सरस्वती: अंतःप्रेरणा की वाणी
वैदिक मतानुसार सरस्वती सत्यचेतना से निकलकर बहने वाली अंतःप्रेरणा की नदी है। सरस्वती गतिशीला है, गतिमती है। गतिशीलता के आधार पर ही सरस्वती सत्य की बहती हुई धारा की, दिव्य अंतःप्रेरणा की, वाणी की, श्रुति की, स्पष्टतः वाणी की प्रतीक है। सरस होने के कारण परमात्मा की प्रतीक है, जो लोगों के लिए निष्क्रिय ब्रह्म का सक्रिय रूप भी बन जाती है। ऋग्वेद और यजुर्वेद में सरस्वती को अंतःप्रेरणा और ज्ञानादि की समृद्धताओं से परिपूर्ण, ज्ञान- विज्ञान -विचारादि की संपति से ऐश्वर्यवती, सुखमय सत्यों की प्रेरिका, उत्तम बुद्धियों को जगाने वाली, चेतना की बाढ़, ज्ञान सुंदर- ऋतम की व्यापक गति की प्रकाशिका आदि संबोधनों से संज्ञायित किए जाने से स्पष्ट है कि सरस्वती सत्य चेतना से ऋतम् या महः से अद्रेः सानुः से अवरोहण करने वाली अंतःप्रेरणा की धारा है। वह अंतःप्रेरणा की, वाणी की, श्रुति की देवी है। पावकानः सरस्वती (ऋग्वेद 1/3/10) और महो अर्णः सरस्वती (ऋग्वेद 1/3/122) की व्याख्या करते हुए सायण ने सरस्वती का अर्थ माध्यमिका वाक् (वाक) किया है, जिसका अर्थ निरुक्तकारों ने वेदवाणी किया है।
इस तरह सरस्वती वाणी की देवी ही सिद्ध होती है। सरस्वती से संबंधित अनेक ऋग्वैदिक ऋचाएं भी इस बात की पुष्टि करती हैं कि सरस्वती अंतःप्रेरणा अर्थात वाणी की देवी है। सरस्वती हमारी धी यानी प्रज्ञा अर्थात सद सद विवेकिनी बुद्धि की निष्पादिका है। सरस्वती ऋतावरि अर्थात सत्य ज्ञान और सत्य आचरण करने वाली है। यह सरस्वती के वाणी रूप को ही उदभाषित करता है। वेद में सरस्वती के वाणी देवता रूप को और भी प्रतिष्ठित और अग्रसारित करते हुए कहा गया है कि सरस्वती वाणी को नियमित करने वाली देवी है। वेद में सरस्वती को उत्कृष्ट भनवाली मनोयुजा और वाणी (वाचः) देवता आदि असंख्य संबोधनों से संबोधित करते हुए उसे वाकदेवी के रूप में प्रतिष्ठापित, महिमामंडित, प्रार्थित, पूजित व नमित किया गया है।
वर्तमान में सरस्वती की जगव्यापी मान्यता वाग्देवी (वाक देवी) के रूप में है, और यह मान्यता पारंपरीण और सहस्त्राब्दियों पुरानी है, तथापि संसार के प्राचीनतम ग्रंथ ऋग्वेद में सरस्वती और वाक दो भिन्न देवियाँ हैं। ऋग्वेद में वाक स्वतंत्र देवी है। और वाक की स्तुति एक पूरे सूक्त में की गई है। ऋग्वेद 10/125 में वाक सर्वशक्तिमती देवी के रूप में प्रतिष्ठित है, जिसमें उसने अपना परिचय देते हुए स्वयं कहा है- मैं सब देवों में श्रेष्ठ हूँ। मैं रूद्र, वसु, आदित्य एवं विश्वे देवों के साथ विचरण करती हूँ। मित्रावरुण, इन्द्र -अग्नि, अश्विनौ, सोम त्वष्टा आदि देवों को मैं ही धारण करती हूँ। देवों को हवि प्रदान करने वालों एवं सोमाभिषण करने वालों को यज्ञ का फल भी मैं ही प्राप्त कराती हूँ। मैं ही राष्ट्र की अधीश्वरी, चिन्मयी, ज्ञानमयी और देवों में प्रथमा अर्थात श्रेष्ठ हूँ। जो कोई भी अन्न खाता है, सुनता है, सांस लेता है अथवा सूँघता है, वह सब मेरी शक्ति से ही संपन्न होता है। मेरी शक्ति को अस्वीकार करने वाले क्षीणता को प्राप्त करते हैं। देव और मनुष्य जिसका आश्रय प्राप्त करने के इच्छुक हैं, मैं ही उसकी उपदेशिका हूँ। मैं जिसे चाहूं, उसे शक्तिशाली, उत्तम स्तोता, परोक्ष ज्ञान संपन्न, मेघा शक्ति युक्त आदि बना सकती हूँ। ब्रह्मद्वेषी के वध हेतु मैं ही रूद्र को प्रेरित कर उन्हें धनुष चढ़ाने को बाध्य करती हूँ। जगतपिता ब्रह्मा मुझसे ही प्रकटित हैं। ब्रह्म को मैंने ही उत्पन्न किया है। मैं समुद्र में वास करती हूँ एवं वहीं से बढ़ती हूँ। मैं पृथ्वी और आकाश से भी परे हूँ, एवं अपनी महिमा से ही स्वर्ग लोक को स्पर्श करती हूँ।
वाक ही ऋग्वेद 10/71/1, 8/100/10-11 आदि में देवों की रानी और दिव्या कही गई हैं। निघंटु में वाक अन्तरिक्षस्थ देवता कही गई है। यास्क ने वाक को माध्यमिका वाक कहा है-
तस्मान्माध्यमिकां वाचं मन्यते – निरुक्त 11/27
वाक का संबंध गन्धर्वों से भी रहा है। एतरेय ब्राह्मण 1/27 के अनुसार सोम पहले गन्धर्वों के पास था। देवताओं ने उसे स्त्री रूपधारिणी वाक के मूल्य पर खरीदा था। यह प्रसंग किंचित भिन्नता के साथ तैतीरीय संहिता 6/61/16, मैत्रायणी संहित 3/7/3 और शतपथ ब्राह्मण 3/2/4/1 एवं 3/5/1/13 में भी अंकित है। बाद में अग्नि प्रणयन के समय वाक देवों के पास लौट आई थी। विद्वानों के अनुसार माध्यमिका वाक वाग्देवी के मानवीकरण का आरंभ विंदु है। कालांतर में वाक की प्रतिष्ठा जगत की उत्पादिका और सर्वसामर्थ्यशालिनी देवी के रूप में हुई। उत्तरकालीन वैदिक ग्रंथों एवं ब्राह्मण ग्रंथों में इसकी परिणति दो रूपों में हुई। प्रथम, त्वष्टा, विश्वकर्मा आदि अमूर्त देव को वाचस्पति की अभिधा प्राप्त होती है। फिर वाक और त्वष्टा में तादात्म्य स्थापित किया जाता है, और फिर वाक और ब्रह्म (पुराणों के प्रज्ञा) को परस्पर संबंधित किया जाता है। दूसरा, वाक और सरस्वती में एकता अर्थात अभेदता अथवा तादात्म्य – वाक् वै सरस्वती- की घोषणा होती है।
इस क्रम में यजुर्वेद वाजसनेयी संहिता 8/45 में त्वष्टा, विश्वकर्मा आदि अमूर्त देव को वाचस्पति की अभिधा प्राप्त होने का प्रसंग है-
वाचस्पतिं विश्वकर्माणमूतये मनोजुवं वाजे अद्या हुवेम।
-यजुर्वेद वाजसनेयी संहिता 8/45
फिर ऐतरेय ब्राह्मण 2/1/4 में वाक और त्वष्टा में तादात्म्य स्थापित किया गया है-
त्वष्टारन्यजति। वाग्वै त्वष्टा। वाग्हीदं सर्वताष्टि इव। वाचमेव तत प्रीणाति।
– ऐतरेय ब्राह्मण 2/1/4
शतपथ ब्राह्मण में कई स्थानों पर वाग्वैत्वष्टा वाक्य प्रयुक्त हुआ है। और फिर वाक और ब्रह्म (पुराणों के प्रज्ञा) को परस्पर संबंधित किया गया है।अथर्ववेद 10/9/7 में वाक को विराज का पुत्र ब्रह्म कहा गया है। शतपथ ब्राह्मण 13/2/5/3 एवं ऋग्वेद 10/125 वागाम्भृणी सूक्त में भी कहा है। शतपथ ब्राह्मण 3/1/3/22 में प्रजापति को वाक्पति कहा गया है- प्रजापतिर्वै वाक्पतिः। लेकिन ब्राह्मण कालीन ग्रंथों के अनुसार प्रजापति ब्रह्म के प्रतिनिधि हैं, एवं वाक उनकी पुत्री मानी गई है। पुराणों में सरस्वती ब्रह्मा- पुत्री और ब्रह्मा पत्नी भी कही गई है। वाक सरस्वती को ब्रह्मा की पत्नी मानने का पहला संकेत अथर्ववेद 19/1/9/3 में ही मिलता है-
इयं या परमेष्ठिनी वाग्देवी ब्रह्मसंशिता । – अथर्ववेद 19/1/9/3
यहाँ परमेष्ठिनी ब्रह्मा की पत्नी को कहा गया है। अथर्ववेद 9/2/5 में वाक (काम की पुत्री और धेनुरूपा) विराज अर्थात विराट बनती है-
साते काम दुहिता धेनुरुच्यते यामाहुर्वाचं कवयोविराजम् । – अथर्ववेद 9/2/5
इसके बाद दूसरे क्रम में वाक और सरस्वती में एकता, अभेदता व तादात्म्य की स्पष्ट झलक शतपथ ब्राह्मण 1/1/14/6, 3/9/1/7, 5/2/2/4 एवं 5/3/5/8, तांडय ब्राह्मण 16/5/16, ऐतरेय ब्राह्मण 3/1/10, 3/2, 3/3, 6/2/3, कृष्ण यजुर्वेद 1/1/77, कौशितकि ब्राह्मण 5/2, 14/5 और सांख्यायन ब्राह्मण 5/7 में मिलती है। वाक और सरस्वती का प्रथम संबंध स्थापन यजुर्वेद 19/12 में वाचा सरस्वती भिषगिन्द्रा येद्रिन्याणि दधतः। कहकर दिखाया गया है, जो ब्राह्मण ग्रंथों में वाक वै सरस्वती में पूर्णता को प्राप्त करती है। तैतीरिय संहिता 1/8/19 में सरस्वती सत्यवाक भी कही गई है। सरस्वती संबंधी वैदिक ऋचाओं और उत्तर कालीन ब्राह्मण ग्रंथों के उल्लेख में पर्याप्त अंतर दिखाई देता है। ब्राह्मण ग्रंथों में सरस्वती के वाक रूप की विशेषता को सर्वाधिक स्थान एवं महत्व प्राप्त है। वाक से सरस्वती का पूर्ण तादात्म्य स्थापित करते हुए वाक के अधीश्वर ब्रह्म अर्थात ब्रह्मा या प्रजापति को सरस्वती के पति के रूप में दर्शाया गया है।
महाकाव्यों एवं पुराणादि ग्रंथों में सरस्वती के वाग्देवी रूप- वाक सरस्वती का ही विस्तार एवं महत्व प्रदान किया गया है। प्रजापति ब्रह्मा से सरस्वती के संबंधों- पुत्री एवं पत्नी, का भी पौराणिक आख्यानों में विस्तृत उल्लेख अंकित है। वाल्मीकि रामायण 7/10/40, 43 में सरस्वती पद्मसंभवा एवं वाग्देवी कही गई है। महाभारत शांति पर्व 3/8/6 एवं 14 में वेदानां मातरम् और ब्रह्मसुता देवी के साथ वाग्भूता स्वरव्यंजनभूषिता और सत्यरूप भी कहा गया है। इस प्रकार महाकाव्यों में सरस्वती की महिमा और प्रतिष्ठा का विस्तृत वर्णन करते हुए इन्हें पद्मासना, ब्रह्मसुता एवं वाग्देवी के रूप में अंकित किया गया है।
सरस्वती के देवी रूप का वर्णन दशाधिक पुराणों में अंकित हैं, जिनमें मार्कण्डेय और वामन पुराण सर्वाधिक महत्व के हैं। इनके पश्चात मत्स्य पुराण का स्थान है। भागवत पुराण, लैंग पुराण, वराह पुराण, कूर्म पुराण, अग्नि पुराण, पद्म पुराण, स्कन्द पुराण, भविष्य पुराण, ब्रह्मवैवर्त पुराण, शिव पुराण, गरुड पुराण आदि ग्रंथों में भी सरस्वती संबंधी विवरणी उपलब्ध हैं। देवी भागवत, वृहधर्म, वृहन्नारदीय, कालिका, विष्णु धर्मोत्तर आदि उपपुराणों एवं तंत्रसार, शारदातिलक, कालीविलास, प्रपंचसार, प्राणतोषिणी, साधनमाला, महानिर्वाण आदि तंत्र शस्त्रों में भी सरस्वती संबंधी वर्णन अंकित हैं।