झूठे वादों के जाल में नहीं फंसते मतदाता
दशकों पहले हिंदी फिल्मों का एक गाना आया था, कि ‘ये जो पब्लिक है, सब जानती है’। सचमुच इसमें कोई संदेह नहीं है कि लोग सब कुछ जानते हैं। यह गाना तो उस समय का है, जब मीडिया का विस्तार बहुत मामूली था। संचार का माध्यम सिर्फ अखबार और कुछ पत्रिकाएं थीं। सोशल मीडिया का नामोनिशान नहीं था। तब एक गीतकार और फिल्मकार को पता था कि जनता सब कुछ जानती है। अब संचार के इतने साधनों के बीच क्या यह सोचा जा सकता है कि जनता कुछ नहीं जानती, समझती है या जो जानती है वह गलत जानती है? ध्यान रहे गलत सूचना का प्रसार अभी ही नहीं हो रहा है, जब संचार के सीमित साधन थे तब भी गलत जानकारी का प्रसार होता था।
तभी मार्क ट्वेन ने कहा था कि ‘इफ यू डोंट रीड द न्यूजपेपर यू आर अनइन्फॉर्म्ड, इफ यू रीड द न्यूजपेपर यू आर मिसइन्फॉर्म्ड’ यानी ‘अगर आप अखबार नहीं पढ़ते हैं तो आप अनभिज्ञ हैं लेकिन अगर अखबार पढ़ते हैं तो आपके पास गलत जानकारी हैं’। जाहिर है कि अखबारों के जरिए फैलाए जाने वाली झूठी सच्ची सूचनाओं की ओर ट्वेन ने इशारा किया था। सो, अगर अब सोशल मीडिया के जरिए झूठी खबरें फैलाई जा रही हैं या आर्टिफिशियल इंटेलीजेंस के जरिए डीपफेक चल रहा है तो वह कोई नई बात नहीं है। फर्क यह है कि नई तकनीक की वजह से इसकी मात्रा बढ़ गई है और इसका विस्तार हो गया है। लिखित सूचनाओं के साथ साथ फर्जी वीडियो भी प्रसारित होने लगा है।
इस लंबी भूमिका का मकसद यह बताना है कि जब सिर्फ अखबारों के जरिए झूठी सूचनाएं या झूठी जानकारी फैलाई जाती थी तब भी जनता मूर्ख नहीं थी और अब एआई के जरिए डीपफेक फैलाया जा रहा है तब भी जनता मूर्ख नहीं है। पोस्ट ट्रूथ के जमाने में भी जनता को सचाई का पता होता है या कम से कम अंदाजा होता है। ऐसा नहीं है कि नेता इस बात को नहीं जानते हैं फिर भी यह देख कर हैरानी होती है कि चुनावों में वे कैसे जनता को मूर्ख बनाने वाली बातें करते हैं। इस बार के चुनाव की मिसाल दी जा सकती है, जिसमें सभी पार्टियां और लगभग सारे नेता झूठी बातों से जनता को बरगलाने की कोशिश कर रहे हैं। नेताओं में झूठ बोलने की होड़ लगी है। यह प्रतिस्पर्धा चल रही है कि कौन कितना बड़ा झूठ बोल सकता है। एक प्रतिस्पर्धा यह भी चल रही है कि कौन कितना बड़ा वादा कर सकता है। अगर किसी नेता या पार्टी ने चांद लाकर देने का वादा किया है तो दूसरा नेता चांद के साथ साथ कई सितारे लाकर भी देने का वादा कर रहा है।
सवाल है कि क्या जनता इस बात को नहीं समझ रही है नेता झूठ बोल रहे हैं या ‘वादे हैं वादों का क्या’? अगर जनता सचमुच नेताओं के वादों पर यकीन कर रही होती तो इतनी बार वादे झूठे साबित हुए हैं कि भारत में अब तक दर्जनों बार बड़ी क्रांतियां हो चुकी होतीं। जनता इनकी बातों पर रत्ती भर यकीन नहीं करती है। जैसा कि मिर्जा गालिब ने कहा था, ‘तेरे वादे पर जिए हम तो ये जान झूठ जाना, कि खुशी से मर न जाते अगर ऐतबार होता’। जनता को नेताओं के वादों पर कतई ऐतबार नहीं होता है। अगर ऐतबार होता तो लोग 2019 में ही काले धन का हिसाब मांगते या पेट्रोल, डीजल की महंगाई और डॉलर की कीमत के बारे में पूछते, जिसका वादा प्रधानमंत्री मोदी ने 2014 में किया था। लेकिन किसी ने इस बारे में नहीं पूछा और 2014 के मुकाबले छह फीसदी ज्यादा लोगों ने भाजपा को वोट किया। सो, यह बात बिल्कुल दिमाग से निकाल देने की है कि जनता नेताओं के झूठे वादे में फंस जाती है और उनको वोट दे देती है। जनता किसी झूठे वादे में फंस कर वोट नहीं देती है।
असल में जनता बहुत सोच समझ कर, अपनी राजनीतिक समझ, सामाजिक सचाइयों और अपनी वैचारिक प्रतिबद्धताओं के आधार पर वोट करती है। कहने का आशय यह है कि जनता अपना और देश व समाज का हित देख कर वोट करती है। यह स्वीकार करना चाहिए कि अगर उसने भाजपा को चुना है तो अपनी समझदारी से चुना है और उसको भाजपा में यकीन है। यह नहीं हो सकता है कि जनता भाजपा को चुन रही है तो मूर्ख है, अंधी या भक्त है और कांग्रेस को चुन देगी तो बहुत समझदार हो जाएगी। जिस दिन जनता कांग्रेस को चुनेगी उस दिन वह अपनी समझदारी से ही उसको चुनेगी। अगर कभी उसका चुनाव गलत होता है तो वह अगली बार उसमें सुधार करती है। अब तो देश के मतदाता केंद्र और राज्य के चुनाव में अलग अलग मतदान करना भी अच्छी तरह से सीख गए हैं।
हालांकि इसमें कोई संदेह नहीं है कि मतदाता का मतदान व्यवहार अनेक बाहरी कारकों से प्रभावित होता है। निरंतर प्रचार का असर उसके मन मस्तिष्क पर होता है। लेकिन वह प्रचार भी वास्तविकताओं के नजदीक होना चाहिए। मिसाल के तौर पर 2004 की तत्कालीन सरकार के ‘फीलगुड’ और ‘इंडिया शाइनिंग’ के प्रचार को देख सकते हैं। तमाम भारी भरकम प्रचार के बावजूद लोगों को उस पर यकीन नहीं हुआ। हालांकि ऐसा नहीं है कि इस प्रचार का विरोध करने के लिए कांग्रेस और उसके गठबंधन की पार्टियां कोई समानांतर अभियान चला रही थीं और सचाई लोगों के सामने रख रही थीं। लोगों ने अपने अनुभव से वाजपेयी सरकार के प्रचार को खारिज किया। इसी तरह मनमोहन सिंह की सरकार के दूसरे कार्यकाल में भ्रष्टाचार को लेकर जो हल्ला मचा उस पर जनता ने इसलिए यकीन किया क्योंकि उसमें कहीं न कहीं उनको सचाई दिख रही थी। यह अलग बात है कि उसमें भी बहुत सी बातें बाद में सच साबित नहीं हुईं। लेकिन वो बातें पूरी तरह से गलत भी नहीं थीं।
इस बार के चुनाव में सबसे ज्यादा हैरान करने वाली बातें हो रही हैं। भाजपा और कांग्रेस दोनों की तरफ से समान रूप से झूठ बोले जा रहे हैं। सिर्फ बड़े वादे नहीं किए जा रहे हैं, बल्कि एक दूसरे के बारे में झूठे दावे किए जा रहे हैं। कांग्रेस कह रही है कि भाजपा सत्ता में आएगी तो वह संविधान फाड़ कर फेंक देगी, आरक्षण खत्म कर देगी, लोकतंत्र समाप्त कर देगी, फिर चुनाव नहीं होंगे आदि आदि। दूसरी ओर भाजपा कह रही है कि कांग्रेस सत्ता में आ गई तो राममंदिर पर ‘बाबरी ताला’ लगा देगी, अनुच्छेद 370 को फिर से बहाल कर देगी, आरक्षण छीन कर मुसलमानों को दे देगी, देश में शरिया लागू कर देगी, देश की जमीन दूसरे देशों को दे देगी आदि आदि। इनके बीच जनता को फैसला करना है कि वे किसको चुनें। हमें जनता के नीर क्षीर विवेक पर भरोसा करना चाहिए। वे जिसे चुन रहे होंगे, ठीक ही चुन रहे होंगे। भारत की राजनीति में जो विकल्प मौजूद हैं उनमें से ठीक चुनने का मतलब होता है, कम खराब को चुनना।