पहला सत्र तो अच्छा नहीं रहा

अगर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के एक भाषण से उद्धरण लेकर कहें तो 18वीं लोकसभा का ट्रेलर अच्छा नहीं रहा। पहले सत्र में पक्ष और विपक्ष में जैसा टकराव देखने को मिला उससे तो लग रहा है कि पूरी फिल्म एक्शन और ड्रामे से भरी रहने वाली है। नई लोकसभा और राज्यसभा में भी पक्ष और विपक्ष राजनीतिक प्रतिद्वंद्वी के तौर पर नहीं, बल्कि जानी दुश्मन के तौर पर एक दूसरे के सामने डटे थे। कांग्रेस को लग रहा था कि 10 साल तक दबे कुचले रहने के बाद उसकी ताकत बढ़ी है तो इस बढ़ी हुई ताकत का प्रदर्शन करना चाहिए।

दूसरी ओर नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली भाजपा पहली बार बहुमत नहीं हासिल कर पाई है, जिससे पार्टी का आत्मविश्वास हिला है तो वह सीटों की संख्या कम होने की भरपाई आक्रामकता दिख कर करना चाह रही थी। तभी दोनों सदनों में आठ दिन की कार्यवाही में लगातार टकराव चलता रहा। टकराव सिर्फ पक्ष और विपक्ष के बीच नहीं था, विपक्ष के नेता इस टकराव में स्पीकर को भी खींच कर ले आए और किसी न किसी बहाने उनको भी निशाना बनाया गया।

ऐसा लग रहा था जैसे दोनों पार्टियां या दोनों गठबंधन अभी तक चुनाव प्रचार के मोड में ही हैं, उससे बाहर नहीं निकले हैं। जिस तरह करीब तीन महीने तक चले चुनाव प्रचार अभियान के दौरान एक दूसरे को जानी दुश्मन मान कर हमला किया जा रहा था उसी तरह का हमला संसद सत्र में भी दिखाई दे रहा था। पहली बार ऐसा हुआ कि सत्तापक्ष की मिरर इमेज की तरह विपक्ष का आचरण दिखा। ध्यान रहे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी 24 घंटे चुनावी मोड में रहते हैं। संसद में भी उनके भाषण चुनावी सभाओं के भाषण जैसे ही होते हैं। सो, इस बार राहुल गांधी और दूसरे विपक्षी सांसद भी उसी अंदाज में भाषण करते नजर आए। संसद में नीतिगत मसलों पर बात होनी चाहिए थी। विधायी कामकाज के बारे में चर्चा होनी चाहिए थी। कैसे पक्ष और विपक्ष में बेहतर समन्वय बने इसके बारे में विचार विमर्श किया जाना चाहिए था। लेकिन दुर्भाग्य से ऐसा नहीं हो सका।

संभवतः पहली बार ऐसा हुआ कि सदन के नेता यानी नरेंद्र मोदी के आने पर मोदी, मोदी के नारे लगे तो सदन के नेता प्रतिपक्ष यानी राहुल गांधी के सदन में आने पर राहुल, राहुल के नारे लगे। जिस दिन राष्ट्रपति के अभिभाषण पर सरकार की ओर से पेश धन्यवाद प्रस्ताव पर चर्चा शुरू हुई यानी सोमवार को और मंगलवार को जिस दिन प्रधानमंत्री मोदी ने चर्चा का जवाब दिया उस दिन निचला सदन यानी लोकसभा विधायी कामकाज का सदन नहीं दिख रहा था, बल्कि पारंपरिक रोमन एरिना की तरह दिख रहा था और मोदी व राहुल दो ग्लैडियटर्स की तरह दिख रहे थे।

बाकी सांसद दोनों ग्लैडिएटर्स का हौसला बढ़ाने के लिए नारेबाजी कर रहे थे। सदन बिल्कुल अखाड़ा बना हुआ था, जिसमें नारेबाजी और उत्तेजक भाषण चल रहे थे। यह बहुत दुर्भाग्यपूर्ण तस्वीर थी। कह सकते हैं कि 10 साल तक भाजपा ने एकतरफा ऐसा माहौल बनाया था और अब कांग्रेस व विपक्ष को ताकत मिल गई है तो वह भी जैसे को तैसा के अंदाज में जवाब दे रहा है। फिर सवाल है कि फर्क क्या रह जाएगा? अगर विपक्ष कहता है कि वह संविधान का रक्षक है तो उसे वैसा ही आचरण क्यों करना चाहिए, जैसे आचरण का विरोध करके उसने चुनाव लड़ा?

संसद के पहले सत्र की एक बात और ध्यान खींचने वाली थी और वह ये कि संसदीय राजनीति भाजपा बनाम कांग्रेस या एनडीए बनाम ‘इंडिया’ की नहीं दिख रही थी। वह नरेंद्र मोदी बनाम राहुल गांधी की दिख रही थी। इसमें कोई संदेह नहीं है कि नरेंद्र मोदी ने अपनी और भाजपा की राजनीति चमकाने और चुनाव जीतने के लिए कांग्रेस से ज्यादा नेहरू, गांधी परिवार को निशाना बनाया और उसमें भी राहुल गांधी पसंदीद पंचिंग बैग रहे। मोदी और भाजपा के समूचे इकोसिस्टम ने राहुल के ऊपर इतने हमले किए कि निश्चित रूप से उनके मन में दुश्मनी का भाव पैदा हुआ होगा।

भले वे मोहब्बत की दुकान की बात करते रहें और यह दावा करें कि वे किसी से नफरत नहीं करते हैं लकिन हकीकत यह है कि भले प्रतिक्रिया स्वरूप ही हुआ हो लेकिन राहुल के मन में मोदी के प्रति स्थायी दुश्मनी का भाव बना है और वह राजनीति के दायरे से थोड़ा आगे भी है। तभी राहुल ने नेता प्रतिपक्ष के तौर पर अपने भाषण में मोदी पर खूब हमला किया और उनका मजाक उड़ाया तो जवाब देते हुए मोदी ने भी राहुल की आलोचना अपमानित करने की हद तक की। अगर यह निजी दुश्मनी या खुन्नस का भाव खत्म नहीं होगा तो 18वीं लोकसभा से कुछ बेहतर हासिल होने की उम्मीद बेमानी हो जाएगी।

जरुरत इस बात की है कि दोनों पक्ष जनादेश को समझें। 10 साल के बाद देश के मतदाताओं ने अगर भाजपा की सीटें कम कीं और उसे गठबंधन की सरकार चलाने के लिए बाध्य किया तो भाजपा को इसके पीछे के संदेश को समझना चाहिए। भाजपा और प्रधानमंत्री मोदी दोनों को यह समझना चाहिए कि एकाधिकारवाद की राजनीति को जनता ने ठुकरा दिया है। इसी तरह कांग्रेस और दूसरी विपक्षी पार्टियों खास कर समाजवादी पार्टी और तृणमूल कांग्रेस को यह ध्यान रखना चाहिए कि जनता ने उनकी ताकत बढ़ाई है तो वह इसलिए नहीं कि वे सदन में जाकर अपनी निजी खुन्नस निकालें। उनकी ताकत मतदाताओं ने इसलिए बढ़ाई है ताकि वे रचनात्मक विपक्ष की भूमिका निभाएं और सरकार पर चेक एंड बैलेंस का काम करें।

मतदाताओं ने पहलवान चुन कर नहीं भेजे हैं और न उनकी रूचि संसद के अंदर कुश्ती देखने में है। दोनों पक्षों को जनादेश का सम्मान करना चाहिए और संसदीय परंपराओं की गरिमा बनाए रखते हुए विधायी कामकाज पर ध्यान देना चाहिए। जनता को मूर्ख समझने की भूल नहीं करनी चाहिए। लंबे समय तक या स्थायी टकराव की राजनीति से जनता का सिर्फ राजनीति से नहीं, बल्कि समूची लोकतांत्रिक प्रक्रिया से मोहभंग होगा। इसी बार मतदान प्रतिशत कैसे कम हुआ इसे लेकर भी पार्टियों को आत्मचिंतन करना चाहिए। लोकतांत्रिक प्रक्रिया और संसदीय प्रणाली में आम लोगों का भरोसा बना रहे इसके लिए भी जरूरी है कि पक्ष व विपक्ष दोनों निजी खुन्नस और दलगत राजनीति से ऊपर उठ कर विधायी कामकाज में शामिल हों।

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