लैटरल एंट्री में आखिर क्या गलत है?

भारत सरकार की शीर्ष नौकरशाही में निजी क्षेत्र के पेशेवरों को सीधे उच्च पदों पर बहाल करने की लैटरल एंट्री की योजना को सरकार ने ठंडे बस्ते में डाल दिया है। संघ लोक सेवा आयोग यानी यूपीएससी ने केंद्र सरकार के अलग अलग विभागों में संयुक्त सचिव, निदेशक सहित 45 पदों के लिए विज्ञापन जारी किया था। केंद्रीय कार्मिक मंत्रालय के निर्देश पर यूपीएससी ने 17 अगस्त को निकाला गया अपना यह विज्ञापन रद्द कर दिया है। विपक्षी पार्टियों खास कर कांग्रेस और केंद्र सरकार में शामिल दो सहयोगी पार्टियों, जनता दल यू और लोक जनशक्ति पार्टी (रामविलास) के विरोध को इसका मुख्य कारण बताया जा रहा है। सोशल मीडिया में सक्रिय कुछ आरक्षण समर्थक बौद्धिकों ने भी इसे बड़ा मुद्दा बना दिया था। सरकार के साथ मुश्किल यह है कि वह कई पार्टियों के समर्थन से बनी है और दूसरे लोकसभा चुनाव में भाजपा संविधान व आरक्षण के मसले पर मुंह जला चुकी है इसलिए उसने मट्ठा भी फूंक पर पीने का फैसला किया। तभी उसने इस योजना को टाल दिया।

हैरानी की बात है कि एक तरफ विज्ञापन रद्द हुआ और दूसरी ओर भाजपा के नेता और केंद्र सरकार के मंत्रियों ने लैटरल एंट्री के जरिए भारत सरकार में बहाली की प्रक्रिया को सही बताया और इसका बचाव किया। कानून मंत्री अर्जुन राम मेघवाल ने कांग्रेस को याद दिलाया कि 1976 में तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने पंजाब यूनिवर्सिटी के एक प्रोफेसर डॉक्टर मनमोहन सिंह को सीधे देश का वित्त सचिव बना दिया था। आमतौर पर यह पद भारतीय प्रशासनिक सेवा यानी आईएएस अधिकारियों के लिए आरक्षित होता है। इसी तरह लैटरल एंट्री के जरिए ही कांग्रेस की राजीव गांधी की सरकार ने मोंटेक सिंह अहलूवालिया को वित्त सचिव बनाया था। वे प्रधानमंत्री के विशेष सचिव, वाणिज्य सचिव, आर्थिक मामलों के सचिव आदि भी रहे। ये सारे पद भी आईएएस अधिकारियों के लिए ही होते हैं। भाजपा का सवाल सही है कि आखिर जब कांग्रेस की सरकारें इस तरह से लैटरल एंट्री के जरिए किसी क्षेत्र के जानकार या पेशेवरों को सीधे सचिव बनाती रही हैं तो भाजपा सरकार के ऐसे ही कदम का क्यों विरोध कर रही है?

असल में एक सिद्धांत के तौर पर लैटरल एंट्री के जरिए सरकार की शीर्ष नौकरशाही में निजी क्षेत्र के पेशेवरों या किसी खास क्षेत्र के विशेषज्ञ को नियुक्त करने में कुछ भी गलत नहीं है। दुनिया भर के देशों में ऐसा होता है। दुनिया की सबसे बड़ी और विकसित अर्थव्यवस्था वाले देश अमेरिका में तो निजी क्षेत्र के पेशेवर ही वहां सरकार के मंत्री बनते हैं, जिनको वहां सेक्रेटरी कहा जाता है। उनके लिए अनिवार्य होता है कि वे कहीं से चुनाव नहीं लड़ें हों और अमेरिकी कांग्रेस के किसी सदन के सदस्य न हों। दूसरे नंबर की अर्थव्यवस्था वाले देश चीन की नौकरशाही की भी पूरी दुनिया में तारीफ होती है। वहां भी निजी सेक्टर के पेशेवरों को शीर्ष नौकरशाही में स्थान मिलता है और तकनीकी या विशेषज्ञता वाले काम उनको सौंपे जाते हैं। दुनिया के दूसरे विकसित देशों में भी यह एक सामान्य प्रक्रिया है। तभी भारत में भी ऐसा करने में कोई समस्या नहीं होनी चाहिए। इसे एक अच्छी पहल मानना चाहिए।

यह ध्यान रखना चाहिए कोई भी आईएएस अधिकारी सारे काम नहीं कर सकता है। संघ लोक सेवा आयोग की कुछ सेवाएं तो विशेषज्ञता वाली होती हैं। जैसे आईपीएस के जरिए पुलिस के लिए अधिकारी चुने जाते हैं और आईआरएस के जरिए राजस्व सेवा के अधिकारी चुने जाते हैं। लेकिन जो आईएएस चुने जाते हैं उनसे हर काम समान दक्षता से करने की उम्मीद की जाती है। हकीकत यह है कि इनमें से अनेक लोग पाली, प्राकृत, संस्कृत, हिंदी, अरबी, दर्शनशास्त्र आदि की परीक्षा देकर अधिकारी बने होते हैं। बड़ी संख्या में तो लोग इंजीनियरिंग और मेडिकल की पढ़ाई के बाद आईएएस बनते हैं। उनको प्रशिक्षण के दौरान या काम के दौरान ही अपने मूल काम यानी प्रशासनिक व्यवस्था और अलग अलग विभागों के कामों के बारे में सीखने का मौका मिलता है। उसमें भी हर दो या तीन साल पर उनका अलग विभाग में तबादला भी होता है। इसलिए वे किसी एक विभाग के कामकाज के विशेषज्ञ नहीं बन पाते हैं। इक्का दुक्का अपवादों को छोड़ दें तो ज्यादातर अधिकारी सामान्य प्रशासन के रूटीन के काम ही कर सकते हैं। उनसे यह उम्मीद नहीं की जा सकती है कि वे कोई बड़ी तकनीकी या आर्थिक या सामाजिक, दार्शनिक विशेषज्ञता वाला काम कर देंगे। तभी अलग अलग विषय के विशेषज्ञों की जरुरत होती है और उनकी नियुक्ति लैटरल एंट्री के जरिए होती है।

अब आती है केंद्र सरकार जो कर रही है उसमें समस्या की बात। केंद्र की एनडीए सरकार इस काम को जिस प्रक्रिया के तहत कर रही है उसमें बुनियादी रूप से कुछ खामियां हैं। केंद्र सरकार विशेषज्ञता वाले पदों पर निजी क्षेत्र के पेशेवरों को नियुक्त नहीं कर रही है। वह रूटीन के काम के लिए सरकारी विभागों में उनकी नियुक्ति कर रही है। पिछले कुछ वर्षों में लैटरल एंट्री के जरिए जो नियुक्तियां हुईं हैं उनमें से एक भी अधिकारी ऐसा नहीं है, जिसने कुछ अभूतपूर्व काम किया हो या जिसकी तुलना मनमोहन सिंह, मोंटेक सिंह अहलूवालिया या एपीजे अब्दुल कलाम और ई श्रीधरन से की जा सके। अगर सरकार निजी क्षेत्र में सचमुच कोई उपलब्धि हासिल करने वाले पेशेवर को सरकारी कामकाज के लिए नियुक्त करे और उसे कुछ विशिष्ठ जिम्मेदारी सौंपे तो शायद किसी को इसमें दिक्कत नहीं होगी। जब रूटिन के काम के लिए नियुक्ति होती है और नियुक्त होने वालों की निजी क्षेत्र में भी कोई बड़ी उपलब्धि नहीं होती है तो सवाल उठते हैं। तभी आरक्षण का सवाल उठता है और इस पूरी योजना के औचित्य पर भी सवाल उठता है।

सरकार ने जिस तरह से राजनीतिक दबाव में यूपीएससी का विज्ञापन रद्द कराया है उससे यह चिंता भी पैदा होती है कि कहीं लैटरल एंट्री के अच्छे सिद्धांत को भी सरकार राजनीतिक लाभ हानि का टूल न बना दे। यह कहा जाने लगा है कि सरकार इस विज्ञापन में सुधार करेगी और इसमें भी आरक्षण लागू करेगी। आरक्षण के चैंपियन बौद्धिक गिन कर बताने लगे हैं कि आरक्षण की व्यवस्था लागू होती है तो 45 में से कितने पदों पर एससी, कितने पर एसटी और कितने पर ओबीसी या ईडब्लुएस के लोग होंगे। अगर ऐसा होता है तो लैटरल एंट्री का पूरा सिद्धांत विफल हो जाएगी। यह ध्यान रखना चाहिए लैटरल एंट्री से होने वाली नियुक्ति कोई खाली पद भरने के लिए होने वाली वाली सामान्य बहाली नहीं है। यह किसी खास काम के लिए की जाती है और तभी उस खास काम में विशेषज्ञता रखने वालों को ही बहाल किया जाना चाहिए। अगर राजनीतिक मजबूरी में ऐसा नहीं हो सकता है और आरक्षण की व्यवस्था लागू करनी पड़ती है तो सरकार को लैटरल एंट्री का रास्ता ही छोड़ देना चाहिए। आखिर इसी सरकार ने पहले कहा था कि एकल भर्ती में आरक्षण की व्यवस्था नहीं लागू हो सकती है तो अब वह क्यों कह रही है कि एकल भर्ती में भी आरक्षण की व्यवस्था लागू होगी?

हर साल यूपीएससी की परीक्षा की तरह लैटरल एंट्री के जरिए भर्ती करने की सरकार की कोई मजबूरी नहीं होती है। अगर आरक्षण की बाधा के कारण लैटरल एंट्री से विशेषज्ञ बहाल नहीं होते हैं तो सरकार दूसरे रास्ते से उनकी सेवाएं ले सकती है। लेकिन इसका फायदा देश और दुनिया की तमाम बड़ी कंसल्टेंसी कंपनियों को होगा, जो ऊंचे वेतन पर तकनीकी व आर्थिक विशेषज्ञों को अपने यहां नियुक्त करती हैं और सरकारें ऊंची फीस चुका कर उनकी सेवा लेती हैं। राजनीतिक दलों और आरक्षण के चैंपियन बौद्धिकों को यह बात समझनी चाहिए। विविधता के नाम पर समझौता करने के लिए सरकार को बाध्य करना कोई राष्ट्रहित का काम नहीं है। अगर सरकार को एटॉमिक एनर्जी या न्यूक्लियर साइंस या डाटा साइंस के विभाग में सलाहकार या सचिव की जरुरत है तो वह योग्यता की बजाय विविधता नहीं देखने लगेगी। प्रधानमंत्री के जो वैज्ञानिक सलाहकार होते हैं या आर्थिक सलाहकार होते हैं या डीआरडीओ और इसरो के सचिव होते हैं वे लैटरल एंट्री से ही आते हैं और वहां एकमात्र पैमाना मेरिट का होता है। नरेंद्र मोदी सरकार को भी लैटरल एंट्री के जरिए नियुक्तियों को ऐसे ही पदों तक सीमित रखना चाहिए। उसका विस्तार रूटीन के काम करने वाले सरकारी बाबुओं के लिए होगा तो विविधता और आरक्षण की बात निश्चित रूप से उठेगी।

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