आदिवासी कहें या वनवासी?

संविधान में उनको अनुसूचित जनजाति यानी एसटी कहा जाता है। आम बोलचाल में लोग आदिवासी कहते हैं। राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ और भारतीय जनता पार्टी उनको वनवासी कहती है। अंग्रेजी में शिड्यूल ट्राइब्स, जिसका अनुवाद अनुसूचित जनजाति है लेकिन ट्राइब्स का पहले अनुवाद ‘बनजाति’ होता था। संविधान सभा की बहस में मरांग गोमके जयपाल सिंह मुंडा ने इसका विरोध किया था। वे ट्राइब्स यानी बनजाति शब्द के इस्तेमाल के विरोधी थे। वे अनुसूचित जनजाति कहे जाने के भी खिलाफ थे। वे चाहते थे कि उनके समुदाय को आदिवासी कहा जाए। उन्होंने वनवासी या बनजाति कहे जाने का इस आधार पर विरोध किया था उनके समुदाय के सारे लोग जंगलों में नहीं रहते, काफी लोग शहरों में रहते हैं। बड़ी आबादी गांवों और कस्बों में भी रहती है। संविधान सभा में 75 साल पहले हुई बहस फिर से जिंदा हो गई है। वैसे भी जब किसी को कुछ देना नहीं होता है तो उस पर बहस की जाती है। दुष्यंत कुमार ने लिखा था- भूख है तो सब्र कर रोटी नहीं तो क्या हुआ, आजकल दिल्ली में है जेरे बहस ये मुद्दा।

तो आज दिल्ली से लेकर गुजरात तक जेरे बहस है ये मुद्दा कि जिनको अनुसूचित जनजाति कहा गया है उनको आदिवासी कहें या वनवासी। सवाल है कि अनुसूचित जनजाति कहें, आदिवासी कहें, मूलवासी कहें या कुछ भी कहें क्या इससे उनकी स्थिति में कोई बदलाव होने वाला है? रोटी की जरूरत पूरी होने के बाद प्रेम और चांद की बात होती है। आदिवासी या वनवासी की सैद्धांतिक बहस में पड़ने से पहले क्या यह अच्छा नहीं होता कि देश के इस सबसे पिछड़े और वंचित समुदाय की दुश्वारियों को दूर करने के लिए काम किया जाए? उनकी जीवन स्थितियों में सुधार का प्रयास हो? जल, जंगल, जमीन पर उनका हक बहाल किया जाए? चंद उद्योगपतियों के विकास के नाम पर जंगलों की कटाई और प्राकृतिक संपदा पर कब्जे की होड़ बंद कराई जाए? राज्य प्रायोजित हिंसा पर रोक लगाई जाए? एक संस्कृति या एक कानून के नाम पर उनकी परंपराओं और संस्कृति से छेड़छाड़ बंद की जाए? उनका विस्थापन रोका जाए? लेकिन इन प्राथमिकताओं को छोड़ कर देश की दोनों बड़ी पार्टियां इस बहस में उलझी हैं कि उनको आदिवासी कहा जाए या वनवासी!

कांग्रेस नेता राहुल गांधी गुजरात में प्रचार के लिए पहुंचे तो उन्होंने आदिवासियों से कहा- भाजपा आपको वनवासी कहती है और यह नहीं बताती है कि हिंदुस्तान पर पहला हक आपका है, आप इसके पहले मालिक हैं। राहुल ने आगे कहा- वे नहीं चाहते कि आपके बच्चे डॉक्टर, इंजीनियर बनें, अंग्रेजी बोलें। दूसरी ओर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कहा- कांग्रेस जानती ही नहीं थी कि इस देश में आदिवासी का भी अस्तित्व है। ये दोनों अतिवादी धारणाएं हैं। दोनों अपने राजनीतिक लाभ के लिए गढ़े गए नैरेटिव का इस्तेमाल कर रहे हैं। इनके बीच हकीकत कुछ और है। हकीकत यह है कि आदिवासियों को तमाम किस्म के अवसरों से वंचित रखा गया है। राज्य और समाज दोनों ने उनका शोषण किया है। इस देश में जिनको मूलवासी कहा जा रहा है या जिनका देश की संपदा पर पहला हक बताया जा रही है उनके ऊपर जंगल से लड़की काटने के जुर्म में मुकदमे दर्ज होते हैं। वे अपनी मर्जी से जल, जंगल, जमीन का इस्तेमाल नहीं कर सकते हैं। नक्सल या नक्सलियों के बहाने उनके ऊपर राज्य प्रायोजित हिंसा होती है। झारखंड, ओडिसा, छत्तीसगढ़ जैसे राज्यों से आदिवासी बच्चियों और युवतियों को कानूनी और गैरकानूनी दोनों तरीकों से देश भर में घरेलू नौकरानी का काम करने के लिए ले जाया जाता है और वहां उनका कैसा शोषण होता है, इसकी अनगिनत कहानियां हैं।

भारत में आदिवासी आबादी आठ फीसदी हैं लेकिन सिर्फ बांधों के लिए होने वाले विस्थापन में आदिवासियों का हिस्सा 40 फीसदी है। बांधों के निर्माण के लिए दो से पांच करोड़ लोग अपनी जमीन से विस्थापित किए गए हैं और तमाम जानकार इस पर सहमत है कि उन विस्थापितों में कम से कम 40 फीसदी आबादी आदिवासियों की है। यह कम से कम का आंकड़ा है। आदिवासी समाज में काम करने वालों का दावा है कि बांधों के निर्माण, खनिज संपदा की खुदाई, औद्योगिक इकाइयों की स्थापना और शहरीकरण ने आठ फीसदी आदिवासी आबादी में से 50 फीसदी से ज्यादा आबादी को विस्थापित किया है। सोचें, ये लोग विस्थापित होकर कहा जाते हैं? क्या भारत में विस्थापितों के लिए कोई नीति है? पिछले दिनों भारत ने करोड़ों रुपए खर्च करके नामीबिया से आठ चीते मंगाए और कुनो नेशनल पार्क में उनको बसाया गया। जंगल में उनको छोड़ने खुद प्रधानमंत्री गए थे और उसके बाद से लगातार उन पर नजर रखी जा रही है। उनके शिकार के लिए चीतल छोड़े गए और यह नोट किया गया कि कब उन्होंने पहला शिकार किया। उसमें मादा चीता कब गर्भवती होगी, इस पर विचार हो रहा है। लेकिन करोड़ों आदिवासी अपनी जमीन से उजाड़ दिए जाते हैं और उनको बसाने का कोई उपाय नहीं किया जाता है। उनके पक्ष में जो लोग खड़े होते हैं उनकी सार्वजनिक आलोचना होती है और उनको विकास विरोधी बताया जाता है।

भारतीय जनता पार्टी को इस बात से दिक्कत है कि अगर अनुसूचित जनजाति को आदिवासी यानी इस सरजमीं का मूलवासी या ओरिजिनल बाशिंदा कहा जाएगा तो इसका मतलब यह स्वीकार करना होगा कि बाकी लोग बाहरी हैं। इससे आर्यों के आक्रमण के सिद्धांत की पुष्टि होगी, जिसमें भाजपा और संघ का विश्वास नहीं है। उनका मानना है कि तमाम भारतवासी मूल रूप से यही के रहने वाले हैं। तभी आरएसएस आदिवासी की बजाय उनको वनवासी कहता रहा और आजादी के थोड़े दिन के बाद 1952 में तब के सर संघचालक एमएस गोलवलकर की सहमति से अखिल भारतीय वनवासी कल्याण आश्रम का गठन किया गया। तब भी उसकी बड़ी चिंता यह थी कि आदिवासियों में होने वाले धर्मांतरण को रोका जाए। आज भी संघ की संस्थाएं इस चिंता में देश के अनुसूचित इलाकों में काम कर रही हैं। यह चिंता अपनी जगह हो सकता है कि सही हो लेकिन अगर इसके बुनियादी कारणों की पड़ताल होती तो यही पता चलता कि पिछड़ेपन, अशिक्षा, गरीबी, स्वास्थ्य सुविधाओं की कमी, राज्य व समाज द्वारा शोषण ऐसे कारण हैं, जिनकी वजह से उनका जीवन स्तर नहीं सुधर रहा है या सुधार की रफ्तार धीमी है। इसलिए उनका नाम तय करने से पहले उनकी भलाई के उपायों पर विचार किया जाना चाहिए। क्या पता उसके बाद नाम तय करने की जरुरत ही न रह जाए।

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