धर्मस्थलों का विवाद कब थमेगा?
अयोध्या मामले पर सुप्रीम कोर्ट का फैसला आने के बाद ऐसा लगा था कि अब सब कुछ ठीक हो जाएगा। अब किसी धर्मस्थल को लेकर कोई विवाद नहीं होगा। इतिहास अपने को नहीं दोहराएगा। आखिर संसद से मंजूर एक धर्मस्थल कानून भारत के पास है और दूसरे उस कानून में जिस एक धर्मस्थल को अलग रखा गया था उसका फैसला देश की सर्वोच्च अदालत ने कर दिया। राम जन्मभूमि पर भव्य राममंदिर का निर्माण भी शुरू हो गया। इन सबके बीच राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ के प्रमुख मोहन भागवत ने हिंदुओं के नसीहत देते हुए कहा कि ‘हर मस्जिद में शिवलिंग क्यों देखना’। यह भी सद्भाव बढ़ाने और विवादों को विराम देने वाला बयान था। तभी इतिहास दोहराए जाने की संभावना समाप्त हो गई थी। परंतु त्रासदी यह है कि इतिहास अपने को दोहरा रहा है। एक के बाद एक धर्मस्थलों के विवाद शुरू हो रहे हैं। अदालतें उनमें दखल दे रही हैं और 1991 में बने धर्मस्थल कानून की नई व्याख्याएं हो रही हैं।
वाराणसी की ज्ञानवापी मस्जिद से जुड़े विवाद में यहीं हुआ है। स्थानीय स्तर पर कुछ महिलाओं ने ज्ञानवापी मस्जिद परिसर में स्थित मां शृंगार गौरी की नियमित पूजा-अर्चना के लिए एक याचिका जिला अदालत में दायर की। अदालत ने सिर्फ इसे स्वीकार किया, बल्कि मस्जिद परिसर के सर्वे का आदेश भी दे दिया। उस सर्वे में एक शिवलिंग मिलने की बात आई। हिंदू पक्ष ने उसे शिवलिंग बताया तो मुस्लिम पक्ष ने उसे फव्वारा कहा। अदालत ने उस ढांचे को सील करने और यथास्थिति बनाए रखने का निर्देश दिया। मुस्लिम पक्ष इस मामले को लेकर सुप्रीम कोर्ट पहुंचा तो सुप्रीम कोर्ट ने उनकी आपत्तियों को खारिज कर दिया। धर्मस्थल कानून की व्याख्या करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि इस कानून में कहा गया है कि 1947 से पहले के सारे धर्मस्थलों के मामले में यथास्थिति बनाए रखी जाएगी लेकिन इसमें किसी धर्मस्थल की प्रकृति तय करने से नहीं रोका गया है। वाराणसी की अदालत ने अपने फैसले में दोहराया और यह भी कहा कि अभी तो सिर्फ नियमित पूजा-अर्चना की इजाजत मांगी गई है, किसी ने उस पर दावा नहीं किया है।
बहरहाल, सुप्रीम कोर्ट की व्याख्या ऐसी है, जिससे कानून का पूरा मकसद फेल हो सकता है। अगर कानूनी रूप से किसी धर्मस्थल की प्रकृति तय कर दी जाएगी तो फिर किसी भी समुदाय को उस पर दावा करने कैसे रोका जाएगा? मिसाल के तौर पर ज्ञानवापी को ही लिया जाए। अभी तो कयास लगाया जा रहा है या धार्मिक ग्रंथों और परिस्थितिजन्य सबूतों के आधार पर हिंदू पक्ष कह रहा है कि मस्जिद का पूरा परिसर किसी समय मंदिर का हिस्सा रहा है और मुस्लिम शासकों या हमलावरों ने मंदिर तोड़ कर उस जगह पर मस्जिद का निर्माण कर दिया है। मस्जिद परिसर में कई संरचनाएं ऐसी हैं, जिनसे उसके मंदिर होने का आभास होता है। इसी वजह से 1993 से पहले तक मस्जिद परिसर में मां शृंगार गौरी की नियमित पूजा होती थी और उसके बाद साल में एक बार पूजा होने लगी। इसका मतलब है कि मस्जिद परिसर में हिंदू देवी-देवताओं मूर्तियों की मौजूदगी स्वीकार की गई है। अब अगर यहीं बात कानूनी रूप से और ऐतिहासिक या पुरातात्विक साक्ष्यों के आधार पर अदालत में साबित हो जाती है फिर हिंदू पक्ष को उस पर दावा करने से कैसे रोका जाएगा?
यह साबित होने के बाद कि ज्ञानवापी मस्जिद परिसर पहले मंदिर रहा है, धर्मस्थल कानून के आधार पर उसकी यथास्थिति बनाए रखना क्या संभव हो पाएगा? ध्यान रहे बिल्कुल ऐसी ही स्थिति मथुरा में भगवान कृष्ण की जन्मस्थली के पास स्थित शाही ईदगाह को लेकर भी पैदा हो गई है। उस मामले में भी अदालत ने हिंदू पक्ष की याचिका स्वीकार कर ली है और उसकी प्रकृति तय करने पर सुनवाई करने का फैसला किया है। वहां भी अगर ऐतिहासिक सबूतों और पुरातात्विक साक्ष्यों के आधार पर यह साबित हुआ कि शाही ईदगाह मस्जिद पहले मंदिर का हिस्सा रही है तो हिंदुओं को उस पर दावा करने से कैसे रोका जा सकेगा? क्या तब धर्मस्थल कानून लागू करना संभव होगा? क्या फिर इससे धर्मस्थलों के विवाद का पंडोरा बॉक्स नहीं खुल जाएगा? कई संगठनों ने पहले दावा किया है कि ऐसे 50 हजार धर्मस्थलों की सूची है, जिन पर हिंदू दावा कर सकते हैं। सोचें, अगर हर जगह धर्मस्थल कानून की इस नई व्याख्या के मुताबिक धर्मस्थलों की प्रकृति तय करने का काम होने लगा तो क्या स्थिति होगी?
अब सवाल है कि इसका क्या रास्ता है? एक रास्ता तो यह है कि मुस्लिम समुदाय खुद आगे बढ़ कर काशी और मथुरा की मस्जिदें हिंदुओं को सौंप दें। भले ऐसे 50 हजार धर्मस्थलों की सूची मौजूद हो, जो पहले मंदिर रहे हैं और बाद में उनको तोड़ कर मस्जिद बना दिया गया हो लेकिन काशी और मथुरा का मामला अलग है। हिंदू मान्यता के मुताबिक काशी भगवान शिव के त्रिशूल पर स्थित दुनिया का सबसे पुराना शहर है। भगवान शिव खुद वहां निवास कर सकते हैं। इसी तरह मथुरा भगवान कृष्ण की जन्मभूमि भी है और लीलाभूमि भी है। उसी तरह जैसे अयोध्या भगवान राम की जन्मभूमि है और इसलिए हिंदू आस्था से बहुत गहरे जुड़ी है, काशी और मथुरा भी हिंदू आस्था से बहुत गहरे जुड़े हैं। दूसरी बात यह है कि इन दोनों जगहों पर मस्जिद का अतिक्रमण बहुत साफ साफ दिखता है। तभी हिंदू संगठन बार बार कहते हैं कि काशी और मथुरा से कोई समझौता नहीं हो सकता है। इसका मतलब है कि बाकी जगहों से समझौता किया जा सकता है। सो, अगर लंबे कानूनी विवाद को टालना है और किसी भी तरह के सामाजिक विद्वेष को फैलने से रोकना है तो एक रास्ता यह है कि मुस्लिम समुदाय आगे बढ़ कर दोनों मस्जिद हिंदुओं को सौंप दे।
उसके बाद क्या होगा? क्या उसके बाद सारे विवाद समाप्त हो जाएंगे? इसकी गारंटी कौन करेगा? धर्मस्थल कानून बनने के बाद 1991 में भी यहीं सोचा गया था कि अब अयोध्या के बाद किसी और मंदिर-मस्जिद का विवाद नहीं होगा। लेकिन तब भी कहा जा रहा था कि ‘अयोध्या तो झांकी है मथुरा-काशी बाकी है’। अब विवाद मथुरा और काशी पर केंद्रित हो गया है। क्या पता वोट और चुनाव की राजनीति आने वाले दिनों में कहीं और इस तरह के विवाद शुरू कराए। आखिर कर्नाटक में बेंगलुरू और हुबली दोनों जगह ईदगाह मैदान में गणेश उत्सव कराने का विवाद शुरू हो गया है। क्या किसी नए कानून से इसका समाधान निकलेगा? इसकी भी संभावना कम है क्योंकि मुस्लिम समुदाय पिछले तीन दशक से एक कानून के सहारे ही तो था लेकिन एक झटके में उनका भरोसा टूट गया। यह भी ध्यान रखने की बात है कि 1991 के धर्मस्थल कानून को इसी महीने नौ सितंबर को चुनौती दी गई है। चार अलग अलग याचिकाएं सुप्रीम कोर्ट में दायर कर इस कानून को चुनौती दी गई है। चीफ जस्टिस की बेंच ने इसे संविधान पीठ को भेजने का संकेत दिया है। सो, संभव है कि कानून बदल जाए। आखिर कानून कोई पत्थर पर लिखी इबारत तो नहीं है। कानून तो वहीं है, जो अदालत में तय होता है। इसलिए सिर्फ कानून के सहारे इसे नहीं सुलझाया जा सकता है। हिंदू-मुस्लिम की यह ग्रंथि इतनी पुरानी और जनमानस में इतने गहरे बैठी है कि जरा से उकसावे पर बेहद विकृत रूप में सामने आ जाती है। सो, कानून के साथ साथ पहली जरूरत हर किस्म के उकसावे को रोकने की है। इसके बाद धर्म का राजनीतिक इस्तेमाल रोकना होगा और सांप्रदायिक सद्भाव को मजबूत करने वाले गंभीर उपाय करने होंगे।