नब्ज तो ठीक पकड़ी है
कांग्रेस की महंगाई पर हल्ला बोल रैली में राहुल गांधी ने जो भाषण दिया, उससे फिर जाहिर हुआ कि वे उन चंद राजनेताओं में हैं, जो आज की भारत की पॉलिटिकल इकॉनमी के चरित्र को ठोस ढंग से समझते हैं। इस समझ को कुछ समय पहले उन्होंने ‘हम दो, हमारे दो’- के जुमले में व्यक्त किया। इस बार उन्होंने ये महत्त्वपूर्ण बात जोड़ी कि नफरत वही करते हैं, जो डरते हैं। इसलिए देश में डर का माहौल बनाया गया है, ताकि लोग आपस में नफरत करें और देश की असली समस्याओं से उनका ध्यान हटा रहा। तमाम संस्थानों पर सत्ताधारी पार्टी के कब्जे की बात वे पहले भी करते रहे हैं। इस बार उन्होंने अपनी ये बात अधिक आक्रामक अंदाज में रखी। इस कब्जे के बीच जो रास्ता उन्होंने सोचा है, उसकी प्रासंगकिता से भी इनकार नहीं किया जा सकता- यानी अब सीधे जनता के बीच जाना। बुधवार से राहुल गांधी इसी रास्ते में कदम रखेंगे। ये सफर कितना लंबा, कितना मुश्किल और कितना जोखिम भरा होगा, इसका अभी पूरा अंदाजा नहीं लगाया जा सकता है।
लेकिन एक प्रश्न इस मौके पर जरूर उठता है। वो यह कि जनता के बीच नफरत छोड़ने का संदेश लेकर जाना तो ठीक है, लेकिन ‘हम दो हमारे दो’ की पॉलिटिकल इकॉनमी का आखिर क्या विकल्प राहुल गांधी के पास है? आखिर जब वे इस राजनीतिक अर्थतंत्र की बात करेंगे, तो लोग यह पूछेंगे ही कि इसका मुकाबला करने के लिए कांग्रेस के पास क्या सोच और रणनीति है? कहा जाता है कि अक्सर ऐसी समझ और विकल्प प्रयोग के दौरान उभरते हैं। ऐसी मिसालों से इतिहास भरा-पड़ा है। इसलिए ये सवाल उठाने का मतलब राहुल गांधी की यात्रा की प्रासंगकिता पर प्रश्न उठाना नहीं है। बल्कि इसके पीछे मकसद उन्हें और उनकी पार्टी को आगाह करना है कि अगर विकल्पों पर सोचने की दृष्टि उन्होंने नहीं दिखाई और पुराने दौर को वापस लाने या कुछ बचाने के नाम तक उन्होंने इस अभियान को सीमित रखा, तो इससे वे अपेक्षाएं पूरी नहीं होंगी, जिसे लेकर वे 3,500 किलोमीटर की लंबी पैदल यात्रा शुरू करने जा रहे हैं।