विपक्ष है 2004 के सिंड्रोम में!
लोकसभा का चुनाव अब समाप्ति की ओर है। पांच चरण का मतदान हो चुका है और आखिरी दो चरण में 114 सीटों का मतदान बचा हुआ है। सत्तापक्ष की ओर से दावा किया जा रहा है कि 429 सीटों के मतदान में ही उसे बहुमत मिल चुका है तो दूसरी ओर विपक्ष का दावा है कि भाजपा और उसके गठबंधन वाला एनडीए इस बार बहुमत नहीं हासिल कर पाएगा। पार्टियों के दावों और प्रचार की जटिलताओं के बीच इस चुनाव की एक खास बात यह दिखी है कि समूचा विपक्ष फीलगुड के अंदाज में चुनाव लड़ रहा है। विपक्षी पार्टियां 2004 के लोकसभा चुनाव के सिंड्रोम से प्रभावित दिख रही हैं।
उनको लग रहा है कि जैसे 2004 में भाजपा की तत्कालीन सरकार ने ‘फीलगुड’ और ‘इंडिया शाइनिंग’ का प्रचार किया था और चुनाव हार गई थी उसी तरह इस बार भी नरेंद्र मोदी की सरकार चुनाव हार जाएगी। विपक्ष के नेता मान रहे हैं कि जैसे 2004 में भाजपा ने टीना फैक्टर यानी देयर इज नो ऑल्टरनेटिव का प्रचार किया था और कहा था कि अटल बिहारी वाजपेयी के मुकाबले कोई नहीं है फिर भी चुनाव हार गई थी उसी तरह इस बार भी नरेंद्र मोदी के मुकाबले भले कोई नहीं दिख रहा है लेकिन भाजपा चुनाव हार जाएगी। यह भी कहा जा रहा है कि 2004 में जैसे कोई लहर नहीं थी वैसे ही इस बार भी कोई लहर नहीं है और लोग चुपचाप सरकार के खिलाफ वोट डाल रहे हैं।
लेकिन क्या सचमुच 2024 के लोकसभा चुनाव में 2004 के चुनाव का सिंड्रोम काम कर रहा है? क्या सचमुच लोग चुपचाप सरकार के खिलाफ वोट डाल रहे हैं और क्या सचमुच उसी तरह इस बार भी सत्ता परिवर्तन हो जाएगा? ऐसे किसी भी नतीजे पर पहुंचने से पहले दोनों चुनावों के समय की राजनीतिक स्थितियों को समझने की जरुरत है। पिछले 20 साल में गंगा जमुना में बहुत पानी बह चुका है। अब न पहले वाली भाजपा है और न उस समय वाली कांग्रेस है। चुनाव लड़ने, लड़ाने वाली टीम बदल गई है और चुनाव लड़ने या राजनीति करने का तरीका बहुत बदल गया है। मतदाता का मिजाज भी 20 साल पहले वाला नहीं रह गया है।
संचार के साधन भी बहुत बदल गए हैं। संचार के साधन के तौर पर सोशल मीडिया के विस्तार ने लोगों का मिजाज बदलने में बड़ी भूमिका निभाई है। संयोगों के सहारे चुनाव लड़ने वाली भाजपा की जगह अब सारे संसाधन झोंक कर नतीजे सुनिश्चित करने वाली भाजपा चुनाव लड़ रही है। वह एक सीमित भौगोलिक क्षेत्र की बजाय पूरे देश की सबसे बड़ी पार्टी बन गई है। इसलिए 2004 और 2024 के चुनाव में कई समानताएं दिखने के बावजूद दोनों चुनाव कई अहम राजनीतिक पैमानों पर बिल्कुल अलग अलग हैं।
सबसे पहले कांग्रेस और भाजपा की स्थितियों की तुलना करें तो फर्क बहुत स्पष्ट दिखाई देगा। 20 साल पहले 2004 में भाजपा देश के एक सीमित भौगोलिक इलाकों में राजनीति करने वाली पार्टी थी। उसे 1999 के लोकसभा चुनाव में महज 23 फीसदी वोट मिला था, जबकि कांग्रेस को 28 फीसदी वोट मिले थे। सिर्फ 23.75 फीसदी वोट लेकर भाजपा 182 सीट जीत गई थी, जबकि 28.30 फीसदी वोट पर कांग्रेस सिर्फ 114 सीटें जीत पाई थी। अब 20 साल बाद दोनों पार्टियों की स्थिति में जमीन आसमान का अंतर आ गया है। भाजपा अब 37.36 फीसदी वोट की पार्टी है, जबकि कांग्रेस करीब 19.49 फीसदी वोट की पार्टी है। यानी जो कांग्रेस 2004 में पांच फीसदी वोट से भाजपा से आगे थी वह अब भाजपा से करीब 18 फीसदी वोट से पीछे है। भाजपा का वोट कांग्रेस से लगभग दोगुना है। इतना ही नहीं सीएसडीएस और लोकनीति के चुनाव पूर्व सर्वेक्षण में बताया गया है कि भाजपा का वोट बढ़ कर 40 फीसदी तक जा सकता है, जबकि कांग्रेस के वोट में दो फीसदी की बढ़ोतरी हो सकती है और वह 22 फीसदी तक जा सकती है।
ध्यान रहे वोट प्रतिशत के मुकाबले सीटों की संख्या एक तकनीकी मामला है। जरूरी नहीं है कि जिसको जितना वोट मिले उसी अनुपात में उसे सीटें भी मिले। पिछले ही चुनाव में कांग्रेस को 20 फीसदी वोट मिला लेकिन सीटें 10 फीसदी भी नहीं मिलीं, जबकि भाजपा को 37 फीसदी वोट मिले और उसने 55 फीसदी सीटें जीत लीं। इस बार भाजपा पहले से ज्यादा सीटों पर लड़ रही है। पिछली बार वह तमिलनाडु में सिर्फ पांच सीटों पर लड़ी थी, जबकि इस बार 20 से ज्यादा सीटों पर लड़ी। सो, वोट प्रतिशत अगर बढ़ता भी है तो जरूरी नहीं है कि उस अनुपात में सीटें बढ़े, बल्कि यह भी हो सकता है कि उसी अनुपात में उसकी सीटें कम हो जाएं। और दूसरी ओर ऐतिहासिक रूप से सबसे कम सीटों पर यानी 328 सीट पर लड़ रही कांग्रेस को अगर 22 फीसदी वोट मिले तो वह पहले से कुछ ज्यादा सीट जीत जाए क्योंकि इस बार वह रणनीतिक रूप से ऐसी सीटों पर लड़ रही है, जहां जीतने की गुंजाइश है।
बहरहाल, 2004 और 2024 के चुनाव नतीजों की तुलना करने वाले एक समानता यह भी बता रहे हैं कि 2004 में भी मतदाता बहुत जोश नहीं दिखा रहे थे और ओवरऑल मतदान प्रतिशत 1999 के मुकाबले कम रहा था। यह सही है कि 2004 में मतदान कम हुआ था लेकिन यह भी सही है कि उस समय भाजपा के साथ साथ कांग्रेस के वोट में भी गिरावट आई थी। कांग्रेस को 1999 के मुकाबले 2004 में 1.77 फीसदी वोट कम मिले थे, जबकि भाजपा को 1.57 फीसदी वोट कम मिले थे। यानी भाजपा का वोट डेढ़ फीसदी कम हुआ तो उसकी सीटें 189 से घट कर 138 हो गईं और कांग्रेस का वोट 1.77 फीसदी कम हुआ तो वह 114 से बढ़ कर 145 पहुंच गई। यानी वोट घटा तब भी कांग्रेस की सीटें बढ़ी थीं। लगभग पूरे देश में नतीजे पहले जैसे ही रहे थे।
सिर्फ एकीकृत आंध्र प्रदेश में टीडीपी का सफाया हो गया था और वाईएसआर रेड्डी के नेतृत्व में कांग्रेस ने कमाल का प्रदर्शन किया था और दूसरे तमिलनाडु में ऐन चुनाव से पहले गठबंधन सहयोगी डीएमके को छोड़ कर अन्ना डीएमके से तालमेल करने का भाजपा का फैसला बुरी तरह से गलत साबित हुआ था। इन दो राज्यों की वजह से गठबंधन की पूरी तस्वीर बदल गई थी। अब राजनीति ऐसी नहीं रही कि दो राज्यों के चुनाव नतीजों से गठबंधन की शक्ल बहुत बदल जाए। एक महाराष्ट्र को छोड़ कर देश के हर राज्य में भाजपा का गठबंधन राजनीतिक रूप से ठोस दिख रहा है। यानी गठबंधन, चुनाव प्रचार, तैयारियों आदि में भाजपा 2004 की तरह लापरवाह या एडहॉक नहीं दिख रही है। नतीजे जो हों लेकिन उसने गलती नहीं की है।
अगर मुद्दों की बात करें तो उस समय वाजपेयी सरकार बैकफुट पर थी क्योंकि तहलका टेप से पार्टी के अध्यक्ष के रिश्वत लेने का मामला खुला था। कारगिल युद्ध में ताबूत घोटाले का हल्ला था। गुजरात दंगों का बहाना बना कर सहयोगी पार्टियां साथ छोड़ रही थीं। विपक्षी पार्टियां पूछ रही थीं कि छह साल सरकार में रहे लेकिन न राममंदिर बना और न अनुच्छेद 370 समाप्त हुआ। भाजपा के समर्थक भी तसल्ली दे रहे थे कि वाजपेयी सरकार के पास बहुमत नहीं है इसलिए मंदिर नहीं बना है लेकिन मलाल उनको भी था। इस बार हालात बिल्कुल अलग हैं। विपक्ष के नेता भ्रष्टाचार के आरोपों में फंसे हैं तो दूसरी ओर भाजपा समर्थक संतोष में हैं कि अनुच्छेद 370 भी हट गया और मंदिर भी बन गया। यह जरूर है कि रेवड़ी के मामले में विपक्ष ज्यादा बड़े वादे कर रहा है और संविधान व आरक्षण खत्म होने का मुद्दा उसने नीचे तक पहुंचाया है। लेकिन उसी अनुपात में सांप्रदायिक विभाजन बिल्कुल नीचे तक पहुंचा है। साथ ही नरेंद्र मोदी की लार्जर दैन लाइफ छवि और देश के लिए काम करने का नैरेटिव भी गांव गांव तक पहुंचा हुआ है।