भारत में शिक्षा और परीक्षा की समस्याएं

दिल्ली विश्वविद्यालय के वाइस चांसलर ने कहा है कि देश के इस सबसे प्रतिष्ठित विश्वविद्यालय में अकादमिक सत्र दो हफ्ते आगे बढ़ गया है क्योंकि केंद्रीय विश्वविद्यालयों में दाखिले के लिए होने वाली अखिल भारतीय परीक्षा यानी सेंट्रल यूनिवर्सिटी एंट्रेस टेस्ट, सीयूईटी के नतीजे नहीं आएं हैं। पहले से तय कैलेंडर के मुताबिक 30 जून तक नतीजे आ जाने थे। लेकिन सीयूईटी की परीक्षा का आयोजन करने वाली नेशनल टेस्टिंग एजेंसी यानी एनटीए ने 30 जून तक आंसर की भी जारी नहीं किए। आंसर की जारी होने के बाद कम से कम 10 दिन का समय लगता है अंतिम नतीजे आने में। एनटीए ने आंसर की तो जारी कर दी है लेकिन नतीजे का इंतजार अब भी हो रहा है ताकि केंद्रीय विश्वविद्यालयों में दाखिले की शुरुआत हो सके। दाखिला होने के बाद ही तो अकादमिक सत्र शुरू होगा!

इस बीच देश के एक दूसरे अंतरराष्ट्रीय स्तर पर ख्याति प्राप्त विश्वविद्यालय जेएनयू ने स्नात्तकोत्तर यानी पीजी में दाखिले के लिए अपनी परीक्षा अलग कराने पर विचार शुरू कर दिया है। इसका मतलब है कि एनटीए पर से उसका भरोसा डोल गया है और उसको लग रहा है कि अगर एनटीए के भरोसे रहे तो उसका भी अकादमिक सत्र धीरे धीरे पिछड़ता जाएगा। तीसरी खबर यह है कि विश्वविद्यालयों में लेक्चरर की पात्रता तय करने के लिए होने वाली यूजीसी नेट की परीक्षा अगस्त के महीने में होगी। यह परीक्षा 18 जून को हुई थी और पेपर लीक की आशंका के चलते 19 जून को परीक्षा रद्द कर दी गई थी।

परीक्षा रद्द करते ही इसकी जांच सीबीआई को सौंप दी गई, जिसने बताया है कि इसका पेपर लीक नहीं हुआ था। किसी छात्र शरारतपूर्ण तरीके से एक फर्जी पेपर सोशल मीडिया में डाल दिया, जिसे एनटीए ने असली समझ कर परीक्षा रद्द कर दी। सोचें, एनटीए ने सोशल मीडिया में वायरल पेपर का यूजीसी नेट के असली पेपर से मिलान करने की जरुरत भी नहीं समझी। उसे भारत सरकार की एक एजेंसी से सूचना मिली की पेपर ऑनलाइन उपलब्ध है और उसने परीक्षा रद्द कर दी! यह अलग बात है कि नीट यूजी की परीक्षा के पेपर लीक की पुष्टि होने के बाद भी एनटीए ने उस परीक्षा को रद्द नहीं किया है और सुप्रीम कोर्ट में जी तोड़ प्रयास किया कि परीक्षा रद्द नहीं हो। दोनों परीक्षाओं के प्रति उसके अलग अलग रवैए का कारण समझना मुश्किल है।

बहरहाल, प्रवेश और प्रतियोगिता परीक्षाओं की इन गड़बड़ियों और शिक्षा व्यवस्था पर पड़ते इनके प्रभाव को लेकर सहज रूप से पूरे देश में चिंता है। सरकार ने ‘एक देश, एक परीक्षा’ और ‘एक देश, एक शिक्षा’ की नीति के चक्कर में सबको मुश्किल में डाला है। ऐसा लग रहा है कि सरकार एक देश, एक सब कुछ से ऑबसेस्ड है। ‘एक देश, एक चुनाव’, ‘एक देश, एक टैक्स’, ‘एक देश, एक कानून’ आदि इसी का नतीजा हैं। यह सब कुछ बिना ये सोचे हो रहा है कि भारत किसी यूरोपीय या अफ्रीकी या लैटिन अमेरिकी देश की तरह का देश नहीं है, जहां पूरी आबादी एक तरह की है और जहां एक तरह की शिक्षा, संस्कृति, भाषा, खान-पान, पहनावा प्रचलित है। भारत एक विशाल देश है, जिसमें असीमित विविधताएं हैं। यहां एक देश, एक सब कुछ का ऑब्सेशन नुकसान पहुंचाने वाला साबित हो सकता है। यह बात परीक्षा और शिक्षा दोनों के मामले में भी सही है। यहां आबादी 140 करोड़ है और एक परीक्षा में इतने लोग शामिल होते हैं, जितनी कई देशों की आबादी होती है। इसलिए इतनी बड़ी परीक्षाएं एक साथ आयोजित करने की जिद सरकार को छोड़ देनी चाहिए। मेडिकल, इंजीनियरिंग से लेकर विश्वविद्यालयों में दाखिले की जिम्मेदारी राज्यों पर छोड़नी चाहिए।

राज्यवार परीक्षाएं होंगी तो उनके आयोजन की जिम्मेदारी राज्यों के ऊपर होगी। दूसरे, उनमें एक बार में कम छात्र शामिल होंगे और गड़बड़ी होने पर उनका असर भी सीमित होगा। तीसरे राज्य अपनी जरुरत के हिसाब से चयन करेंगे। केंद्र सरकार को केंद्रीय एजेंसियों के जरिए सिर्फ अखिल भारतीय सेवाओं में बहाली की परीक्षाएं ही आयोजित करनी चाहिए। सिर्फ नीट यूजी की परीक्षा, जिस पैमाने पर हुई उससे समझा जा सकता है कि केंद्रीकृत परीक्षा व्यवस्था बनाने से कितनी मुश्किलें हैं। इस एक परीक्षा में 24 लाख छात्र शामिल हुए और एक बार में 4,750 परीक्षा केंद्रों पर परीक्षा का आयोजन किया गया। इतनी बड़ी परीक्षा आयोजित करना किसी भी एजेंसी के लिए बहुत मुश्किल काम है। इतने परीक्षा केंद्रों पर प्रश्न पत्र पहुंचाना, परीक्षा के बाद आंसर शीट को संभालना, उसकी देखभाल करना और यह सुनिश्चित करना कि न पेपर लीक हो और न परीक्षा के बाद आंसर शीट में कोई छेड़छाड़ हो, मुश्किल काम है। इसमें हमेशा किसी न किसी किस्म की गड़बड़ी की आशंका बनी रहेगी।

बहरहाल, परीक्षा की व्यवस्था को केंद्रीकृत करने का क्या नुकसान है यह नेशनल टेस्टिंग एजेंसी यानी एनटीए और नेशनल रिक्रूटमेंट एजेंसी यानी एनआरए की विफलता से प्रमाणित है। इस साल एनटीए की चार परीक्षाएं सवालों के घेरे में हैं, जिनमें से एक रद्द हो गई, दो की तारीख बढ़ी और एक का मामला कोर्ट में पेंडिंग है। इस संस्था को 14 लोगों की एक ऐसी टीम चला रही है, जिसके सभी अधिकारी अलग अलग विभागों से डेपुटेशन पर आए हैं। इस एजेंसी ने परीक्षा से जुड़ा सारा काम आउटसोर्स किया है। यानी ठेके पर काम कराया जा रहा है। जहां तक राष्ट्रीय भर्ती एजेंसी यानी एनआरए का मामला है तो यह एजेंसी चार साल से टेकऑफ ही नहीं कर पाई है। चार साल पहले इसका गठन हुआ था और अभी तक इस पर 58 करोड़ रुपए खर्च हो चुके हैं लेकिन इस एजेंसी ने एक भी परीक्षा नहीं कराई है। 2020 में बनी इस एजेंसी को पहला टेस्ट 2021 में कराना था लेकिन 2024 तक यह एजेंसी एक भी परीक्षा आयोजित नहीं कर पाई है।

इस बीच सरकारी भर्ती करने वाली तीन एजेंसियों स्टाफ सेलेक्शन कमीशन यानी एसएससी, रेलवे रिक्रूटमेंट बोर्ड यानी आरआरबी और इंस्टीच्यूट ऑफ बैंकिंग पर्सनल सेलेक्शन यानी आईबीपीएस ने कहा है कि वे अपनी अलग परीक्षाएं आयोजित करते रहेंगे। सोचें, अगर एक केंद्रीकृत परीक्षा होती है और ऊपर से इन तीन एजेंसियों की परीक्षा भी होती है तो कितना कंफ्यूजन होगा? सरकार अगर एक देश, एक परीक्षा की जिद छोड़ दे तो सारे कंफ्यूजन से मुक्ति मिल सकती है। सरकार को यह समझ लेना चाहिए कि पूरे देश में और हर तरह की पढ़ाई या नौकरी के लिए एक परीक्षा नहीं हो सकती है। सारी नौकरियों के लिए एक परीक्षा से पात्रता तय नहीं की जा सकती है और न सारे विश्वविद्यालयों में दाखिले के लिए एक परीक्षा से पात्रता तय करनी चाहिए और न भारत जैसी बड़े व विशाल आबादी वाले देश में सारी प्रतियोगिता परीक्षाओं के आयोजन का जिम्मा किसी एक एजेंसी को दिया जा सकता है। अगर सरकार इस जिद पर अड़ी रही तो हर साल परीक्षाओं में अखिल भारतीय स्तर पर समस्या आती रहेगा।

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