राजस्थान विधानसभा चुनाव : किसी भी दल के लिए 101 का आँकड़ा पाना मुश्किल

जयपुर। अब जब चुनाव में नाम वापसी की तिथि जा चुकी है और शेष बचे उम्मीदवारों को उनके चुनाव चिन्ह भी मिल गए हैं। इसलिए राजस्थान में चुनाव की स्थिति साफ होने लगी है। इससे यह भी स्पष्ट हो गया है कि आगामी 25 नवंबर को होने वाले चुनाव आर-पार के चुनाव नहीं हैं। यह बहुत फंसा हुआ चुनाव है और उंट किसी भी करवट बैठ सकता है। भाजपा का पूर्ण बहुमत का दावा जमीन पर उतना प्रभावी नहीं दिख रहा है, जितना दावा किया जा रहा है। कांग्रेस की वापसी भी उतनी आसान नहीं लग रही है, जितनी मेहनत अशोक गहलोत सहित सचिन पायलट कर रहे हैं।

बीते वर्षों में हुए चुनाव किसी ना किसी मुद्दे पर केन्द्रित रहे हैं, लेकिन यह चुनाव ऐसा अनोखा चुनाव है, जिसमें कोई भी मुद्दा जनमानस के बीच में नहीं है। ना अशोक गहलोत की मुफ़्त योजनाएं मतदाताओं को लुभा रही हैं, ना ही भाजपा का सामूहिक नेतृत्व मतदाताओं को समझ आ रहा है। तो कुल मिलाकर यह चुनाव मुद्दों और पार्टियों की बजाय अच्छे और सच्चे उम्मीदवारों के चयन का चुनाव है। कोई भी उम्मीदवार सिर्फ पार्टी का समर्थन मिलने मात्र से विजय के निकट पहुंच गया है, यह कहना अब बेमानी है।

भारतीय जनता पार्टी ने एक प्रयोग के तहत अपने सात सांसदों योगी बालकनाथ, दीयाकुमारी, राज्यवर्धन राठौड, नरेन्द्र खींचड़, डा किरोडी लाल मीणा, देवजी पटेल और भागीरथ चौधरी को विधानसभा चुनाव में उतारा है। लेकिन, स्थिति यह है कि एकमात्र दीया कुमारी और नरेन्द्र खींचड़ को छोड़कर बाकी सांसदों को भयंकर विरोध का सामना करना पड़ा और अभी भी स्थिति सहज नहीं हुई है।

पहली बार देखने में आया है कि नामांकन से पहले उम्मीदवारों के समर्थन में हजारों लोगों का रैला उनके समर्थन में उमड़ा। ऐसा लगने लगा कि उस विधानसभा क्षेत्र में चुनाव सिर्फ औपचारिकता है, जनता ने अपना विधायक पहले से ही चुन रखा है। लेकिन, प्रतिद्वंदी उम्मीदवार ने भी उतना ही जनसमर्थन दिखाकर मुकाबले का रौचक बना दिया है। इन चुनावों में कोई विकास, हिन्दुत्व या राष्ट्रीय मुद्धों की बात नहीं कर रहा, सिर्फ जातियां और स्थानीय समीकरण ही चुनाव का भविष्य तय करने वाले हैं।

इस चुनाव का रोचक तथ्य यह है कि यह चुनाव राजनीतिक कार्यकर्ताओं को यह अवसर प्रदान कर रहा है कि वे अपनी पार्टी के नेताओं को बता सकें कि पार्टी के नेताओं की पसंद और कार्यकर्ताओं की पसंद के बीच कितना फासला बढ़ गया है। पार्टियां अपनी प्राथमिकताओं और पसंद के आधार पर टिकट तो किसी को भी दे सकती हैं, लेकिन कार्यकर्ता उसे स्वीकार ही करेंगें यह आवश्यक नहीं है। इस बात का अनकहा उद्घोष यह भी है कि कार्यकर्ता अब अनुशासन के डंडे से भयमुक्त हो चुका है।

प्रत्याशियों के नामांकन में उमड़ रही भीड़ इन चुनावों को रोमांचक कर रही है। इन जनसमूहों को देखकर यह कहना मुश्किल है कि जिस उम्मीदवार के पक्ष में लोग जुट रहे हैं वो उसके मतदाता ही हैं। यदि इस भीड़ को उम्मीदवार की जीत का पैमाना मानें तो ऐसा संदेश आ रहा है कि भाजपा और कांग्रेस दोनों ही राजनीतिक दल 101 का जादुई अंक नहीं छू पायेंगें और सरकार बनाने की चाबी निर्दलियों और छोटी पार्टियों के पास रहेगी।

हालांकि चुनाव से पहले मुख्यमंत्री गहलोत यह कहते रहते थे कि जनता में उनके प्रति नाराजगी नहीं है, बल्कि उनके विधायकों के प्रति है। लेकिन वे भी अपने ज्यादातर विधायकों को टिकट देने के लिए बाध्य हुए। यही हाल भाजपा का रहा, ना जाने कितने ही सर्वे भाजपा ने अलग अलग स्तर पर कराए, लेकिन जिनको उम्मीदवार बनाया उनके बारे में चर्चा तक नहीं थी, सर्वे में नाम आने की बात तो बहुत दूर रह जाती है।
यही एक मात्र कारण है कि भाजपा में तो कम से कम कार्यकर्ताओं और नेतृत्व के बीच में गहरी खाई दिख रही है। भाजपा उसको कितना पाट पाएगी, यह तो समय ही बता पाएगा। भाजपा इस अंतर को जितना कम करेगी, उतना ही वो सरकार बनाने के निकट पहुंचेगी।

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