राजस्थान को जातियों में झोंकने की तैयारी

जयपुर। इस साल होने वाले चुनावों में राजस्थान को फिर जातियों में झोंकने की तैयारी की जा रही है। चंद नेता अपने सियासी लालच में हर बार की तरह इस बार जातियों के कंधे पर सियासत की सीढ़ी चढ़ना चाहते हैं।

सच यह है कि राजस्थान में कभी कोई सीएम जाति के आधार पर तय नहीं हुआ। अगर जाति के आधार पर ही सीएम तय होता तो सैनी और माली समाज को आंदोलन नहीं करना पड़ता। जाति ही आधार होती तो वसुंधरा राजे सरकार में राजपूतों को भी अपने हकों के लिए सड़कों पर नहीं आना पड़ता। जाति ही आधार होती तो स्व. मोहनलाल सुखाड़िया कभी मुख्यमंत्री नहीं बन पाते।

बहरहाल इस साल की चुनावों की तैयारी में राजस्थान में ब्राह्मण महासभा, जाट, राजपूत, वैश्य गुर्जर समाज की सभाएं और महासम्मेलन हो चुके है। भाजपा में सीपी जोशी को प्रदेशाध्यक्ष बनाए जाने का श्रेय भी ब्राह्मण समाज दिया गया जबकि ऐसा कतई नहीं है।

पार्टी में अपने हिसाब से समीकरण बनते और बिगड़ते हैं। आज भी कई ब्राह्मण नेता भाजपा में हाशिये पर हैं। इसी तरह कांग्रेस में भी कई जातियों के नेताओं से पार्टी ने ही किनारा कर लिया है। अगर जाति ही सियासत में इतना मजबूत फैक्टर होती तो कांग्रेस को सचिन पायलट के मामले में निर्णय लेने में इतना वक्त नहीं लगता।

पहले हरियाणा से और अब राजस्थान में पूर्व नेता प्रतिपक्ष एवं कृषि उद्योग विकास बोर्ड के अध्यक्ष रामेश्वर डूडी ने जाट सीएम और जातिगत जनगणना करवाने की मांग उठाई है। जाट नेता हनुमान बेनीवाल भी यह मांग उठा चुके हैं। जाट सीएम बनाने की मांग इतनी पुरानी है तो फिर पिछले 20 साल में हुए विधानसभा चुनावों में जाति के फैक्टर ने कितना काम किया, यह सबके सामने हैं।

जाति समाज के नेताओं की मांग उठाना वाजिब हो सकती है, लेकिन क्या जाति और समाज के लोग इस राय से सहम हैं, इसका पता तो चुनावों परिणामों के जरिये चलता आया है और आने वाले चुनावों में भी सामने आ जाएगा। हां यह बात सच है कि कुछ नेताओं का जाति और समाज में अपना अलग प्रभाव होता है, लेकिन यह जरूरी नहीं कि वो सिर्फ अपनी जाति के वोट पाकर जीत जाए।

राजस्थान भले ही जातियों में बंटा हुआ है, लेकिन यहां की परंपरा 36 कौम साथ रहने की है और सब मिलकर ही तय करते हैं कि चुनाव परिणाम क्या रहने वाले हैं।

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