भारत में कार्यपालिका की सर्वोच्चता
सैद्धांतिक रूप से भारत में विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिक को समान रूप से लोकतंत्र के तीन स्तम्भों के रूप में रेखांकित किया गया है। शक्तियों के पृथक्करण सिद्धांत के तहत तीनों अंगों के कार्यों का बंटवारा किया गया है और उनके अधिकार तय किए गए हैं। संविधान के मुताबिक तीनों को अपने अपने अधिकार क्षेत्र के दायरे में रह कर काम करना चाहिए और उसका अतिक्रमण नहीं करना चाहिए। लेकिन व्यावहारिक रूप में ऐसा नहीं है। व्यावहारिक रूप से भारत में कार्यपालिका की भूमिका सर्वोच्च है और यह स्थिति आजादी के बाद से ही है। पहले प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू के कार्यकाल में भी कार्यपालिका ही सर्वोच्च थी और आज भी है। फर्क सिर्फ इतना है कि समय के साथ साथ कार्यपालिका की शक्तियां बढ़ती गई हैं और विधायिका की शक्तियां कम होती गई हैं। न्यायपालिका ने जजों की नियुक्ति की अपनी व्यवस्था बना कर कुछ हद तक अपने को स्वायत्त रखा है लेकिन कार्यपालिका के अति शक्तिशाली होते जाने से न्यायपालिका पर भी दबाव बढ़ रहा है। जजों की नियुक्ति और तबादलों में आ रही दिक्कतों के साथ साथ न्यायपालिका के कई फैसलों पर अमल संबंधी दिक्कतें भी आई हैं और वह इसलिए क्योंकि न्यायपलिका के फैसले पर भी अमल कार्यपालिका को ही करना है।
बहरहाल, भारत में कार्यपालिका के शक्तिशाली होते जाने के कई कारण हैं, जिनमें से मुख्य कारण मौजूदा शासन प्रणाली है, जिसमें कार्यपालिका को ही विधायिका के संचालन की जिम्मेदारी मिली हुई है। केंद्र में जो सरकार में होता है वही संसद का संचालन करता है और राज्यों में जिसकी सरकार होती है वह विधानसभाओं का संचालन करता है। संसद और विधानसभाओं के पीठासीन अधिकारी बहुमत वाली पार्टियों के होते हैं, पार्टी आलाकमान की कृपा से चुने जाते हैं और संसदीय कार्य मंत्रियों की सलाह से काम करते हैं। सभी संस्थाओं में नियुक्ति से लेकर सेवा की शर्तें तय करने और वेतन, पेंशन आदि का अधिकार सरकारों के हाथ में होता है। तमाम संवैधानिक संस्थाएं भी सरकार के खूंटे से बंधी हैं और सभी जांच एजेंसियां प्रत्यक्ष रूप से सरकार के नियंत्रण में काम करती हैं। अगर किसी को लगता है कि संवैधानिक व वैधानिक संस्थाएं स्वायत्त होकर काम करती हैं तो वह मूर्खों के स्वर्ग में रहता है। असल में कार्यपालिका के शीर्ष पर विराजमान व्यक्ति निजी तौर पर कैसी सोच का है और वह संस्थाओं को कितनी स्वायत्ता देना चाहता है वह महत्वपूर्ण होता है। कार्यपालिका के मजबूत होने का एक कारण राजनीतिक दलों में आंतरिक लोकतंत्र की लगभग पूरी तरह गैरमौजूदगी भी है। पार्टियों में आलाकमान की संस्कृति भारत में इतनी मजबूत है कि शीर्ष पर बैठे नेता की मर्जी के बगैर पत्ता भी नहीं हिल सकता है।
तभी आज तक भारत में यह देखने को नहीं मिला है कि सरकार के किसी भी फैसले पर सत्तारूढ़ दल में से किसी ने आवाज उठाई हो। दुनिया के सभ्य और परिपक्व लोकतंत्र वाले देशों में अक्सर ऐसा देखने को मिलता है कि सत्तारूढ़ पार्टियों के नेता अपनी सरकार के फैसले पर सवाल उठाते हैं। विधायिका के अंदर सरकार के लाए विधेयकों का वस्तुनिष्ठ आधार पर विरोध करते हैं और कई बार अपनी ही सरकार के विधेयक को विफल करा देते हैं क्योंकि वे सरकार के प्रति नहीं, बल्कि जनता के प्रति जवाबदेह होते हैं। ऐसा करने के बावजूद उनके ऊपर अनुशासनहीनता की कार्रवाई नहीं होती है। इसके उलट भारत में अपवाद के लिए ही शायद कभी ऐसा हुआ होगा कि सरकार की ओर से लाए गए किसी विधेयक पर सत्तापक्ष के किसी सांसद या विधायक ने विधायिका के अंदर विरोध की आवाज उठाई हो। अगर किसी ने प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से सवाल उठाया भी तो उसके खिलाफ अनिवार्य रूप से कार्रवाई हुई होगी।
सोचें, जब संसद या विधानसभाओं में स्वतंत्र रूप से किसी मसले पर बहस नहीं हो सकती है तो विधायिका की स्वायत्तता का क्या मतलब है? असल में यह एक मिथक है कि विधायिका का काम कानून बनाना है। असल में कानून सरकार बनाती है और विधायिका का काम सिर्फ उस पर मुहर लगाना है। महिला आरक्षण सहित कुछ विधेयक जरूर ऐसे रहे हैं, जिन्हें अतीत में सरकारों ने पेश किया लेकिन पास नहीं करा सकीं। लेकिन यह कहने में कोई हिचक नहीं है कि वो विधेयक इसलिए पास नहीं हुए क्योंकि सरकारें उन्हें पास कराना नहीं चाहती थीं। भारत में ऐसा संभव ही नहीं है कि सरकार चाहे और वह विधेयक पास न हो। अमेरिका के साथ परमाणु संधि का कानून इसकी मिसाल है। जुलाई 2008 में मनमोहन सिंह सरकार के मुखिया थे और उनकी कांग्रेस पार्टी के पास सिर्फ 145 सांसद थे। 60 सांसदों वाले लेफ्ट मोर्चे ने सरकार से समर्थन वापस से लिया था और बिल का विरोध करने का ऐलान किया था। इसके बावजूद साम, दाम, दंड, भेद के जरिए वह विधेयक पास हुआ था। वह विधेयक, जिसका भाजपा और लेफ्ट दोनों विरोध कर रहे थे, पास हो गया। लेकिन वहीं मनमोहन सिंह महिला आरक्षण बिल पास नहीं करा पाए, जिसका समर्थन भाजपा और लेफ्ट दोनों कर रहे थे! भारत के संसदीय लोकतंत्र की इससे बड़ी हिप्पोक्रेसी कोई नहीं हो सकती है।
बहरहाल, संसद के शीतकालीन सत्र में एक छोटी से खबर आई और सबकी नजरों के सामने से गुजर गई, किसी ने उस पर खास ध्यान नहीं दिया। खबर थी कि भारत सरकार को चालू वित्त वर्ष में अपने कामकाज के लिए अतिरिक्त 56 हजार करोड़ रुपए की जरुरत थी। इसके लिए सरकार ने संसद में प्रस्ताव रखा, जिसे पास कर दिया गया। अब याद करें कुछ दिन पहले अमेरिका को लेकर ऐसी खबर आई थी तो भारत के अखबारों में कैसी सुर्खियां बनी थीं! खबर थी कि ‘अमेरिका में गहराया नकदी संकट, संसद ने मंजूरी नहीं दी तो दिवालिया होगा अमेरिका’। असल में अमेरिकी संसद ने जो बाइडेन सरकार को पूरे साल में 31.4 खरब डॉलर का कर्ज लेने की अनुमति दी थी, जिसमें से सरकार 30 खरब डॉलर कर्ज ले चुकी थी। अब उसे कर्ज की सीमा बढ़वानी थी लेकिन अमेरिकी संसद सवाल पूछ रही थी कि आपने पैसे कहां खर्च कर दिए और राष्ट्रपति को जवाब देते नहीं बन रहा था। इसके बरक्स यह तथ्य है कि नरेंद्र मोदी की सरकार ने पिछले नौ साल में एक सौ लाख करोड़ रुपए का कर्ज लिया। क्या कभी यह सुनने को मिला की संसद ने पूछा हो कि इतने पैसे कहां खर्च हो रहे हैं? कभी संसद ने कर्ज लेने की सीमा तय की हो? अभी सरकार ने जो 56 हजार करोड़ रुपए अतिरिक्त लिए उसकी जरुरत क्यों पड़ गई क्या संसद ने यह सवाल पूछा?
असलियत यह है कि भारत में विधायिका की कभी ऐसी हैसियत नहीं रही कि वह देश की चुनी हुई सरकार के कामकाज में अड़ंगा लगा सके और उसे रोक सके। सरकार का फैसला चाहे कितना भी जनविरोधी हो, उसे संसद नहीं रोक सकती है। किसान विरोधी कृषि कानूनों को भी संसद नहीं रोक पाई थी। किसानों के एक साल तक चले आंदोलन की वजह से उसे सरकार को वापस लेना पड़ा था। यह दुर्भाग्य है कि देश में लोकतंत्र और पार्टियों के आंतरिक लोकतंत्र को मजबूत करने के लिए भारत में कोई काम नहीं हुआ। पिछले 75 साल में यहां यह व्यवस्था मजबूत हुई है कि सत्तापक्ष के सांसद या विधायक हर विधेयक का हाथ उठा कर और गले की पूरी ताकत से चिल्ला कर समर्थन करेंगे और विपक्षी सांसद या विधायक उसका विरोध करेंगे। ऐसा शायद ही कभी हुआ हो कि संसद या विधानसभाओं के भीतर सांसद या विधायक पार्टी लाइन से अलग हट कर किसी अच्छे विधेयक का समर्थन करें या खराब विधेयक का विरोध करें। यहां सत्तापक्ष मानता है कि सरकार हमेशा सही है और विपक्ष मानता है कि सरकार हमेशा गलत है। और चूंकि सरकार का बहुमत होता है इसलिए वह हमेशा सही होती है। ऐसे में विधायिका का क्या मतलब है, जब उसे हर बार कार्यपालिका के फैसले पर ही मुहर लगानी है?
विधायिका में स्थायी समितियों का प्रावधान है। लेकिन वहां भी सत्तापक्ष का बहुमत होता है और अगर गलती से कोई विधेयक किसी स्थायी समिति में गया तो वहां भी विपक्ष की किसी सलाह का कोई मतलब नहीं होता है क्योंकि सत्तापक्ष अपने बहुमत के दम पर सरकारी विधेयक को मंजूर कराता है। स्थायी समितियों में भी सत्तापक्ष के किसी सांसद या विधायक की हिम्मत नहीं है कि वह सरकार के फैसले पर सवाल उठाए। अगर किसी ने गलती से सवाल उठाया तो वह पार्टी से निकाल दिया जाएगा या अगली बार उसे टिकट नहीं मिलेगी। और चूंकि सबके जीवन का एकमात्र लक्ष्य सांसद या विधायक बनना है तो फिर क्यों आलाकमान के खिलाफ सवाल उठाना है? संसद के शीतकालीन सत्र में 143 सांसदों का निलंबन भी कार्यपालिका की लगातार बढ़ती ताकत का ही एक संकेत है।