अबकी बार विपक्ष को मौका

लोकतंत्र में जनता सिर्फ सरकार नहीं चुनती है। वह विपक्ष भी चुनती है। इस बार उसने बहुत मजबूत विपक्ष चुना है। इतना मजबूत, जितना आजाद भारत के इतिहास में कभी नहीं रहा है। इससे पहले और भी कमजोर सरकारें रही हैं लेकिन इतना मजबूत विपक्ष कभी नहीं रहा है। पहले कई बार विपक्ष में ज्यादा सांसद होते थे लेकिन वे एक दूसरे खिलाफ चुनाव लड़ कर आए होते थे। वे विपक्ष की बेंच पर बैठते थे लेकिन वह साझा विपक्ष नहीं कहलाता था। पहली बार ऐसा हुआ है कि सत्तारूढ़ गठबंधन 293 सांसदों के साथ एक तरफ होगा तो दूसरी ओर 204 सांसदों का मजबूत विपक्ष होगा। अगर इसमें ममता बनर्जी की तृणमूल कांग्रेस को जोड़ लें तो संख्या 233 हो जाती है। इससे पहले आखिरी बार 1989 में कांग्रेस ने 197 सीटें जीती थीं और लोकसभा में एक मजबूत विपक्ष की मौजूदगी दिखी थी। लेकिन इस बार उससे भी मजबूत विपक्ष है।

तभी यह विपक्षी पार्टियों और विपक्षी राजनीति दोनों के लिए बड़ा मौका है। विपक्ष को जनता ने बड़ी जिम्मेदारी सौंपी है। यह बताने की जरुरत नहीं है कि किस बात के लिए मतदाताओं ने विपक्ष को इतनी बड़ी जिम्मेदारी सौंपी है। विपक्ष का पूरा प्रचार इस बात पर केंद्रित था कि संविधान की रक्षा करनी है, लोकतंत्र की रक्षा करनी है और आरक्षण बचाना है। आरक्षण को तो खैर अभी कोई खतरा नहीं दिख रहा है। लेकिन संविधान और लोकतंत्र के सामने जो प्रत्यक्ष चुनौती है और जिसे पिछले 10 साल में संसद की कार्यवाही में सबने देखा है उससे निपटने की जिम्मेदारी मतदाताओं ने विपक्ष को सौंपी है।

पिछले 10 साल में विपक्ष को पूरी तरह से दरकिनार करके संसद की कार्यवाही चली है। विपक्ष की गैरहाजिरी में विधेयक पास कराए गए। विपक्ष के सांसदों के निलंबन का इतिहास देश ने पिछले 10 साल में बनते हुए देखा। डेढ़ सौ सांसद एक बार में निलंबित किए गए। विपक्ष के सांसद संसद परिसर में महात्मा गांधी की प्रतिमा के सामने रात दिन धरने पर बैठे रहे और सरकार की ओर से किसी ने उनकी ओर ध्यान देने की जरुरत नहीं समझी। संसद के अंदर मनमानी की जो परंपरा स्थापित हो रही थी उसे रोकने की जिम्मेदारी मजबूत विपक्ष के ऊपर है।

पिछले 10 साल में तमाम संसदीय परंपराओं को ताक पर रख दिया गया था। यह पहली बार हुआ था कि 17वीं लोकसभा में उपाध्यक्ष की नियुक्ति नहीं हुई। पांच साल का कार्यकाल समाप्त हो गया लेकिन उपाध्यक्ष की नियुक्ति नहीं हुई। संसद की स्थायी समितियों की बैठकें लगातार कम होती जा रही हैं और लोक लेखा समिति की भूमिका बेहद सीमित हो गई है। भारत के नियंत्रक व महालेखापरीक्षक यानी सीएजी की ओर से सरकार के कामकाज को लेकर लोक लेखा समिति को जो रिपोर्ट भेजी जाती थी उसे न्यूनतम कर दिया गया था। जो रिपोर्ट आती भी थी उस पर या तो चर्चा नहीं होती थी और चर्चा होती थी तो उसमें बहुमत के दम पर विपक्ष की आवाज को दबा दिया जाता था।

पहले आमतौर पर सरकार की ओर से लाए गए विधेयक संसदीय समिति में चर्चा के लिए भेजे जाते थे लेकिन पिछले 10 साल में गिने चुने विधेयक ही संसदीय समितियों में भेजे गए। अगर भेजे भी गए तो सत्तापक्ष ने अपने विशाल बहुमत के दम पर विपक्ष की असहमतियों को वहीं दबा दिया और अगर किसी तरह से विपक्ष की असहमति सदन में पहुंच गई तो वहां बहुमत के दम पर उसे खारिज कर दिया गया। विपक्ष इसे बदल कर वापस पुरानी संसदीय पंरपरा को बहाल कर सकता है। इस काम में उसे उन पार्टियों की भी मदद मिल सकती है, जो सरकार के साथ हैं। तेलुगू देशम पार्टी और जनता दल यू जैसी पार्टियों को मुद्दों के आधार पर सरकार की मनमानी का विरोध करने में दिक्कत नहीं होगी। इसके लिए विपक्ष को रचनात्मक तरीके से उन पार्टियों के साथ भी तालमेल बनाना होगा।

मजबूत विपक्ष को सिर्फ लोकसभा के अंदर रचनात्मक भूमिका नहीं निभानी है या वहीं पर संविधान और लोकतंत्र की रक्षा नहीं करनी है, बल्कि सदन से बाहर उसे ज्यादा बड़ी भूमिका निभानी है। पिछला 10 साल इस बात का गवाह रहा है कि भाजपा अपने बहुमत और सरकार की ताकत के दम पर विपक्ष को खत्म करने या कमजोर करने का काम करती रही है। अब तो लोग इस बात की गिनती भी भूल गए हैं कि भाजपा ने पिछले 10 साल में कितने राज्यों में चुनी हुई सरकारों को गिरा दिया। मतदाता अपनी पसंद की सरकार चुनते थे और भाजपा ‘ऑपरेशन लोटस’ चला कर चुनी हुई सरकार को गिरा देती थी। विपक्ष को सुनिश्चित करना है कि लोकतंत्र पर इस तरह का हमला न हो। इसी तरह केंद्रीय एजेंसियों की मदद से जिस तरह से विपक्षी नेताओं को निशाना बनाया गया उसकी भी मिसाल नहीं है।

पहले भी सरकारें अपने राजनीतिक विरोधियों के खिलाफ केंद्रीय एजेंसियों का दुरुपयोग करती थीं। सीबीआई पहले भी प्रधानमंत्री का थाना था। लेकिन पहले कभी ऐसा ऐसा नहीं हुआ कि चुनौती देकर विपक्ष को पूरी तरह से खत्म कर देने के लिए इन एजेंसियों का इस्तेमाल किया गया हो। पिछले 10 साल में जब लोकतंत्र पर इस तरह के हमले हो रहे थे तब विपक्ष इतना कमजोर था कि न तो संसद के अंदर उसकी आवाज सुनी जाती थी और न सड़क पर वह आंदोलन कर पाता था। इस बार उसके पास संसद के अंदर और बाहर दोनों जगह ताकत मिली है। लोकतंत्र की रक्षा के लिए इसका इस्तेमाल बहुत सोच समझ कर करना होगा।

विपक्ष के ऊपर एक बड़ी जिम्मेदारी तमाम संवैधानिक व वैधानिक संस्थाओं और केंद्रीय एजेंसियों की स्वायत्तता की बहाली सुनिश्चित कराने की भी है। पिछले कुछ समय से तमाम संस्थाएं अपनी स्वतंत्रता और निष्पक्षता खोती जा रही थीं। संवैधानिक संस्थाओं में उच्च पदों पर बैठे लोग विपक्ष का मजाक उड़ाते थे और सत्तापक्ष के सदस्य के रूप में कम करने लगे थे। सरकार ने अपनी पसंद के अधिकारियों को सालों साल तक सेवा विस्तार देकर एक ही पद पर बैठाए रखा, जिसकी वजह से उनकी प्रतिबद्धता संविधान और संस्था से ज्यादा सरकार के साथ हो गई। जज लोग खुलेआम सत्तारूढ़ दल या उसके सांस्कृतिक संगठन के साथ अपना जुड़ाव बताने लगे थे। जनता ने जिस तरह का जनादेश दिया है उससे अपने आप कुछ चीजें ठीक होंगी लेकिन ज्यादातर चीजों को विपक्ष अपनी रचनात्मक राजनीति से ही ठीक कर सकता है। उसे बहुत बारीकी से सरकार के कामकाज पर नजर रखनी होगी, संसद में रोकना होगा और कमियों को जनता के सामने लाना होगा।

अंत में विपक्ष को इतना मजबूत जनादेश आगे की राजनीति के लिए भी मिला है। कह सकते हैं कि लोग उसे आजमा रहे हैं। यह देखना चाहते हैं कि विपक्ष की इतनी पार्टी अपने निजी हितों को किनारे रख कर जनता और देश के हित में एकजुट रह पाती हैं या नहीं। जनता यह भी देखना चाहती है कि चुनाव के समय बनी एकजुटता आगे कायम रहती है या नहीं। विपक्षी पार्टियां अपनी राजनीतिक ताकत बढ़ाने के लिए इसका कैसा इस्तेमाल करती हैं, आगे की राजनीति इस पर निर्भर करेगी। महाराष्ट्र, हरियाणा और झारखंड में इस साल विधानसभा के चुनाव हैं। अगर साझा विपक्ष इन राज्यों में लोकसभा चुनाव के नतीजे को दोहराता है तो देश भर के लोगों के बीच विपक्ष की स्थायी एकजुटता का मैसेज जाएगा, जिससे आगे की राजनीति की दिशा तय होगी।

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