संघ को मोदी का विकल्प चाहिए

‘वरिष्ठ पत्रकार सत्य तारीक’
इसमें कोई दो राय नहीं है कि नरेन्द्र मोदी भारतीय जनता पार्टी के उम्मीदवार स्वयं या अपनी योग्यता से नहीं बल्कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की पसंद होने के कारण बने। भले ही यह संभव है इसमें जीत सकने की उनकी योग्यता ही देखी गई हो। इससे पहले, गुजरात के मुख्यमंत्री के रूप में उनका कार्यकाल राजधर्म निभाने की अटल बिहारी वाजपेयी की सलाह के साथ संघ परिवार की जानकारी में था और उन्हें इसके बावजूद प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार बनाया गया। कहने की जरूरत नहीं है कि कम से कम नीतिश कुमार ने इसका विरोध किया था पर उनकी दाल नहीं गली। इस तरह, बहुत साफ है कि बहुत अच्छा रिकार्ड नहीं होने के बावजूद संघ परिवार ने नरेन्द्र मोदी को प्रधानमंत्री पद का अपना उम्मीदवार बनाया।

चुनाव जीतने या कुर्सी हासिल करने के लिए उन्होंने जो सब किया वह किसी से छिपा नहीं है और उसमें झूठ का योगदान भी कम नहीं है। कहने की जरूरत नहीं है कि संघ परिवार ने ना इसका विरोध किया और ना उन्हें कोई संकेत-निर्देश दिया। अगर संघ या परिवार के स्तर पर अघोषित रूप से कुछ कहा गया हो तो वह सार्वजनिक नहीं है और इसलिए मानना पड़ेगा कि उन्होंने जो भी किया उसे संघ परिवार का समर्थन था। इसमें जीएसटी के लिए यू-टर्न और नोटबंदी शामिल है। नोटबंदी की असलफलता से ज्यादा आपत्तिजनक उसे लागू करने का तरीका था। वैसे तो जीएसटी पर यू-टर्न अपने आप में कम महत्वपूर्ण नहीं है। पर संभव है, संघ परिवार के लिए उसका फायदा-नुकसान समझना मुश्किल हो या उसे फायदे समझा दिये गए हों। पर देश के लिए नोटबंदी तो बाकायदा त्रासदी थी। पर संघ परिवार ने ना सरकार की निन्दा की ना जनता से सहानुभूति में कुछ कहा ।

इन सब और ऐसी तमाम बातों से एक राजनीतिक पार्टी और तमाम संगठन चलाने वाले संघ परिवार की कमजोरी के साथ-साथ चयन पर भी सवाल उठता है और परिवार ने हर मौके पर चुप्पी साधकर अपना और अपने संगठनों का भविष्य खराब किया। मेरा मानना है कि अब जब नरेन्द्र मोदी की कमजोरियां या अक्षमताएं या अयोग्य अथवा असफल कार्यशैली जगजाहिर है तो संघ चाहता है कि 2024 के लिए प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार बदल दे। और यह कार्य उन्हीं के बनाये मार्गदर्शक मंडल में डालकर आसानी से किया जा सकता है। इससे एक संगठन के रूप में उसके पास योग्य लोगों की उपलब्धता के साथ-साथ उसकी सक्रियता का भी पता चलेगा और संभव है यह रणनीति आगे के लिए फायदेमंद रहे पर भाजपा ऐसा करती हुई नजर नहीं आ रही है । जबकि देश में पहली बार गैर कांग्रेसी बहुमत की सरकार का प्रदर्शन आगे गैर कांग्रेसी सरकार के चुनाव के लिहाज से बहुत महत्वपूर्ण है।

कहने की जरूरत नहीं है कि सरकार के पास चुनाव लड़ने और अपनी तारीफ के लिए अपना काम नहीं है । 10 साल सरकार में रहने के बाद भी उसे कांग्रेस की आलोचना का ही सहारा लेना पड़ रहा है और उसमें भी दम नहीं है। मणिपुर में जो हुआ या किया गया वह गुजरात से बुरा है। गुजरात में भले ज्यादा लोग मरे पर बदनामी कम हुई, मणिपुर में कम लोग मरे और बदनामी ज्यादा हुई है स्थिति को संभालने में पूरा परिवार नाकाम रहा है। मणिपुर के साथ दूसरे राज्यों को जोड़ना बहुत ही फूहड़ रहा पर हालत यह है कि मणिपुर पर कार्रवाई करने के लिए कहने वाले मुख्य न्यायाधीश को भी ट्रोल किया जा रहा है। मतलब मणिपुर में शासन नहीं, ढाई महीने से ज्यादा हिंसा जारी रहना, रोकने की कोई कोशिश नहीं, कोई दौरा नहीं, कोई बयान नहीं और बयान की मांग पर भी सन्नाटा। संसद में चर्चा की मांग पर अलग नैरेटिव बनाने की कोशिश और यह सब उसी काठ ही हांडी को फिर से चढ़ाने जैसा लग रहा है।

कुल मिलाकर यह साफ हो चुका है कि प्रधानमंत्री या गुजरात के मुख्यमंत्री हिंसा की स्थिति में सुरक्षाकर्मियों को काम करने से रोकने के लिए ही उपयुक्त हैं। ना उनकी टीम सक्षम है और ना सब मिलकर टीम के रूप में काम करते या काम करते दिखते हैं। ऐसे में भाजपा और उसके साथ पूरे संघ परिवार की कांग्रेस के बहुत ही कमजोर विकल्प के रूप में छवि बन रही है और यह भविष्य के लिए नुकसानदेह है इसका असली नुकसान देश के लोकतंत्र को भी होगा। यह स्पष्ट हो चला है कि भाजपा इस बार भी जीत गई तो अगली बार या तो चुनाव नहीं होंगे या उसका प्रदर्शन और खराब होगा। दोनों स्थितियों में उसका भविष्य और खराब होगा। इसलिए भाजपा के समर्थक और देश में लोकतंत्र के समर्थक भी चाहेंगे कि भाजपा इस बार हार जाए । ताकि फिर चुनाव जीतने लायक बन सके वरना भारत गैर कांग्रेसी विकल्प के बिना हो जाएगा और देश की हालत वही हो जाएगी जो मजबूत विपक्ष के बिना कांग्रेस और मिली-जुली सरकारों के समय में रही है। दूसरी ओर, लगता नहीं है कि संघ परिवार को इन बातों की चिन्ता या समझ है।

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