जबकि हमारी स्वतंत्र न्यायपालिका कई बार इस बात का रहस्योद्घाटन भी कर चुकी है।
यद्यपि अब तो न्यायपालिका के बारे में भी ऐसा ही आरोप लगने लगा है कि वह भी राजनेताओं के हाथों का खिलौना बनती जा रही है, किंतु वास्तविकता यह है कि आज भारत में प्रजातंत्र के दो अंगों न्यायपालिका व विधायिका के बीच मुख्य संघर्ष इसी बात को लेकर चल रहा है, हमारे संविधान में प्रजातंत्र के तीनों अंगों कार्यपालिका, न्यायपालिका व विधायिका के कर्तव्यों व अधिकारों का चाहे विस्तृत विश्लेषण किया गया हो किंतु सत्तारूढ़ विधायिका में विराजित राजनेता कार्यपालिका की तरह न्यायपालिका को भी अपने नियंत्रण में रखना चाहते है, जिससे कि उनकी स्वेच्छाचारिता पर कोई अंकुश न रहे, इसलिए केन्द्र में सत्तारूढ़ होने वाले हर राजनीतिक दल के सत्तारूढ़ नेताओं का पहला प्रयास यही होता है कि वह येन-केन-प्रकारेण न्यायपालिका को अपने कब्जे में ले लें, जिससे कि उनका कोई घोषित या अघोषित नियंत्रक न हो।
न्यायपालिका कई बार यह कह चुकी है कि जब तक भ्रष्टाचार की जांच करने वाली एजेंसियां सरकार के नियंत्रण में रहेगी तब तक सही व निष्पक्ष जांच संभव नहीं है, सुप्रीम कोर्ट के न्यायधीशगण इस बात को कई बार दोहरा भी चुके है, लेकिन कोई भी सत्तारूढ़ दल इस सलाह को मंजूर करने को तैयार ही नही है। हर दल का सत्तारूढ़ राजनेता इन जांच एजेंसियों पर अपना ही कब्जा रखना चाहता है, जिससे कि भ्रष्टाचार उजागर न हो पाए और यही हमारे “देश मेें दिन दूने, रात चौगुने” भ्रष्टाचार के बढ़ने का मूल कारण है। हमारे देश का सुप्रीम कोर्ट भी कई बार केन्द्र को खूफिया एजेंसियों को अपनी गिरफ्त से बाहर करने की सरकारों को सलाह दे चुका है, किंतु आज तक सत्तारूढ़ किसी भी दल ने न्यायपालिका की इस राय को महत्व नहीं दिया।
अब जबकि भ्रष्टाचार को लेकर पूरे संसार में भारत की बदनामी हो रही है, तब कथित भ्रष्टाचार विरोधी मोदी सरकार को इस मामले में आगे बढ़कर कदम उठाना चाहिए तभी हमें इस लांछन से मुक्ति मिल सकेगी और जांच एजेंसियां भी स्वतंत्ररूप से अपने काम को अंजाम दे सकेगी।