क्षेत्रीय पार्टियों के लिए मुश्किल समय

इस बात पर बहुत चर्चा हुई है कि इतिहास अपने को दोहरा रहा है और जिस तरह आजादी के बाद कांग्रेस दशकों तक भारतीय राजनीति की केंद्रीय ताकत रही थी उसी तरह अब भाजपा भारतीय राजनीति की केंद्रीय ताकत है और दशकों तक रहेगी। चुनाव रणनीतिकार और बिहार में सुराज अभियान चले रहे प्रशांत किशोर ने इसकी एक सैद्धांतिक रूप-रेखा प्रस्तुत की थी, जिसके बाद विपक्षी पार्टियों के प्रति सहानुभूति रखने वाले अनेक राजनीतिक विश्लेषकों ने उनको भाजपा का आदमी ठहराया था। लेकिन वे अपनी व्याख्या में गलत नहीं हैं। आजादी के बाद की कांग्रेस की तरह आज भाजपा केंद्रीय ताकत है और देश की राजनीति उस के ईर्द-गिर्द घूम रही है। आने वाले किसी चुनाव में अगर वह हार भी जाती है तो उसका अंत नहीं होने जा रहा है या निकट भविष्य में वह कमजोर नहीं होने जा रही है। वह अगले कई दशक तक केंद्रीय ताकत बनी रहेगी और उसे रिप्लेस करने में समय लगेगा।

इस हकीकत को स्वीकार करते ही यह भी दिखाई देता है कि एक और मामले में इतिहास अपने को दोहरा रहा है। कांग्रेस जब राजनीति की केंद्रीय ताकत थी, तब देश में अनेक राजनीतिक पार्टियां थीं और बड़े वैचारिक आधार वाले मजबूत नेता था। लेकिन कांग्रेस के सामने किसी की हैसियत नहीं थी। पहले दो दशक तक तो कांग्रेस से निकले समाजवादी या स्वतंत्र पार्टी के नेता ही कांग्रेस के समानांतर राजनीति करते रहे थे। बाद में जब कांग्रेस कमजोर होने लगी तब प्रादेशिक पार्टियों का प्रादुर्भाव हुआ। उस समय भारतीय जनसंघ मुख्यधारा की पार्टी थी, लेकिन उसका आधार बहुत सीमित था। तभी ऐसा लग रहा है कि भाजपा के मजबूत होने के साथ साथ बाकी सभी राष्ट्रीय और प्रादेशिक पार्टियों की ताकत कम हो रही है। इसके कुछ अपवाद हो सकते हैं लेकिन यह कहने में कोई हिचक नहीं है कि प्रादेशिक पार्टियों के लिए अभी अच्छा समय नहीं चल रहा है। हालांकि इसका यह मतलब नहीं है कि भाजपा के अलावा बाकी सभी पार्टियां खत्म हो जाएंगी, जैसा कि बिहार में अपनी पार्टी के एक कार्यक्रम के दौरान भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष जेपी नड्डा ने दावा किया था। कांग्रेस के समय भी भारतीय जनसंघ के अलावा कम्युनिस्ट पार्टियों का मजबूत आधार था और समाजवादी व स्वतंत्र पार्टी का भी विस्तार पूरे देश में था।

बहरहाल, चाहे सुनियोजित योजना के तहत हो या स्वाभाविक राजनीतिक गति की वजह से हो लेकिन कई राज्यों में प्रादेशिक पार्टियां कमजोर हो रही हैं। खास कर उत्तर भारत में यह देखने को मिल रहा है। देश के सबसे बड़े राज्य उत्तर प्रदेश में किसी जमाने में राज करने वाली बहुजन समाज पार्टी बहुत मुश्किल दौर से गुजर रही है। विधानसभा में बसपा का सिर्फ एक विधायक जीत सका है। सोचें, जिस पार्टी का राज महज 10 साल पहले खत्म हुआ हो वह पार्टी एक विधायक पर सिमट जाए! कह सकते हैं कि बसपा ने संगठन का लोकतांत्रिक ढांचा नहीं बनाया तो एक नेता के चमत्कार पर आधारित पार्टी का यह हस्र होना ही था। लेकिन बसपा के कमजोर होने या हाशिए पर जाने के पीछे सिर्फ यहीं एक कारण नहीं है। उसका वोट बैंक हथियाने की भाजपा की राजनीति भी इसके लिए जिम्मेदार है। इस हकीकत को जानते हुए भी उसने पिछले विधानसभा चुनाव में परोक्ष रूप से भाजपा की मदद की। जाहिर है उसका कारण कुछ और रहा होगा, जिसके बारे में लोगों को पता नहीं है।

क्षेत्रीय पार्टियों के कमजोर होने की व्याख्या इस रूप में भी की जा रही है कि भाजपा के जितने भी सहयोगी थे, उनको भाजपा ने ही कमजोर या खत्म किया है। बिहार में जनता दल यू इसकी मिसाल है। उसके साथ रहते हुए भाजपा ने लोक जनशक्ति पार्टी के नेता चिराग पासवान को शह दी और उन्होंने जदयू के खिलाफ उम्मीदवार उतार कर उसे बड़ा नुकसान पहुंचाया। जदयू के कंधे पर सवार होकर भाजपा नंबर दो पार्टी बन गई और जदयू अपने अस्तित्व की जद्दोजहद में है। लेकिन जदयू ने समय रहते भाजपा की इस योजना को समझा और उससे नाता तोड़ कर समान विचार वाली मंडल राजनीति से निकली पार्टी राजद के साथ फिर तालमेल कर लिया। उधर महाराष्ट्र में शिव सेना का हाल भी जदयू जैसा है। शिव सेना के कंधे पर सवार होकर भाजपा वहां एक नंबर की पार्टी बन गई है और शिव सेना अस्तित्व बचाने के लिए जूझ रही है। भाजपा ने उसके विधायकों का अलग गुट बनवा कर एकनाथ शिंदे को मुख्यमंत्री बनाया है। पंजाब में अकाली दल की भी यहीं स्थिति है। वहां भाजपा ने अकाली दल के कंधे पर सवार होकर राजनीति की और हाल में हुए संगरूर लोकसभा उपचुनाव में अकाली दल पांचवें स्थान पर रही, जबकि भाजपा चौथे स्थान पर। ऐसे ही अन्ना डीएमके के कंधे पर सवार होकर भाजपा तमिलनाडु की राजनीति कर रही है और पार्टी के सामने अपने इतिहास का सबसे बड़ा संकट आया हुआ है। झारखंड में भाजपा के पुराने नेता बाबूलाल मरांडी की पार्टी का भाजपा में विलय हो गया है और दूसरी सहयोगी पार्टी आजसू का अस्तित्व जैसे तैसे बचा हुआ है।

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने परिवारवादी या वंशवादी पार्टियों के खिलाफ जो अभियान छेड़ा है वह अनायास नहीं है, बल्कि क्षेत्रीय पार्टियों को समाप्त करने की रणनीति का हिस्सा है। ऐसी जितनी पार्टियां, जिनका नेतृत्व एक नेता या एक परिवार के हाथ में है उनको कमजोर करने के लिए एक वैचारिक आधार बनाया जा रहा है। ऐसी तमाम पार्टियों पर भाजपा की नजर है और उसे उनका वोट आधार हासिल करना है। उससे पहले अगर संभव हो तो किसी तरह से उसका संगठन और उसके बड़े नेताओं को भी साथ लेना है। बिहार में जदयू से लेकर उत्तर प्रदेश में बसपा, ओड़िसा में बीजू जनता दल, तमिलनाडु में अन्ना डीएमके, महाराष्ट्र में शिव सेना, कर्नाटक में जेडीएस जैसी पार्टियों के नाम लिए जा सकते हैं। भाजपा ने इसके लिए अपने को तैयार किया है। उसने संगठन की ताकत बढ़ाई है तो संसाधनों की ताकत भी बढ़ाई है। इसलिए उसके लिए आसान हो गया है कि समान विचारधारा वाली पार्टियों को अपने में विलीन कर ले।

कई जगह ऐसा भी हो रहा है कि भाजपा और कांग्रेस दोनों मिल कर प्रादेशिक पार्टियों को कमजोर कर रहे हैं। जैसे कर्नाटक म

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