अपना ही किया भुगत रही हैं सोनिया
आलाकमान हो तो भाजपा की तरह वरना न हो! राजस्थान कांग्रेस में चल रहे सियासी घमासान के बीच गुजरात के पूर्व मुख्यमंत्री विजय रुपानी ने एक इंटरव्यू में कहा है कि उनको एक रात पहले आलाकमान की ओर से मैसेज किया गया कि वे मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा दे दें और उन्होंने दे दिया। रुपानी ने यह भी कहा कि उन्होंने न कारण पूछा और न उनको कारण बताया गया। उन्होंने कहा कि वे पूछते तो हो सकता है कि कारण बताया जाता है लेकिन उन्होंने पूछा नहीं। यह होती है आलाकमान की धमक! किसी जमाने में कांग्रेस का आलाकमान भी ऐसा ही हुआ करता था। दिल्ली से आलाकमान का दूत राज्यों की राजधानी में पहुंचता तो हड़कंप मच जाता था। प्रदेश के सारे तुर्रम खां नेता उस महासचिव या आलाकमान के दूत को खुश करने में लगे रहते थे। आलाकमान की ओर से दिया गया एक लाइन का निर्देश ब्रह्मा जी की खींची लकीर की तरह होता था। उस निर्देश का उल्लंघन नहीं किया जा सकता था।
अब स्थिति यह है कि कांग्रेस आलाकमान के किसी भी निर्देश की कोई परवाह किसी प्रादेशिक क्षत्रप को नहीं है। कांग्रेस का कोई नेता आलाकमान की बात को तरजीह नहीं देता है। आमतौर पर कहा जा रहा है कि 2014 में नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद कांग्रेस की ऐसी स्थिति हुई है। लेकिन ऐसा मानना अधूरा आकलन होगा। यह सही है कि मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद से कांग्रेस का ग्राफ लगातार गिरता जा रहा है। नेहरू-गांधी परिवार कोई चमत्कार नहीं कर पा रहा है। सोनिया और राहुल गांधी न तो कांग्रेस को चुनाव जीता पा रहे हैं और न कांग्रेस को एकजुट रख पा रहे हैं। लेकिन यह स्थिति आने से बहुत पहले सोनिया गांधी ने बतौर अध्यक्ष कांग्रेस की पारंपरिक राजनीति को इस तरह से बदल दिया था कि देर सबेर उनके हाथ से पार्टी को फिसलना ही था। कमान उनके हाथ से निकलनी ही थी।
सोचें, सोनिया गांधी के कांग्रेस अध्यक्ष बनने से पहले कब आखिरी बार किसी मुख्यमंत्री ने अपना कार्यकाल पूरा किया था? दिग्विजय सिंह जैसे दो-चार अपवाद मिलेंगे। आजादी से बाद से कांग्रेस आलाकमान ने कभी भी किसी मुख्यमंत्री को कार्यकाल पूरा नहीं करने दिया। लंबे समय तक कोई भी नेता एक पद पर नहीं रह पाता था। किसी नेता को इतना ताकतवर नहीं होने दिया जाता था कि वह किसी मुकाम पर आलाकमान को आंख दिखा सके। हालांकि तब आलाकमान की अपनी हैसियत भी थी और उसका करिश्मा था इसके बावजूद यह सावधानी बरती जाती थी। क्योंकि उस समय के नेता और उनके सलाहकार इस सत्य को जानते थे कि राजनीति में अपनी परछाई पर भी भरोसा नहीं किया जा सकता है।
राजनीति में कोई सगा नहीं होता है और कोई पराया भी नहीं होता है। सारे अपने होते हैं और सारे पराए होते हैं। लेकिन सोनिया गांधी ने इस पारंपरिक नियम को तोड़ा। उनको किसी ने अहसास नहीं दिलाया कि लंबे समय में यह राजनीति उनको नुकसान पहुंचाएगी। उनके प्रति पार्टी का आदर, सम्मान तभी तक है, जब तक वे चुनाव जिताती रहेंगी। जिस दिन चुनाव जिताने की क्षमता कम होगी या खत्म होगी उस दिन आलाकमान की सारी हैसियत भी खत्म हो जाएगी। वहीं हुआ है।
सवाल है कि पार्टी आलाकमान के लिए जब सारे नेता एक समान होते हैं फिर सोनिया गांधी ने यह मैसेज क्यों बनने दिया कि कुछ नेता उनको ज्यादा प्रिय हैं? क्यों उन्होंने घूम फिर कर उन्हीं चुनिंदा नेताओं के हाथ में सब कुछ दिए रखा? वे राजनीति का यह कार्डिनल रूल कैसे भूल गईं कि किसी पर भरोसा नहीं करना है? यह कितनी हैरानी की बात है कि जिस कांग्रेस में कोई मुख्यमंत्री एक कार्यकाल पूरा नहीं कर पाता था उस कांग्रेस को पिछले 24 साल में राजस्थान में तीन बार सरकार बनाने का मौका मिला और तीनों बार एक ही व्यक्ति को मुख्यमंत्री बनाया गया। दिल्ली में कांग्रेस 15 साल सत्ता में रही और पूरे 15 साल शीला दीक्षित ही मुख्यमंत्री रहीं। पंजाब में 2002 में कांग्रेस की सरकार बनी तो कैप्टेन अमरिंदर सिंह मुख्यमंत्री बने। उनका पांच साल का कार्यकाल खत्म होने के बाद 10 साल तक कांग्रेस सत्ता में नहीं आई। लेकिन 10 साल बाद जब कांग्रेस को सत्ता मिली तो फिर वहीं अमरिंदर सिंह मुख्यमंत्री बने। असम में लगातार 15 साल तक तरुण गोगोई को मुख्यमंत्री बना कर रखा गया। हरियाणा में भूपेंदर सिंह हुड्डा लगातार 10 साल मुख्यमंत्री बने रहे। बदले में इन नेताओं से सोनिया गांधी को क्या मिला? उन्होंने जिन लोगों को सबसे प्रिय माना उन्होंने उनका साथ नहीं दिया और पार्टी का भट्ठा बैठा दिया वो अलग!
सोनिया गांधी ने राज्यों में चुनिंदा नेताओं को इतना मजबूत होने दिया कि वे आलाकमान के कंट्रोल से बाहर हो गए। उन्होंने प्रदेश में पार्टी को अपनी जागीर बना डाली और अपने हिसाब से काम करने लगे। हरियाणा में नौ साल के बाद 2005 में कांग्रेस जीती थी तो उसकी जीत के आर्किटेक्ट भूपेंदर सिंह हुड्डा नहीं थे। भजनलाल की कमान में पार्टी जीती थी। लेकिन सोनिया गांधी ने हुड्डा को सीएम बनाया और 10 साल तक बनाए रखा। इसका नतीजा यह हुआ है कि हुड्डा ने हरियाणा में पार्टी को जेबी संगठन बना लिया।
2016 के राज्यसभा चुनाव में कांग्रेस आलाकमान ने उनकी पसंद का उम्मीदवार नहीं दिया तो गलत पेन के इस्तेमाल की वजह से 14 विधायकों के वोट अवैध हो गए और भाजपा समर्थित सुभाष चंद्र चुनाव जीत गए। पार्टी हुड्डा के खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं कर सकी। 2019 के लोकसभा चुनाव में हुड्डा पिता-पुत्र दोनों लोकसभा का चुनाव हार गए इसके बाद 2020 में आलाकमान की बांह मरोड़ कर हुड्डा ने अपने बेटे के लिए राज्यसभा ले ली। उन्होंने 2016 जैसे नतीजे की धमकी देकर अपने बेटे के लिए टिकट ली। 2022 में फिर आलाकमान का राज्यसभा उम्मीदवार हार गया। राजस्थान में यही कहानी दोहराई गई है।
सोनिया गांधी ने कांग्रेस अध्यक्ष के तौर पर जिन नेताओं को मजबूत किया और राज्यों की कमान पूरी तरह से उनके हाथ में सौंपे रखी वे नेता भी उनके साथ तभी तक हैं, जब तक वे उनको अपनी मर्जी से काम करने दे रही हैं। अगर सोनिया किसी के काम में दखल देती हैं तो या तो वह पार्टी छोड़ देता है या अपनी ताकत का प्रदर्शन करता है। सोनिया और राहुल के लिए इसका सीधा संदेश यह है कि वे कांग्रेस के प्रादेशिक क्षत्रपों के औपचारिक प्रमुख के तौर पर दिल्ली में रहें और उनके कामकाज में दखल न दें। यह स्थिति तभी बदलेगी, जब सोनिया और राहुल फिर से कांग्रेस को चुनाव जिताना शुरू करेंगे।