ऐसे लोग लाएं कहां से!

सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि निर्वाचन आयोग में ऐसे अधिकारी होने चाहिए, जिन्हें डरा कर कोई जबरन फैसला ना कराया जा सके। यह ऐसी इच्छा से है, जिसकी शायद ही कोई ऐसा हो, जो तारीफ ना करे। यह ठीक वैसी ही इच्छा है, जैसा आम जन चाहते हैं कि न्यायालयों में ऐसे जज हों, जो सिर्फ संविधान की भावना और कानून के प्रावधानों के मुताबिक फैसला करें- यानी वे किसी दबाव में ना आएं या किसी अन्य कारणों से प्रभावित ना हों। निर्वाचन आयुक्तों की नियुक्ति प्रक्रिया क्या होनी चाहिए, इस बारे में दायर याचिका पर सुनवाई करते हुए सर्वोच्च न्यायालय ने यह भी कहा कि टीएन शेषऩ जैसा अधिकारी तो कभी-कभार होता है। शेषऩ 1990 से 1996 तक मुख्य निर्वाचन आयुक्त थे। तब उन्होंने आयोग के अधिकारों का जिस तरह इस्तेमाल किया, उसकी आम तौर पर यह कर तारीफ की जाती है कि उसका भारत में चुनावों को स्वतंत्र और निष्पक्ष बनाने में बड़ा योगदान रहा। मगर तब के संदर्भ को अवश्य ध्यान में रखना चाहिए।

वह अस्थिर और गठबंधन सरकारों का दौर था, जब कार्यपालिका के खौफ से न सिर्फ निर्वाचन आयोग, बल्कि अन्य संवैधानिक संस्थाएं और हर स्तर की न्यायपालिका भी आजाद हो गई थी। उस दौर को भारतीय लोकतंत्र के ऐसे काल के रूप में याद किया जाता है, जब कार्यपालिका अधिक से अधिक जवाबदेह होती दिखी। लेकिन एकदलीय मजबूत सरकार लौटने के साथ ही कहानी पलट गई है। या कहें, पुरानी कहानी लौट आई है। आज अगर अंतरराष्ट्रीय संस्थाएं लोकतंत्र, कानून के राज, प्रेस की आजादी आदि जैसे सूचकांकों पर भारत का दर्जा गिराती जा रही हैं, तो उसकी सबसे बड़ी वजह संवैधानिक संस्थाओं का अपेक्षा के अनुरूप काम ना करना ही है। तो समस्या कहीं गंभीर है। ऐसे लोग आखिर आज कहां मिलेंगे, जो संस्थाओं को अर्थ प्रदान कर सकें? तो संभवतः समाधान ऐसी इच्छाओं में नहीं है। लोकतंत्र जनता का तंत्र है। अगर जन इसके कायम रहने में अपना हित देखते हैं, तो उन्हें इसे बचाने की निर्णायक लड़ाई लड़नी होगी। वरना, किसी मसीहा के इंतजार में बैठे रहने का कोई सकारात्मक परिणाम नहीं होगा।

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