आधे पड़ाव के बाद राहुल और कांग्रेस!
कांग्रेस की भारत जोड़ो यात्रा का क्या हासिल है? राहुल गांधी के नेतृतव में चल रही यह यात्रा आधा पड़ाव पार चुकी है। अभी तक यात्रा छह राज्यों से गुजरी है और 18 सौ किलोमीटर की दूरी तय कर चुकी है। सो, अब यह आकलन करने का पर्याप्त आधार है कि इस यात्रा से कांग्रेस पार्टी और निजी तौर पर राहुल गांधी को क्या हासिल हुआ है? क्या यह यात्रा कांग्रेस के खाते में वोट जोड़ने में कामयाब हुई है? इन सवालों का सीधा जवाब संभव नहीं है क्योंकि यह यात्रा सिर्फ वोट की राजनीति के लिए नहीं है। कांग्रेस बार बार इस बात पर जोर दे रही है कि यात्रा का मकसद सिर्फ राजनीतिक नहीं है।
जब से राहुल गांधी ने महाराष्ट्र के वासिम और बुलढाणा में विनायक दामोदर सावरकर पर टिप्पणी की और कांग्रेस को राजनीतिक नुकसान का अंदेशा हुआ तब से कांग्रेस नेताओं ने एक अलग लाइन पकड़ी है। उन्होंने कहना शुरू किया है कि संगठन का काम अब पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे संभालेंगे और राहुल गांधी कांग्रेस की विचारधारा का प्रतिनिधित्व करेंगे।
कांग्रेस नेता इतने पर नहीं रूके हैं। उन्होंने यह भी कहना शुरू किया कि राहुल गांधी कांग्रेस की सर्वोच्च नैतिक सत्ता बन रहे हैं, वैसे ही जैसे किसी समय महात्मा गांधी थे। महात्मा गांधी जब कांग्रेस के प्राथमिक सदस्य भी नहीं थे तब भी उनकी सत्ता सर्वोच्च थी। सो, इस पदयात्रा के जरिए राहुल को कांग्रेस की विचारधारा का सच्चा प्रतिनिधि और पार्टी संगठन से ऊपर एक सर्वोच्च नैतिक ताकत के तौर पर स्थापित होने का विमर्श खड़ा किया गया है। राहुल गांधी इस यात्रा में उसी तरह का आचरण भी कर रहे हैं और उसी तरह की बातें भी कर रहे हैं। वे छोटी बच्चियों से लेकर युवतियों और उम्रदराज महिलाओं के कंधे पर हाथ रख कर वैसे ही सहज तरीके से पैदल चल रहे हैं, जैसे महात्मा गांधी चलते थे। बूढ़े लोग उनकी यात्रा में साथ चल रहे हैं तो शारीरिक रूप से कम सक्षम लोग भी कांग्रेस का झंडा उठा कर उनकी यात्रा में शामिल हो रहे हैं। राहुल की दाढ़ी बढ़ी है और यात्रा में उनको तमाम तरह की सांसारिकता से परे दिखाया जा रहा है।
इसी तरह से राहुल गांधी पार्टी के लिए राजनीतिक लाभ-हानि की चिंता छोड़ कर वैचारिक प्रतिबद्धता पर ज्यादा ध्यान दे रहे हैं। अगर ऐसा नहीं होता तो वे महाराष्ट्र की सरजमीं पर बैठ कर वहां के एक आईकॉन विनायक दामोदर सावरकर पर टिप्पणी नहीं करते। उन्होंने सावरकर को डरा हुआ और अंग्रेजों का मददगार कहा। इस पर विवाद चल ही रहा था कि उन्होंने यात्रा में शामिल हुईं सामाजिक कार्यकर्ता मेधा पाटकर के कंधे पर हाथ रख कर उनके साथ आत्मीयता दिखाई। उनको पता था कि मेधा पाटकर के साथ चलने को गुजरात चुनाव में बड़ा मुद्दा बनाया जा सकता है। लेकिन उन्होंने इसकी परवाह नहीं की।
सोचें, खुद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी लगातार मेधा पाटकर का मुद्दा बना रहे हैं और उनको गुजरात व गुजरातियों का दुश्मन बता कर अस्मिता की राजनीति कर रहे हैं। इसके बावजूद कांग्रेस ने कोई सफाई नहीं दी, उलटे राहुल गांधी गुजरात पहुंचे तो उन्होंने आदिवासियों के साथ अपनी पार्टी और परिवार का गहरा जुड़ाव बताया। ध्यान रहे मेधा पाटकर ने आदिवासियों और गरीबों के विस्थापन का ही मुद्दा बना कर सरदार सरोवर परियोजना का विरोध किया था।
बहरहाल, भारत जोड़ो यात्रा के आधे पड़ाव के बाद यह कहा जा सकता है कि राहुल गांधी ने निजी तौर पर एक निश्चित मुकाम हासिल कर लिया है। अब उनको ‘अनिच्छुक राजनेता’ नहीं कहा जा सकता है और न ‘पप्पू’ बताया जा सकता है। उन्होंने एक गंभीर और प्रतिबद्ध नेता की छवि बनाई है। उन्होंने सात प्रेस कांफ्रेंस किए हैं और अलग अलग राज्यों में अलग अलग भाषाओं के पत्रकारों के सवालों के जवाब दिए हैं। यह मामूली बात नहीं है। हर राज्य की अपनी समस्याएं हैं और अपनी विशिष्ट राजनीति है। प्रेस कांफ्रेंस में उनसे जुड़े सवालों के राहुल ने बहुत सहज जवाब दिए। इससे वे एक अलग लीग के नेता के तौर पर स्थापित होते हैं। निश्चित रूप से यात्रा ने उनके बेहतर राजनेता और बेहतर इंसान बनाया है।
लेकिन क्या इससे कांग्रेस पार्टी को भी उसी तरह का फायदा हो रहा है, जैसा उनको निजी तौर पर हुआ है? क्या कांग्रेस इस यात्रा के जरिए वोट जोड़ पा रही है? इन सवालों का जवाब आसान नहीं है। क्योंकि इस तरह की यात्राएं तात्कालिक लाभ देने वाली नहीं होती हैं। याद करें लालकृष्ण आडवाणी की सोमनाथ से अयोध्या की यात्रा या मुरली मनोहर जोशी की श्रीनगर के लाल चौक तक की तिरंगा यात्रा कितने बरसों के बाद फलीभूत हुई थी! राहुल गांधी की यात्रा से कांग्रेस के अंदर एक ऊर्जा का संचार हुआ है। कांग्रेस की यात्रा जिन राज्यों से गुजरी है वहां प्रदेश संगठन में जान लौटी है। थके हारे कार्यकर्ताओं में जोश आया है और उम्मीद बंधी हैं। पार्टी के अंदर चलने वाली गुटबाजी कुछ हद तक थमी है। इसका असर आने वाले समय में देखने को मिल सकता है। लेकिन वह तब होगा, जब कांग्रेस इस यात्रा से बने जोश और उत्साह को कायम रख सके। अगर कांग्रेस यात्रा से बने मोमेंटम को बनाए रखने में कामयाब होती है तो उसे निश्चित रूप से फायदा होगा।
जहां तक कांग्रेस के खाते में वोट जोड़ने की बात है तो उसका भी पता आगे आने वाले चुनावों के नतीजों से चलेगा। राहुल ने वैचारिक प्रतिबद्धता की वजह से जो बयान दिया है तात्कालिक रूप से उसका नुकसान होता दिख रह है। सावरकर के बयान से महाराष्ट्र में गठबंधन टूटने की कगार पर पहुंच गया था तो मेधा पाटकर के साथ यात्रा करने से गुजरात में वोट का नुकसान संभव है। लेकिन वैचारिक प्रतिबद्धता अंत में वोट का फायदा भी करा सकती है। ध्यान रहे किसी भी योजना या अभियान की सफलता के लिए सबसे पहले एक सुसंगत विचार की जरूरत होती है। संभव है कि सावरकर पर हमला और मेधा पाटकर के साथ यात्रा एक सुसंगत विचार हो, जिससे कांग्रेस अपना पुराना वोट आधार हासिल करने की उम्मीद कर रही हो। वह सिर्फ राजनीतिक रूप से ही नहीं, बल्कि वैचारिक रूप से अल्पसंख्यकों, आदिवासियों, पिछड़ों, दलितों और वंचितों के करीब दिखने का प्रयास कर रही है। आगे होने वाले चुनावों के नतीजों से पता चलेगा कि कांग्रेस इसमें कितना कामयाब हो पाई है। अभी सिर्फ इतना कहा जा सकता है कि आधे पड़ाव के बाद कांग्रेस और राहुल गांधी दोनों पहले से बेहतर स्थिति में हैं।