आलोचना की भी सीमा होनी चाहिए
भारत का एक प्राचीन नीति श्लोक है- अति सर्वत्र वर्जयेत्! कई जगह इसकी विस्तार में व्याख्या मिलती है। एक व्याख्या के मुताबिक अति रूपवती होने की वजह से सीता का हरण हुआ, अति अहंकारी होने की वजह से रावण का वध हुआ और अति दानशील होने की वजह से राजा बलि को अपना सब कुछ गंवाना पड़ा। इसलिए अति से बचना चाहिए और हर कार्य में संतुलन बनाए रखना चाहिए। भारतीय जीवन दर्शन में हर तरह के अतिरेक से बचने की सलाह दी गई है और कहा गया है कि किसी भी चीज की अति व्यक्ति के गुणों को भी दुर्गुण में बदल देती है। किसी भी चीज की अति मर्यादा के उल्लंघन में बदल जाती है। जीवन का यह सूत्र राजनीति में भी लागू होना चाहिए और हर राजनेता को चाहे वह कितना भी बड़ा यो छोटा क्यों न हो उसे इस सिद्धांत का पालन करना चाहिए। अपने विपक्षियों की आलोचना करते हुए भी संयमित होना चाहिए और एक सीमा का पालन करना चाहिए।
साढ़े नौ साल तक प्रचंड बहुमत के साथ निर्बाध सत्ता चलाने के बाद भी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और उनके पीछे पीछे पार्टी के दूसरे नेता कांग्रेस की जैसी आलोचना करते हैं वह अक्सर अनुपात से ज्यादा और दायरे से बाहर दिखती है। कांग्रेस को भले लोकसभा में 10 फीसदी सीटें नहीं मिली हैं और इस वजह से उसे तकनीकी रूप से मुख्य विपक्षी पार्टी का दर्जा नहीं मिला है लेकिन वह देश की सबसे बड़ी विपक्षी पार्टी है। लोकसभा में उसका स्थान है और देश के चार राज्यों में उसी सरकार है। वह अपने गठबंधन सहयोगियों के साथ देश के तीन बड़े राज्यों में सरकार में शामिल है और सात-आठ राज्यों में मुख्य विपक्षी पार्टी है। ऐतिहासिक रूप से पार्टी ने आजादी की लड़ाई और उसके बाद आजाद भारत के शुरुआती दिनों में देश के निर्माण में एक भूमिका निभाई है, जिसे कई बार प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी स्वीकार किया है। कुछ दिन पहले ही संसद के विशेष सत्र में उन्होंने आजादी के 75 साल के दौरान देश को बनाने में सभी पूर्व प्रधानमंत्रियों के योगदान की सराहना की थी। दूसरी ओर विपक्ष को प्रधानमंत्री की आलोचना में संयम बरतना चाहिए। नरेंद्र मोदी के गुजरात का मुख्यमंत्री रहते कांग्रेस ने दायरे से बाहर जाकर जो आलोचना की थी उसने उनके लिए दिल्ली की राह आसान कर दी। उसी तरह अब जिस अंदाज में उनको अडानी के लिए काम करने वाला बता कर निजी हमले हो रहे हैं उसे भी स्वस्थ राजनीतिक आलोचना नहीं कह सकते।
बहरहाल, इस बात को भी सभी स्वीकार करते हैं कि लोकतंत्र की मजबूती के लिए एक मजबूत विपक्ष का होना जरूरी है। सो, कांग्रेस एक मजबूत विपक्ष है, जिससे रचनात्मक भूमिका निभाने की उम्मीद की जाती है। भाजपा उसकी प्रतिद्वंद्वी पार्टी है और उसे पूरा अधिकार है कि वह कांग्रेस की आलोचना करे। चुनाव प्रचार के दौरान उस पर आरोप लगाए और लोगों से उसे वोट नहीं देने की अपील करे। लेकिन राजनीतिक प्रतिद्वंद्वी की आलोचना की भी एक मर्यादा होती है, सीमा होती है। लोकतांत्रिक व्यवस्था में आलोचना के नाम पर कुछ भी नहीं कहा जा सकता है। पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों में प्रधानमंत्री और गृह मंत्री अपनी सभाओं में कांग्रेस के लिए कह रहे हैं कि वह देश विरोधी ताकतों से मिली हुई है और वह आतंकवादियों के प्रति सहानुभूति रखती है। ये कोई साधारण आरोप नहीं हैं।
भारत में या दुनिया के किसी भी देश में विपक्षी पार्टियों पर जो आरोप लगते हैं वे एक दायरे में होते हैं। कांग्रेस पर भी इस दायरे में आरोप लगते हैं- जैसे वह भ्रष्ट है, परिवारवादी है, उसने कोई काम नहीं किया, उसने जनता को धोखा दिया, वह एक जाति या समुदाय का तुष्टिकरण करती है आदि आदि। ये सभी राजनीतिक आरोप हैं। ये ऐसे मामले हैं, जिन्हें आरोप लगाने वाली पार्टी अदालत में नहीं ले जाती है। इन पर अंतिम फैसला कानून के जरिए किसी अदालत में नहीं होता है, बल्कि जनता करती है। परंतु देश विरोधी ताकतों से मिला होना और आतंकवादियों के प्रति सहानुभूति रखना, राजनीतिक आरोप नहीं हैं। ये गंभीर आपराधिक आरोप हैं और अगर प्रधानमंत्री इस तरह के आरोप लगा रहे हैं तो उसकी गंभीरता और बढ़ जाती है। प्रधानमंत्री और गृह मंत्री को निश्चित रूप से पता होगा कि जन प्रतिनिधित्व कानून की धारा 29ए के तहत प्रावधान है कि अगर कोई पार्टी देश की एकता, अखंडता और संप्रभुता में विश्वास नहीं करती है यानी देश विरोधी काम करती है या गैरकानूनी गतिविधि रोकथाम कानून या ऐसे ही किसी अन्य कानून के तहत पार्टी को गैरकानूनी करार दिया जाता है तो उसका पंजीकरण रद्द कर दिया जाएगा।
कांग्रेस के ऊपर देश विरोधी ताकतों से मिले होने और आतंकवादियों के प्रति सहानुभूति रखने के जो आरोप लगाए जा रहे हैं अगर वो सही हैं तो जन प्रतिनिधित्व कानून की धारा 29ए के तहत उसका पंजीकरण रद्द हो जाना चाहिए और उसका नाम व चुनाव चिन्ह जब्त कर लिया जाना चाहिए। लेकिन सरकार ऐसा नहीं कर रही है। इतने गंभीर आरोप लगाने और सत्ता में होते हुए भी उस पर कोई कार्रवाई नहीं करने के तीन मतलब निकाले जा सकते हैं। पहला, सरकार के शीर्ष स्तर से जो आरोप लगाए जा रहे हैं वो सही नहीं हैं, दूसरा, सिर्फ राजनीतिक फायदे के लिए आरोप लगाए जा रहे हैं और तीसरा, कांग्रेस के साथ साथ सरकार भी राष्ट्रीय सुरक्षा से समझौता कर रही है। ध्यान रहे सबसे बड़ी विपक्षी पार्टी के नाते लोकसभा में कांग्रेस के नेता संसद की लोक लेखा समिति के अध्यक्ष होते हैं। अगर पार्टी देश विरोधी ताकतों से मिली हुई है तो उसके नेता को कैसे ऐसी समिति का अध्यक्ष होना चाहिए, जहां तमाम संवेदनशील रिपोर्ट पेश की जाती है? लोकसभा में कांग्रेस के नेता कई अहम नियुक्तियों के लिए बनाई गई कमेटी के सदस्य होते हैं, जिनमें प्रधानमंत्री और चीफ जस्टिस भी शामिल होते हैं। वहां भी कई अहम, गोपनीय और संवेदनशील जानकारी साझा की जाती है। अगर कांग्रेस देशविरोधियों से मिली हुई है तो ऐसी संवेदनशील जगह पर भी उसके नेता को क्यों होना चाहिए? ऐसी पार्टी, जिस पर प्रधानमंत्री आरोप लगाएं कि वह देश विरोधी ताकतों से मिली हुई है और आतंकवादियों के प्रति सहानुभूति रखती है उसे चुनाव लड़ने, संसद में बैठने और राज्यों में सरकार चलाने की भी इजाजत कैसे दी जा सकती है? क्या यह देश की सुरक्षा, एकता और अखंडता से खिलवाड़ नहीं है? राष्ट्रीय सुरक्षा के नाम पर महुआ मोइत्रा की सदस्यता छीनी जा रही है और कांग्रेस पर सिर्फ आरोप लगाए जा रहे हैं!
तभी जाहिर है कि ये आरोप वस्तुनिष्ठ नहीं हैं। सिर्फ आरोप लगाने के लिए आरोप लगाए जा रह हैं। लेकिन अब उसकी भी अति हो रही है। साढ़े नौ साल तक केंद्र की सरकार और देश के लगभग आधे राज्यों में सत्ता में रहने के बाद अगर अपनी उपलब्धियों के बखान से ज्यादा समय कांग्रेस की आलोचना में देना पड़ता है तो इसका मतलब है कि सरकार के काम में कहीं न कहीं कमी है या वह काम के आधार पर चुनाव जीतने को लेकर आशंकित है। सरकार और भाजपा को लग रह है कि अगर कांग्रेस की आलोचना में कमी आई तो फिर लोग उसके बारे में सकारात्मक सोचने लगेंगे। कांग्रेस पर देशविरोधियों और आतंकवादियों से मिले होने के आरोप लगाए जाने से यह भी लग रहा है कि ‘कांग्रेस ने 70 साल में कुछ नहीं किया’ और ‘कांग्रेस सिर्फ एक परिवार के लिए काम करती है’ का नैरेटिव अब अपनी चमक खो रहा है। इसमें खतरा यह है कि दूसरे के काम की बात करते हुए अपने काम का ब्योरा देना होता है और दूसरे परिवार की बात करने से अपनी पार्टी के परिवारों पर भी चर्चा शुरू हो जाती है। तभी लोग इन मुद्दों पर अब ध्यान नहीं दे रहे हैं। राष्ट्रवाद का मामला भाजपा के लिए ज्यादा सुरक्षित है क्योंकि उस पर वह एकाधिकार का दावा करती है।