सावरकर थे हिंदू राजनीति के प्रर्वतक पुरोधा

26 फरवरी- सावरकर स्मृति दिवस

स्वतंत्रता सेनानी और विचारक विनायक दामोदर सावरकर ( 28 मई 1883 – 26 फरवरी 1966) बीसवीं शताब्दी के सबसे बड़े हिन्दूवादी राजनीतिज्ञ थे। विनायक दामोदर सावरकर को बचपन से ही हिन्दू शब्द से बेहद लगाव था। और उन्होंने जीवनपर्यंत हिन्दू, हिन्दी और हिन्दुस्तान के लिए काम किया। उन्होंने भारत के बहुसंख्यकों की एक सामूहिक हिन्दू पहचान बनाने के लिए हिन्दुत्व का शब्द गढ़ा। उन्होंने परिवर्तित हिन्दुओं को हिन्दू धर्म में पुनर्वापसी हेतु सतत प्रयास किए एवं इसके लिए आन्दोलन चलाए। उनके राजनीतिक दर्शन में उपयोगितावाद, तर्कवाद, प्रत्यक्षवाद, मानवतावाद, सार्वभौमिकता, व्यवहारिकता और यथार्थवाद के तत्व थे।

वे हिन्दू महासभा के प्रमुख चेहरे थे। सावरकर को छह बार अखिल भारतीय हिन्दू महासभा का राष्ट्रीय अध्यक्ष चुना गया। 1937 में उन्हें हिन्दू महासभा का अध्यक्ष चुना गया, जिसके बाद 1938 में हिन्दू महासभा को राजनीतिक दल घोषित कर दिया गया। उनकी इस हिन्दुवादी विचारधारा के कारण राजनीतिक प्रतिशोध वश स्वतंत्रता के बाद की सरकारों ने उन्हें वह महत्त्व नहीं दिया, जिसके वे वास्तविक हकदार थे।

28 मई 1883 को महाराष्ट्र तत्कालीन बॉम्बे प्रेसिडेन्सी में नासिक के निकट भागुर गाँव में पिता दामोदर पन्त सावरकर और माता राधाबाई के घर जन्मे विनायक दामोदर सावरकर की प्रारम्भिक शिक्षा नासिक और पुणे से हुई। बाद में वे लंदन जाकर वकालत की पढ़ाई करने लगे। मई 1909 में इन्होंने लंदन से बार एट ला (वकालत) की परीक्षा उत्तीर्ण की, परंतु उन्हें वकालत करने की अनुमति नहीं मिली। 1904 में अभिनव भारत नामक एक क्रान्तिकारी संगठन की स्थापना करने, 1905 में बंगाल विभाजन के बाद पुणे में विदेशी वस्त्रों की होली जलाने आदि कार्यों और अपने राष्ट्रभक्ति से ओत-प्रोत ओजस्वी भाषण देने की प्रवृति के कारण सावरकर लोकप्रियता को प्राप्त करने लगे थे।

इंडियन सोशियोलाजिस्ट और तलवार आदि पत्रिकाओं में उनके लिखे लेख प्रकाशित होने लगे थे, जो बाद में कलकत्ता के युगान्तर पत्र में भी छपे। सावरकर रूसी क्रान्तिकारियों से प्रभावित थे। सावरकर ने 1857 की क्रान्ति पर आधारित पुस्तकों का गहन अध्ययन कर द हिस्ट्री ऑफ़ द वॉर ऑफ़ इण्डियन इण्डिपेण्डेन्स नामक पुस्तक लिखी।

उनके लन्दन प्रवास के समय 1 जुलाई 1909 को मदनलाल ढींगरा द्वारा विलियम हट कर्जन वायली को गोली मार दिये जाने के बाद उन्होंने लन्दन टाइम्स में एक लेख लिखा था। इसमें आरोपी बनाकर उन्हें 13 मई 1910 को पैरिस से लन्दन पहुँचने पर गिरफ़्तार कर लिया गया, परंतु 8 जुलाई 1910 को एम एस मोरिया नामक जहाज से भारत ले जाते हुए सीवर होल के रास्ते ये भाग निकले। 24 दिसम्बर 1910 को उन्हें आजीवन कारावास की सजा दी गयी।

इसके बाद 31 जनवरी 1911 को इन्हें दोबारा आजीवन कारावास दिया गया। इस प्रकार सावरकर को ब्रिटिश सरकार ने क्रान्तिकारी कार्यों के लिए दो-दो आजन्म कारावास की सजा दी। यह विश्व के इतिहास की पहली एवं अनोखी सजा थी। सावरकर कई अन्य मामलों में भी अनोखे और भारत के प्रथम व्यक्ति सिद्ध हुए। सावरकर भारत के पहले ऐसे व्यक्ति थे, जिन्होंने ब्रिटिश साम्राज्य के केन्द्र लंदन में उसके विरुद्ध क्रांतिकारी आन्दोलन संगठित किया। सन 1905 के बंग-भंग के बाद सन 1906 में स्वदेशी का नारा देने वाले और विदेशी कपड़ों की होली जलाने वाले सावरकर भारत के पहले व्यक्ति थे।

अपने हिन्दू राष्ट्रवादी विचारों के कारण बैरिस्टर की डिग्री खोने वाले वे पहले भारतीय थे, जिन्होंने पूर्ण स्वतन्त्रता की मांग की। सन 1857 के संग्राम को भारत का प्रथम स्वाधीनता संग्राम बताते हुए 1907 में लगभग एक हज़ार पृष्ठों का इतिहास लिखने वाले वे भारत के पहले और संसार के एकमात्र लेखक थे, जिनकी पुस्तक को प्रकाशित होने के पहले ही ब्रिटिश साम्राज्य की सरकारों ने प्रतिबन्धित कर दिया था। वे संसार के पहले ऐसे राजनीतिक कैदी थे, जिनका मामला हेग के अंतर्राष्ट्रीय न्यायालय में चला था।

वे पहले भारतीय राजनीतिक कैदी थे, जिसने एक अछूत को मन्दिर का पुजारी बनाया था। सावरकर ने ही उस पहले भारतीय ध्वज का निर्माण किया था, जिसे जर्मनी में 1907 की अंतर्राष्ट्रीय सोशलिस्ट कांग्रेस में मैडम कामा ने फहराया था। वे प्रथम क्रान्तिकारी थे, जिन पर स्वतंत्र भारत की सरकार ने भी झूठा मुकदमा चलाया और बाद में उनके निर्दोष साबित होने पर उनसे माफी मांगी।

सावरकर ने भारत की वर्तमान सभी राष्ट्रीय सुरक्षा सम्बन्धी समस्याओं को बहुत पहले ही भाँप लिया था। 1962 में चीन द्वारा भारत पर आक्रमण करने के लगभग दस वर्ष पूर्व ही घोषणा कर दिया था कि चीन भारत पर आक्रमण करने वाला है। भारत के स्वतंत्र हो जाने के बाद गोवा की मुक्ति की आवाज सर्वप्रथम सावरकर ने ही उठायी थी। गाय को एक उपयोगी पशु मानने वाले सावरकर ने अपने ग्रंथ हिन्दुत्व में लिखा है कि कोई भी व्यक्ति बगैर वेद में विश्वास किए भी सच्चा हिन्दू हो सकता है। उनके अनुसार केवल जातीय सम्बन्ध या पहचान हिन्दुत्व को परिभाषित नहीं कर सकता है, बल्कि किसी भी राष्ट्र की पहचान के तीन आधार होते हैं-भौगोलिक एकता, जातीय गुण और साझा संस्कृति।

राजनीति, सत्ता, संपत्ति व प्रसिद्घि से दूर स्वातंत्र्यवीर विनायक दामोदर सावरकर स्वतंत्रता सेनानी व हिन्दुत्व के पुरोधा के साथ ही असाधारण समाजसेवी भी थे। करीब डेढ़ दशक कारागार में कठोर सजा झेलने के बाद समाजसेवा के क्षेत्र में वीर सावरकर ने अद्वितीय कार्य किया था। उनके समय में समाज के बहुत सी कुरीतियों और बेड़ियों के बंधनों में जकड़े होने के कारण हिन्दू समाज बहुत ही दुर्बल हो गया था।

अपने भाषणों, लेखों व कृत्यों से इन्होंने समाज सुधार के निरंतर प्रयास किए। उनके सामाजिक उत्थान कार्यक्रम न केवल हिन्दुओं के लिए बल्कि राष्ट्र को समर्पित होते थे। 1924 से 1937 का समय इनके जीवन का समाज सुधार को समर्पित काल रहा। सावरकर के अनुसार हिन्दू समाज सात बेड़ियों में जकड़ा हुआ था- स्पर्शबंदी, रोटी बंदी, बेटी बंदी, व्यवसायबंदी, सिंधुबन्दी, वेदोक्तबंदी, शुद्धि बंदी। निम्न जातियों का स्पर्श निषेध, उनसे खान- पान तक का निषेध, खास जातियों के संग विवाह निषेध, कुछ निश्चित व्यवसाय निषेध, सागरपार यात्रा, व्यवसाय निषेध, वेद के कर्मकाण्डों का एक वर्ग का निषेध, किसी को वापस हिन्दूकरण पर निषेध आदि से तत्कालीन हिन्दू समाज जकड़ा हुआ था।

जिससे दुर्बल हो हिन्दू समाज अपनी प्रतिकार करने की क्षमता खोने लगा था। सावरकर हिन्दू समाज में प्रचलित इस प्रकार के जातिभेद एवं छुआछूत के घोर विरोधी थे। विगत सौ वर्षों में इन बन्धनों से किसी हद तक मुक्ति सावरकर के ही अथक प्रयासों का परिणाम है। अपने विचारों, शब्दों व कृत्यों के जरिये सामाजिक सुधारों के उनके प्रयासों को धार्मिक संकीर्णतावादियों और सरकार की ओर से बड़े विरोधों का सामना करना पड़ा था। इसके बावजूद बेहद कम संसाधनों से उन्होंने अपने प्रयास जारी रखे। सावरकर ने समाज सुधार व तार्किकता से जुड़े अपने विचारों को कलमबद्घ भी किया। उन्होंने 10,000 से अधिक पृष्ठ मराठी भाषा में तथा 1500 से अधिक पृष्ठ अंग्रेजी में लिखा है। मराठी में लिखी उनकी अनेक कविताएँ अत्यन्त लोकप्रिय हैं। स्वातंत्र्यवीर सावरकर की 40 पुस्तकें बाजार में उपलब्ध हैं।

हिन्दी भाषा को राष्ट्रभाषा बनाने के लिए सावरकर सन 1906 से ही प्रयत्नशील थे। लन्दन स्थित भारत भवन (इंडिया हाउस) में संस्था अभिनव भारत के कार्यकर्ता रात्रि को सोने के पूर्व स्वतंत्रता के चार सूत्रीय संकल्पों को दोहराते थे। उसमें चौथा सूत्र होता था -हिन्दी को राष्ट्रभाषा व देवनागरी को राष्ट्रलिपि घोषित करना। अंडमान की सेल्यूलर जेल में रहने के समय भी उन्होंने बन्दियों को शिक्षित करने का काम करते हुए हिन्दी के प्रचार-प्रसार हेतु काफी प्रयास किया। 1911 में कारावास में राजबंदियों को कुछ रियायतें देने का क्रम शुरू हुआ, तो सावरकर ने उसका लाभ राजबंदियों को राष्ट्रभाषा पढ़ाने में लिया। वे सभी राजबंदियों को हिन्दी का शिक्षण लेने के लिए आग्रह करने लगे।

इसका दक्षिण भारत के बंदियों ने विरोध किया, क्योंकि वे उर्दू और हिन्दी को एक ही समझते थे। बंगाली और मराठी भाषी भी हिन्दी के बारे में पर्याप्त जानकारी न होने के कारण कहते थे कि इसमें व्याकरण और साहित्य नहीं के बराबर है। तब सावरकर ने इन सभी आक्षेपों का उत्तर देते हुए हिन्दी साहित्य, व्याकरण, प्रौढ़ता, भविष्य और क्षमता को निर्देशित करते हुए हिन्दी को ही राष्ट्रभाषा के सर्वथा योग्य सिद्ध कर दिया। उन्होंने हिन्दी की कई पुस्तकें जेल में मंगवाकर राजबंदियों की कक्षाएं शुरू कर दीं।

उनका यह भी आग्रह था कि हिन्दी के साथ बांग्ला, मराठी और गुरुमुखी भी सीखी जाए। इस प्रयास के चलते अण्डमान की भयावह कारावास में ज्ञान का दीप जला और वहां हिन्दी पुस्तकों का ग्रंथालय बन गया। कारावास में भाषा सीखने की होड़ सी लग गई थी। कुछ माह बाद राजबंदियों का पत्र-व्यवहार हिन्दी भाषा में ही होने लगा। तब अंग्रेजों को पत्रों की जांच के लिए हिन्दी भाषी मुंशी रखना पड़ा। भाषा शुद्धि का आग्रह धरकर सावरकर ने मराठी भाषा को अनेकों पारिभाषिक शब्द दिये। ऐसे स्वतंत्रता प्रेमी सावरकर ने स्वास्थ्य कारणों से 1 फ़रवरी 1966 को मृत्युपर्यन्त उपवास करने का निर्णय लेकर 26 फरवरी 1966 को मुंबई (बंबई) में भारतीय समयानुसार प्रातः 10 बजे उन्होंने पार्थिव शरीर छोड़कर परमधाम को प्रस्थान किया।

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *