क्यों किसानों की मांगे नहीं मानते?
ऐसा लग रहा है कि केंद्र सरकार ने एक साल तक चले किसान आंदोलन का सबक भुला दिया है। तभी वह एक बार फिर किसान आंदोलन को रोकने और किसानों को दबाने के लिए उन्हीं उपायों का सहारा ले रही है, जिनका इस्तेमाल 2020-21 के किसान आंदोलन के समय किया गया था। तब किसानों को दिल्ली कूच करने से रोकने के लिए रास्ते बंद किए गए। फोन और इंटरनेट पर पाबंदी लगाई गई। किसानों को बदनाम करने के लिए एक पूरा इकोसिस्टम विकसित किया गया, जिसने किसानों और उनसे सहानुभूति रखने वालों को देशद्रोही ठहराया। किसानों को विदेश से फंडिंग मिलने और भारत विरोधी टूलकिट से मदद मिलने की बातें प्रचारित करके उनको बदनाम करने का प्रयास किया गया। इन सबका कुल जमा नतीजा यह था कि किसान एक साल तक सड़क पर लड़ते रहे, जिसमें सात सौ किसानों की जान गई और अंत में केंद्र सरकार को तीनों कृषि कानून वापस लेने पड़े।
जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने राष्ट्र को संबोधित करते हुए तीनों कृषि कानून वापस लेने का ऐलान किया तब ऐसा लगा था कि सरकार को सबक मिल गया है। सरकार ने समझ लिया है कि किसानों से टकराने या उन्हें आजमाने का कोई मतलब नहीं है। लेकिन एक बार फिर किसान आंदोलन पर उतरे हैं तो वही सारी तिकड़में आजमाई जा रही हैं। किसानों से दिखावे की बातचीत हुई है, जैसी बातचीत तब होती थी। किसान नेताओं के ट्विटर हैंडल बंद कराए गए हैं। पंजाब से लगती हरियाणा की सीमा पर ऐसी बाड़ेबंदी की गई है, जैसी भारत पाकिस्तान की सीमा पर नहीं है। सड़कों पर कंक्रीट की दीवारें खड़ी कर दी गई हैं। लोहे की बड़ी बड़ी कीलें सड़कों पर लगाई गई हैं। कंटेनर लगा कर सड़कों को बंद किया गया है। किसानों के ऊपर ड्रोन से आंसू गैस के गोले छोड़े जा रहे हैं और अर्धसैनिक बलों को तैनात किया गया है। दिल्ली की सीमा भी चारों तरफ से बंद कर दी गई है।
सोचें, किसान ऐसा क्या कर रहे हैं कि उनके लिए इस तरह से उपाय करने की जरुरत है? किसान उन्हीं मांगों को तो दोहरा रहे हैं, जिनको सरकार ने नवंबर 2021 में मान लिया था। उस समय सरकार ने किसानों से कई वादे किए थे लेकिन एक बार आंदोलन खत्म होने के बाद जब किसानों की मांगें पूरी करने की बारी आई तो टालमटोल का दौर शुरू हो गया। न्यूनतम समर्थन मूल्य यानी एमएसपी को कानूनी दर्जा देने की किसानों की मांग पर एक कमेटी बना दी गई। कमेटी की रिपोर्ट का क्या हुआ किसी को पता नहीं है लेकिन इतना पता है कि किसान सरकार की पहल से संतुष्ट नहीं हैं और न सहमत हैं। तभी एक बार फिर उनको उसी मांग के लिए सड़क पर उतरना पड़ा है, जिसे मानने का वादा सरकार ने दो साल पहले किया था।
किसान चाहते हैं कि न्यूनतम समर्थन मूल्य को कानूनी दर्जा दिया जाए। इसके जवाब में सरकार और इसके इकोसिस्टम की ओर से समझाया जाता है कि अब तो निजी कारोबारी एमएसपी से ज्यादा कीमत पर अनाज खरीद रहे हैं। इसके आंकड़े भी पेश किए जाते हैं, जिसमें बताया जाता है कि कहां निजी कारोबारियों ने एमएसपी से कितनी ज्यादा कीमत पर अनाज की खरीद की, उस कारोबारी ने किसानों को कितनी सुविधाएं दीं और उसके भुगतान का सिस्टम कितना अच्छा है। सवाल है कि जब खुले बाजार में एमएसपी से ज्यादा कीमत पर अनाज की खरीद फरोख्त हो रही है किसान सरकार से ज्यादा निजी कारोबारियों को अनाज बेच रहे हैं तो सरकार को एमएसपी को कानूनी दर्जा देने में क्या दिक्कत है? सरकार कानूनी दर्जा दे दे कि एमएसपी से कम कीमत पर अनाज की खरीद फरोख्त गैरकानूनी होगी।
सरकार ऐसा नहीं कर रही है इसका मतलब है कि पूरे मामले में कोई पेंच है। असल में यह बाजार की तिकड़म होती है कि शुरू में आकर्षित करने के लिए बेहतर डील दो और उसके बाद मनमानी करो। किसानों को आशंका है कि निजी कारोबारियों के खरीद का सिस्टम इसी तरह से चलता रहा तो थोड़े समय में सरकारी खरीद का सिस्टम बिगड़ जाएगा और बंद कर दिया जाएगा। तब किसान कारोबारियों के हवाले हो जाएगा और फिर कारोबारी मनमानी करेंगे। अगर सरकार एमएसपी को कानूनी दर्जा दे देगी तो भले सरकारी खरीद का सिस्टम बंद हो जाए लेकिन बाजार में किसानों का अनाज अच्छी कीमत पर बिकेगा। तभी सरकार को किसानों की इस मांग पर ध्यान देना चाहिए।
एमएसपी से ही जुड़ी उनकी यह भी मांग है कि एमएसपी को कानूनी दर्जा देने के साथ साथ सभी उपज की एमएसपी तय हो और एमएसपी निर्धारित करने के लिए एमएस स्वामीनाथन फॉर्मूले का इस्तेमाल किया जाए। केंद्र सरकार ने हाल ही में एमएस स्वामीनाथन को भारत रत्न से सम्मानित किया है। निश्चित रूप से वे इस सम्मान के हकदार थे और बहुत पहले उनको यह सम्मान मिलना चाहिए था। देर से ही सही लेकिन उन्हें भारत रत्न मिल गया तो अब सरकार को उनकी ओर से तय किए गए फॉर्मूले पर एमएसपी तय करना चाहिए। सरकारें बार बार स्वामीनाथन फॉर्मूले की चर्चा भी करती हैं। लेकिन उसके हिसाब से किसानों को अनाज की कीमत नहीं देना चाहती हैं। सरकार को अब इस पर गंभीरता से ध्यान देना चाहिए कि खाद, बीज के दाम और सिंचाई में होने वाले खर्च के साथ साथ फसल को मंडी तक पहुंचाने के खर्च और किसान परिवार के सदस्यों की मजदूरी और जमीन के किराए को शामिल करके लागत तय हो और उसके ऊपर एक निश्चित मुनाफा तय किया जाए।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने पिछले दिनों कहा कि वे मानते हैं कि देश में चार जातियां हैं। उन्होंने महिला, गरीब और युवा के साथ चौथी जाति के तौर पर किसान को शामिल किया।
सवाल है कि क्या वे इस जाति के लिए कुछ सोच रहे हैं? उन्होंने 2022 तक किसानों की आय दोगुनी करने की घोषणा की थी। आज 2024 में सरकार और सरकारी दल भी यह दावा नहीं कर रहे हैं कि किसानों की आय दोगुनी हो गई। उलटे कृषि लागत बढ़ती गई है, जिससे किसान की कमाई खत्म हो गई है। अगर सचमुच प्रधानमंत्री किसानों को एक जाति मान रहे हैं और उनके कल्याण के लिए प्रतिबद्ध हैं तो स्वामीनाथन फॉर्मूले के आधार पर सभी फसलों की एमएसपी तय की जाए और एमएसपी को कानूनी रूप दिया जाए ताकि किसी स्थिति में किसान के साथ धोखाधड़ी न हो पाए।
इसके अलावा किसान पेंशन की मांग भी कर रहे हैं और यह मांग भी जायज है। पिछले दिनों उत्तर प्रदेश की भाजपा सरकार ने किसानों के लिए तीन हजार रुपए पेंशन की योजना घोषित की। सरकार ने तय किया कि 60 साल से ऊपर की आयु के सीमांत व लघु किसानों को तीन हजार रुपए मासिक पेंशन मिलेगी। इसमें महिला और पुरुष दोनों किसान शामिल होंगे। केंद्र सरकार को इस मॉडल के बारे में सोचना चाहिए और राज्यवार किसानों की आमदनी के हिसाब से पेंशन की राशि तय करनी चाहिए। इस बार किसान आंदोलन इस मायने में अलग है कि इस बार इसमें मजदूरों को भी शामिल किया गया है और उनके लिए न्यूनतम मजदूरी की सीमा बढ़ाने के साथ साथ मनरेगा के तहत दो सौ दिन की रोजगार गारंटी की भी मांग की गई है। यह ध्यान रखने की बात है कि किसानों की बड़ी आबादी अब कृषि मजदूर में तब्दील हो गई है इसलिए किसानों के साथ उनके हितों का जुड़ना एक स्वाभाविक घटनाक्रम है। सो, इस बार आंदोलन का दायरा बड़ा हो गया है। इसलिए सरकार को भी सोच बड़ी करके इस आंदोलन के बारे में विचार करना चाहिए।