जोखिम भरी ये राह

चार जून को नतीजे आने के बाद से भाजपा ने लगे झटके को नजरअंदाज करने और संख्या बल के आधार पर राजनीतिक पराजय की अनदेखी करने की जो रणनीति अपनाई, मंत्रि-परिषद के गठन में भी उसकी ही झलक देखने को मिली है।

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की नई मंत्रि-परिषद यह संकेत देती है कि भारतीय जनता पार्टी के प्रबंधकों ने आम चुनाव में लगे झटके के असर को फिलहाल मैनेज कर लिया है। ये अटकलें गलत साबित हुई हैं कि इस बार के मंत्रिमंडल में एनडीए के घटक दलों की प्रमुख उपस्थिति होगी। वैसे सहयोगी दलों के साथ भाजपा ने कुल मिलाकर क्या डील की है, यह अभी जाहिर नहीं है। मगर यह स्पष्ट है कि चार जून को नतीजे आने के बाद से भाजपा ने लगे झटके को नजरअंदाज करने और संख्या बल के आधार पर राजनीतिक पराजय की अनदेखी करने की जो रणनीति अपनाई, मंत्रि-परिषद के गठन में भी उसे कार्यरूप देने में वह सफल रही है। अपने सभी प्रमुख पुराने चेहरों को नई सरकार में प्रमुख भूमिका देकर उसने संदेश देने की कोशिश की है कि जनादेश उसकी नीतियों और कार्यशैली के पक्ष में आया है। यानी उसे अपनी चाल-ढाल में सुधार करने की कोई जरूरत नहीं है। मगर यह रास्ता ना सिर्फ उसके लिए, बल्कि इस देश के आम भविष्य के लिए भी जोखिम भरा है।

गुजरे चुनाव में बेरोजगारी, महंगाई और आम जन की कष्टप्रद होती गई जिंदगी की हकीकत बेपर्द हुई। चुनाव नतीजों ने दुनिया भर में इस नैरेटिव को तोड़ डाला है कि नरेंद्र मोदी अपनी आर्थिक नीतियों से भारत में सभी वर्गों का भला कर रहे हैं। उलटे जमीनी स्तर पर की दुर्दशा की कहानियां वैश्विक मीडिया में छायी हुई हैं। साथ ही भारत में तनावपूर्ण होते सामाजिक संबंधों पर भी नए सिरे से ध्यान गया है। जबकि भाजपा नेतृत्व अभी भी यही बताने की कोशिश कर रहा है कि सब कुछ ठीक है और इसीलिए लोगों ने नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में अपनी पूरी आस्था जताई। स्पष्टतः अपने वोट के जरिए रास्ता सुधार का जो आदेश मतदाताओं ने दिया था, यह उसे ठेंगा दिखाना है। यह जमीनी हकीकत के प्रति भाजपा नेतृत्व के अपमान भाव को दिखाता है। इससे कोई समस्या हल नहीं होगी। बल्कि समाज में विभिन्न स्तरों पर गतिरोध बढ़ते चले जाएंगे। यह याद रखना चाहिए कि अक्सर ऐसी स्थितियां गंभीर अस्थिरता की जनक बन जाती हैं।

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