2024 के भारत आईने का सत्य!
वक्त का आईना है राजनीति। नरेंद्र मोदी, राहुल गांधी, योगी आदित्यनाथ, एकनाथ शिंदे, अरविंद केजरीवाल और तमाम तरह के दलबदलू नेताओं से लेकर ममता, स्मृति, कंगना, अडानी, अंबानी मौजूदा समय के वे भारतीय ब्रांड मैनेजर, ब्रांड एंबेसडर हैं, जो 140 करोड़ लोगों के डीएनए, मिजाज, संस्कृति की प्रतिनिधि पैदाइश हैं।
ये चेहरे अपने आपमें भारत के समय और राष्ट्र-राज्य के दीन-ईमान के प्रतिनिधि हैं। देश का खुलासा हैं। मतलब हम भारतीयों, खासकर हिंदुओं के आचार-विचार, बुद्धि-ज्ञान, ईमानदारी, सत्यता, नैतिकता और आस्था व मूल्यवत्ता के सत्व-तत्व के ये पर्यायी, ब्रांड चेहरे हैं! यह वैसा ही मामला है जैसे हम दूर के अमेरिका को डोनाल्ड ट्रंप या बाइडेन के चेहरों से जज करते हैं।
मगर बाकी सभ्यताओं और हम हिंदुओं में कुछ फर्क इसलिए है क्योंकि हम पुराणों में जीते हैं। हमारा मनोविश्व पुराणों, रामायण, महाभारत की कथा-कहानियों की घुट्टी का है। हम ख्यालों और इलहाम में जीते हैं। तभी शेष दुनिया की राजनीति से भारत की राजनीति में डीएनएजन्य फर्क है। फिर हम सदियों गुलाम रहे हैं और गुलामी की वृत्ति, प्रवृत्ति राजनीति और शासन का बीज मंत्र है। हम हिंदुओं को कृपा चाहिए। हमें रक्षक चाहिए।
भिक्षा चाहिए। हम अवतार के आकांक्षी हैं। और अवतार की कृपा से पॉवर चाहिए। हम नियति के भी बंधुआ है। रामजी जैसे रखेंगे वैसे रह लेंगे। यों कहने को रामजी हमारे आदर्श हैं लेकिन चाहते रावण हैं। हिपोक्रेट हैं। बात रामराज्य की करेंगे लेकिन असत्य, अमर्यादा और बुलडोजरी राज की वाह करेंगे। आखिर गुलामी से खिली हुई भय-भूख-भक्ति की प्रवृत्ति-नियति में कौम का लाचार जो होना है।
इसलिए कई मायनों में भारत की राजनीति दुनिया के लिए् पहेली है। पहेली यह कि लोगों को लोकतंत्र पसंद है, रामराज्य पसंद है मगर नेता कथित मनमाना-अहंकारी चाहिए। नारा सत्यमेव जयते का है और नेता वह लोकप्रिय जो चौबीसों घंटे झूठ बोले। लोकतंत्र में लोगों की भागीदारी, वोट डालना बहुत अधिक है जबकि राजनीतिक समझ में बहुत कच्चे। पार्टी और विचारधारा की बात होती है और वोट जात-पात के नाम पर पड़ते हैं। नेताओं और पार्टियों की दुकानदारी का आधार ही जात और धर्म है।
वैसे मेरा मानना है राजनीति असलियत में मनुष्यों की बनाई एक भस्मासुरी व्यवस्था है। होमो सेपियन के पाषाण युग में जंगली, कबीलाई जीवन में बलशाली-आत्मविश्वासी शिकारी के लिए कबिलाईयों में जो क्रेज हुआ था उसी से जनित लीडरशीप और राजनीति की आदिम बुद्धि का यह एक ऐसा अपरिवर्तनीय आइडिया है, जिस पर इवोल्यूशनरी मनोवैज्ञानिक भी यह सोच हैरान हैं कि मनुष्य बुद्धि ने इसे क्यों नहीं बदला, सुधारा।
मानव बुद्धि और उसकी समाज रचना में सब बदला लेकिन पाषाण युग के दिमागी ख्याल के अतिविश्वासी बलवान शिकारी (an overconfident strongman hunter) के आइडिया में वह जस का तस रूढ़ीबद्ध। सचमुच विकासवादी जीवशास्त्री, न्यूरोविज्ञानी और मनोविज्ञानी इस पहेली में दिमाग खपाए हुए हैं कि होमो सेपियन के दिमागी रसायन में यह ग्रंथि भला क्यों नहीं बदलती? लोग क्यों इस दिमागी कीड़े के कारण रावण किस्म के आत्ममुग्ध, अहंकारी, नार्सिस्टिक-साइकोपैथ की तरफ मंत्रमुग्ध लगातार खींचे रहते हैं?
हां, लोग चुनते और चाहते हैं असुरी वृत्ति के ही रावणों, राजाओं, सामंतों, प्रधानमंत्रियों व राष्ट्रपतियों को। तभी इंसानों को समझाने के लिए मर्यादा पुरूष राम बनाम लंकाधिपति रावण की रामायण जैसी कई धर्मकथाएं लिखी गईं। लेकिन इंसान नहीं समझा। उसकी रावण, दुर्योधनों को चाहने की कथा अनंता।
विश्व का आधुनिक इतिहास भरा पड़ा है लोगों द्वारा बार-बार चुने जाते राक्षशों से। हिटलर कोई कम लोकप्रिय था? स्टालिन और माओ भी जनक्रांतियों से पैदा तानाशाह थे। और पुतिन हो या डोनाल्ड ट्रंप या नरेंद्र मोदी या एर्दोआन सब लोगों द्वारा निर्वाचित व कथित स्ट्रॉगमेन हैं, जिन्हे लोग अवतार समझते हैं। रक्षक मानते और कौम का उन्नायक भी।
अब जब ऐसा है तो लोग दोषी? या राजनीति दोषी या चुने जाते सर्वशक्तिमान नेता दोषी?
इसलिए आदमियों की बनाई राजनीतिक व्यवस्था हैवानियत भरी वह भस्मासुरी अविष्कार है जिसके परिणाम इंसान लगातार भुगतता हुआ है। ध्यान रहे धर्म भी राजनीति है। और अब इसकी अंत परिणति में जलवायु, जीव जगत और पृथ्वी सभी का अस्तित्व सचमुच खतरे में है। क्या नहीं?
बहरहाल, बहुत विषयांतर हुआ। लौटा जाए सन् 2024 के लोकसभा चुनाव के समय के भारत आईने पर। आईने में दिख रहे चेहरों का क्या सत्य है?
वही जो आजाद भारत का, कलियुगी भारत का सदा-स्थायी सत्य है। “मोदी इज इंडिया, इंडिया इज मोदी! मोदी तेरी सुबह की जय, तेरी शाम की जय, तेरे काम की जय, तेरे नाम की जय!”… और यह 2024 का वही भारत सत्य है तो 1975 का सत्य था और 1955 का भी सत्य था। केवल चेहरे याकि मोदी की जगह इंदिरा, इंदिरा की जगह नेहरू का चेहरा ले आए। सभी का एक सा सत्य।
ऊपर का कोट कांग्रेस के एक अध्यक्ष देवकांत बरूआ का इंदिरा गांधी के लिए था। सो, वह कोट दिल्ली तख्त का शाश्वत सत्य है। आजाद भारत की राजनीति याकि दिल्ली के तख्त पर बैठे हर सत्तावान प्रधानमंत्री के चेहरे की यह सर्वकालिक आरती है कि ‘मोदी तेरी सुबह की जय, तेरी शाम की जय, तेरे काम की जय, तेरे नाम की जय’!
हां, भारत की 1955 (नेहरू), 1975 (इंदिरा) और 2024 (मोदी) के चेहरे के भारत सत्य, भारत आईने में ऐसा कोई फर्क नहीं है जो लगे भारत की ब्रांड इमेज में कोई बुनियादी बदलाव है। फ्रेम, भाव-भंगिमा, मेकअप का भले फर्क हो पर सत्व-तत्व एक सा। तब आइरन लेडी थी, अब छप्पन इंची छाती है। तब देवकांत बरूआ थे अब जेपी नड्डा हैं। तब राजनारायण थे अब अरविंद केजरीवाल हैं। तब संजय गांधी और उनके पांच सूत्र थे अब राहुल गांधी और उनकी पांच गारंटियां हैं। तब चरण सिंह थे अब जयंत चौधरी हैं।
तब वैधानिक इमरजेंसी थी अब अघोषित इमरजेंसी है। तब सेंसरशिप थी अब गुलाम मोदी मीडिया है। तब मीसा था अब मनी लॉन्डरिंग है। तब जेल में राजनीतिक कैदी थे अब झूठे आरोपों में ठूंसे नेताओं की बेइज्जत भीड़ है। तब ‘अनुशासन पर्व’ से प्रभावित दलबदल था अब भक्ति युग का गिरगिटी दलबदल है। तब भी काला धन था।
अब भी काला धन है। तब करोड़ों की रिश्वत के बदले काम होते थे अब अरबों रुपए की रिश्वत और चंदे के बदले ठेके, काम होते हैं। तब भी नागरिकों को मूर्ख बनाया जाता था अब भी बनाया जाता है। पैमाने, आकार-प्रकार का फर्क है अन्यथा मूल जस का तस। क्या मैं गलत हूं?
लेखक डगलस एडम्स का लोकतंत्र पर एक बेमिसाल संवाद है। उसका हिंदी अनुवाद सार कुछ यों है-
“आपको पता है… बहुत प्राचीन लोकतंत्र की बात है,…”
“तुम्हारा मतलब है, छिपकलियों की दुनिया की बात?”
“नहीं”, फोर्ड ने कहा, “इतना सरल कुछ भी नहीं। इतना सीधा कुछ नहीं। इस दुनिया में, लोग लोग हैं। नेता छिपकली हैं। लोग छिपकलियों से नफरत करते हैं पर छिपकलियां लोगों पर शासन करती हैं।
“अजीब है,” आर्थर ने कहा, “मैंने सोचा आपने कहा कि यह एक लोकतंत्र था।
“हां, मैंने कहां,” फोर्ड ने जवाब दिया। “ऐसा ही है।
“तो,” आर्थर ने पूछा, …”लोग छिपकलियों से छुटकारा क्यों नहीं पाते?”
फोर्ड ने कहा, “ईमानदारी से, इसका उन्हें भास नहीं होता है। फिर उन सभी को वोट मिल चुका है, इसलिए वे सभी (लोग) यह माने हुए होते हैं कि वोट दे कर उन्होंने जिस सरकार को चुना है, वह कमोबेश उस सरकार जैसी ही है जो वे चाहते हैं।
“आपका मतलब है कि वे वास्तव में छिपकलियों को वोट देते हैं?”
“ओह हां,” फोर्ड ने कंधे उचकाते हुए कहा, “बेशक।
“लेकिन,” आर्थर ने कहा, “वे फिर बड़ी (छिपकली) के लिए जा रहे है, “क्यों?”
“क्योंकि यदि उन्होंने छिपकली के लिए वोट नहीं दिया,” फोर्ड ने कहा, “तो गलत छिपकली अंदर आ सकती है।
मुझे छिपकलियों के बारे में और बताओ।
फोर्ड ने फिर कंधे उचकाए। कहा, “कुछ लोग कहते हैं कि छिपकलियों का मिलना उनके लिए सबसे अच्छी चीज, उनका सौभाग्य है। हालांकि वे पूरी तरह से गलत हैं, पूरी तरह से और एकदम से गलत हैं, लेकिन कोई ऐसा कहने वाला, समझाने वाला तो हो।
और आर्थर ने कहा, “यह भयानक है।“
अब आप ही सोचें, यदि कौम, मानवता की यही नियति है तो इंसानी बुद्धि की समझ पर क्या रोना रोएं।