सवाल बेहद गंभीर है

भारत में अपराधियों के प्रति सरकारों के मन में जगी दया अजीब है। संभवतः भारतीय जनता पार्टी की नजर में मुसलमानों के खिलाफ किए गए जुर्म अपराध नहीं हैं। उसकी चली होती, तो गुजरात के 2002 के दंगों में किसी को सजा ही नहीं होती। बहरहाल, अब उसकी चल रही है, तो वह सजायाफ्ता अपराधियों को भी रिहा करने की नीति पर चलने लगी है। अभी तक यह बात यहीं तक थी। लेकिन अब हमारे सामने यह अप्रिय सत्य है कि इस मामले में गैर-भाजपा पार्टियों का नजरिया भी कोई अलग नहीं है। वरना, बिहार में सीपीआई (एमएल) के समर्थन से चल रही जनता दल (यू)- राष्ट्रीय जनता दल और कांग्रेस की सरकार ने आनंद मोहन सहित 27 सजायाफ्ता अपराधियों को रिहा करने का फैसला किया है। इसे समझने के लिए किसी विशेष बुद्धि की जरूरत नहीं है कि यह निर्णय भी सियासी नफा-नुकसान की गणना के आधार पर किया गया है। मुजरिम होने के बावजूद आनंद मोहन की छवि एक जाति विशेष में हीरो की रही है। वह दबंग जाति है, जो चुनावी लिहाज से एक खास भूमिका निभा सकती है। तो बिहार की सरकार ने अगले चुनावों के मद्देनजर कानून की भावना की अनदेखी करते हुए अपने विशेष अधिकार से उन्हें रिहा करने का फैसला किया है।

ऐसी प्रवृत्तियां 1980 के दशक तक आम रही थीं। उसके बाद अदालतों ने शिकंजा कसा। लेकिन ये वो समय था, जिसे न्यायिक सक्रियता के दौर के रूप में जाना जाता है। यह केंद्र में कमजोर सरकारों का काल था, जिसमें न्यायपालिका ने अपनी भूमिका बढ़ाई थी। लेकिन 2014 के बाद कहानी बदल गई है। अब धारणा बन गई है कि न्यायपालिका आम तौर पर केंद्र सरकार की मंशा के मुताबिक ही काम करती है। इसके बीच सरकारों ने कानून को अपने ढंग से परिभाषित करने की शुरुआत कर दी है। इसके तहत अपराध को राजनीतिक विचारधारा और राजनीतिक लाभ-हानि की दृष्टि से देखा जा रहा है। यह बेहद गंभीर स्थिति है। बिहार की घटना ने यही बताया है कि कानून के राज की जड़ें खोदने में कोई पार्टी पीछे नहीं रहना चाहती।

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