सबका साथ, सबको आरक्षण की रेवड़ी!
आर्थिक रूप से पिछड़े सवर्णों के लिए 10 फीसदी आरक्षण की व्यवस्था जारी रखने के सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद आरक्षण की बहस एक बार फिर तेज हो गई है। हालांकि देश की ज्यादातर पार्टियों ने इसका समर्थन किया है और सुप्रीम कोर्ट के फैसले का स्वागत किया है। जनवरी 2019 में जब आर्थिक रूप से पिछड़े यानी ईडब्लुएस श्रेणी के सवर्णों को 10 फीसदी आरक्षण देने के लिए संविधान में 103वें संशोधन का बिल संसद में आया था तब डीएमके, राजद और एमआईएम को छोड़ कर सबने बिल का समर्थन किया था। तभी हैरानी नहीं है कि ज्यादातर पार्टियों ने सुप्रीम कोर्ट के फैसले का स्वागत किया है। डीएमके, वीसीके जैसी पार्टियां अपवाद हैं, जिन्होंने इसका विरोध किया है और इसे सामाजिक न्याय की अवधारणा के खिलाफ बताया है। पर उनका विरोध व्यावहारिक रूप से कोई मतलब नहीं रखता है। देश के दलितों, आदिवासियों और पिछड़ों को मिलने वाले आरक्षण की तरह गरीब सवर्णों का आरक्षण भी संवैधानिक व्यवस्था का हिस्सा बन गया है।
सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले के बाद कुछ चीजें स्पष्ट हो गई हैं और उन्हें स्वीकार कर लिया जाना चाहिए। अदालत ने हिचकते हुए ही सही लेकिन जाति आधारित आरक्षण की व्यवस्था को स्वीकार कर लिया है। इसलिए देश को भी इसे मान लेना चाहिए। इसमें मीन-मेख निकालने वालों को ध्यान रखना चाहिए कि जिस तरह से शासन की कई खराब व्यवस्थाओं में सबसे कम खराब व्यवस्था लोकतंत्र की है वैसे ही शैक्षणिक, सामाजिक और अब आर्थिक रूप से भी पिछड़े लोगों के साथ हुए ऐतिहासिक अन्याय को दूर करने और उनके लिए एफर्मेटिव एक्शन सुनिश्चित करने के लिए कई खराब व्यवस्थाओं में से सबसे कम खराब व्यवस्था आरक्षण की है। इसलिए जाति आधारित आरक्षण जारी रहेगा।
दूसरी बात यह साफ हो गई है कि आरक्षण की 50 फीसदी की सीमा समाप्त हो गई है। इंदिरा साहनी केस में नौ जजों की बेंच ने आरक्षण की अधिकतम सीमा 50 फीसदी तय की थी। तभी यह सवाल भी उठ रहा है कि पांच जजों की बेंच ने कैसे नौ जजों की बेंच का फैसला पलट दिया। लेकिन असल में फैसला पलटा नहीं गया है। नौ जजों की बेंच ने ही यह रास्ता छोड़ा था कि असाधारण स्थितियों में आरक्षण की सीमा बढ़ाई जा सकती है। उसी आधार पर पांच जजों की बेंच ने फैसला किया है। सो, अब चाहे मराठा आरक्षण हो या दूसरी किसी जाति को आरक्षण देने का मामला हो, 50 फीसदी की सीमा उसके रास्ते की बाधा नहीं बनेगी। तीसरी बात यह साफ हो गई है कि आर्थिक पिछड़ापन भी आरक्षण का आधार बना रहेगा। संविधान के मुताबिक आरक्षण की व्यवस्था सिर्फ सामाजिक व शैक्षणिक रूप से पिछड़ों के लिए ही की गई थी।
इन प्रस्थापनाओं के बाद बड़ा सवाल है कि इससे क्या हासिल होगा? क्या आरक्षण की व्यवस्था का विस्तार कर देने से वह लक्ष्य हासिल हो जाएगा, जो आजादी के बाद पिछले 75 साल में नहीं हासिल हो सका है? इसका जवाब बहुत सरल है। आरक्षण की मौजूदा व्यवस्था में अगर बदलाव नहीं होता है, उस पर वैज्ञानिक तरीके से विचार नहीं किया जाता है, सरकारी कंपनियों की बिक्री नहीं रूकती है और निजी सेक्टर में आरक्षण की व्यवस्था नहीं लागू होती है तो इससे कोई लक्ष्य हासिल नहीं होगा। इसे समझने के लिए कई तथ्य दिए जा सकते हैं लेकिन संसद में इसी साल दिया गया एक आंकड़ा आरक्षण की मौजूदा व्यवस्था की हकीकत बताता है। इस साल पांच अप्रैल को संसद के बजट सत्र के दौरान केंद्रीय सामाजिक न्याय व अधिकारिता मंत्री प्रतिमा भौमिक ने संसद को बताया कि गरीब सवर्णों के लिए आरक्षण की व्यवस्था लागू होने के बाद पहले दो साल में यानी 2019 और 2020 में केंद्र सरकार में 132 लोग इस आरक्षण के तहत बहाल हुए। सोचें, सिर्फ 132 लोग! मंत्री ने बताया कि 2021 का आंकड़ा उपलब्ध नहीं है और राज्यों में कितने लोग इस योजना के तहत बहाल हुए हैं उसका भी आंकड़ा नहीं है। सबसे दिलचस्प बात जो उन्होंने बताई वह ये है कि दो सालों में इस योजना को लागू करने के लिए केंद्र सरकार ने अलग अलग मंत्रालयों को 4,315 करोड़ रुपए आवंटित किए। इस तरह हजारों करोड़ रुपए खर्च के बाद सवर्णों को 132 नौकरियों की रेवड़ी मिली।
असल में अभी सरकार का यही मकसद दिख रहा है। सबको साथ लेने के लिए सबको रेवड़ी बांटनी है। भले उससे देश का या व्यापक समाज का भला न हो लेकिन उससे एक धारणा बनेगी, जिसका राजनीतिक लाभ मिल जाएगा। अगर सरकार आरक्षण के जरिए सचमुच देश के सबसे पिछड़े व वंचित समूहों का भला करने के लिए गंभीर होती तो वह सबसे पहले जाति आधारित जनगणना कराती। नागरिकों की सामाजिक व आर्थिक स्थितियों का पता लगाती ताकि उन लोगों की पहचान हो सके, जिनको सचमुच एफर्मेटिव एक्शन की जरूरत है। सरकार गंभीर होती तो वह जस्टिस जी रोहिणी आयोग की बातों पर ध्यान देती। हालांकि 2017 में बने इस आयोग की अंतिम रिपोर्ट नहीं आई है। लेकिन इसने बताया था कि ओबीसी को आरक्षण के तहत मिलने वाली 97 फीसदी नौकरियां इस समूह की 25 फीसदी जातियों को मिलती हैं। आयोग के मुताबिक ओबीसी की 983 उपजातियां ऐसी हैं, जिन्हें कोई नौकरी नहीं मिली है। सोचें, यह कितना बड़ा अन्याय है! क्या इसे तत्काल ठीक करने की जरूरत नहीं है?
इसी तरह 2019 में केंद्रीय शिक्षा मंत्रालय ने एक बिल तैयार किया था, जिसमें निजी यूनिवर्सिटी और कॉलेजों में दाखिले में आरक्षण की व्यवस्था का प्रावधान किया गया था। बिल तैयार होने के बाद इसे कानून मंत्रालय की राय के लिए भेजा गया था लेकिन अभी तक न वह राय मिली है और न बिल संसद में लाया गया है। ऐसा इस तथ्य के बावजूद है कि उच्च शिक्षा में 65 फीसदी छात्र निजी संस्थानों में पढ़ रहे हैं। अगर सरकार सचमुच गंभीर होती तो वह आरक्षण की व्यवस्था का विस्तार निजी क्षेत्र में करती। ध्यान रहे मौजूदा केंद्र सरकार बार बार कह रही है कि ‘बिजनेस करना सरकार का बिजनेस नहीं होता है’ और इस सिद्धांत के आधार पर वह सारे सार्वजनिक उपक्रमों को बेच रही है या अपनी नौकरियों में मेरिट के नाम पर आरक्षण के प्रावधानों का उल्लंघन करके बहाली कर रही है तो उसे तत्काल आरक्षण की व्यवस्था का विस्तार निजी सेक्टर तक करना चाहिए। लेकिन वह ऐसा नहीं कर रही है।
पिछले ही महीने केंद्र सरकार ने सुप्रीम कोर्ट के रिटायर चीफ जस्टिस केजी बालाकृष्णन की अध्यक्षता में एक आयोग का गठन किया है, जो धर्म परिवर्तन करके ईसाई या मुसलमान बनने वाले दलितों को आरक्षण की सुविधा देने के मामले पर विचार करेगा। ध्यान रहे अभी तक यह सुविधा हिंदू, सिख या बौद्ध दलितों को ही हासिल है। पिछले दिनों प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने हैदराबाद में अपनी पार्टी की कार्यकारिणी में नेताओं से कहा कि वे पसमांदा यानी पिछड़े मुसलमानों को बीच जाएं और उनके उत्थान के लिए काम करें। सो, चाहे गरीब सवर्णों को आरक्षण का मामला हो या ईसाई व मुसलमान दलितों के आरक्षण पर विचार करना हो या पसमांदा मुस्लिमों के लिए कुछ करने की बात हो, इन सबका मकसद सबका साथ और सबको रेवड़ी बांटना है। इससे वास्तविक अर्थों में कुछ हासिल नहीं होता है और न सचमुच के जरूरतमंदों का भला होता है।