जनता को एकदम बेवकूफ समझने का राजनीति!

गजब विरोधाभासों से भरी राजनीति है यह! एक तरफ हिन्दु देवी देवताओं को न मानने की शपथ दिलाने वाले आम्बेडकर की तस्वीर है, दूसरी तरफ घोषित नास्तिक भगत सिंह की। और उसके बीच में बैठकर अरविन्द केजरीवाल मांग कर रहे हैं कि नोटों पर गणेश और लक्ष्मी की तस्वीरें छापी जाएं। मतलब जनता को एकदम बेवकूफ समझने का राजनीति।

लेकिन क्या करें पिछले आठ साल से यही राजनीति चल रही है। और जनता इसी तरह नए नए करतबों पर रीझकर वोट भी दे रही है। मगर हां यह पहली बार है जब किसी ने मोदी जी की ही पिच पर उन्हें इतनी टफ चुनौति दी हो। केजरीवाल ने मोदी जी से मांग की है कि वे प्रधानमंत्री है और धर्म के बड़े रक्षक हैं। अब अर्थव्यवस्था की रक्षा के लिए गणेश जी लक्ष्मी के फोटो को नोटों पर छापें। वैसे हम तो अपनी तरफ से यही शुक्र मना रहे हैं कि केजरीवाल ने हनुमान जी का नाम नहीं लिया। वे खुद को हनुमान जी का परम भक्त कहते हैं। नोटों पर उनके चित्र की मांग भी कर सकते थे। मगर शुक्र है कि उन्होंने धन संपत्ति की देवी लक्ष्मी जी को ही चुना। साथ ही विध्नहरण गणेश जी को।

खैर जब वे आधिकारिक रुप से राष्ट्रपिता गांधी जी की तस्वीर हटा सकते हैं तो कुछ भी कर सकते हैं। जब मोदी जी ने नोटबंदी की थी। और रंगबिरंगे अलग अलग मूल्यों के नए नोट छापे थे तो यह चर्चा थी कि अब उन पर किनके चित्र होंगे या नहीं भी होंगे। मगर मोदी जी ने दो सौ के दो हजार के नए नोट जरूर छापे मगर चित्र के मामले में यथास्थिति रहने दी। गांधी जी के खिलाफ देश भर में माहौल खूब बनाया गया। गाली गलौज के स्तर तक। गोडसे का महिमामंडन हुआ। भाजपा के लोगों ने किया। मगर नोटों पर गांधी जी बने रहे। फिलहाल तो केजरीवाल ने कहा है कि एक तरफ गांधी जी की तस्वीर रहने दी जाए। मगर जैसे अपने पीछे उन्होने गांधीजी को दीवार से हटा दिया वैसे ही अगर उनका शासन आए तो फिर नोटों पर रहेगा या नहीं?

तो केजरीवाल ने सिर्फ गुजरात चुनाव के लिए नहीं बल्कि 2024 के लिए भी यह साफ मैसेज दे दिया है कि अगर वास्तव में गांधी विरोधी हो तो मेरे साथ आओ। इस राजनीति में केजरीवाल कितने आगे जाएंगे कहना मुश्किल है। वे रोज नया कारनामा दिखा रहे हैं। फिलहाल देखने में ऐसा लगता कि यह मोदी जी के लिए टफ फाइट है। मगर वास्तव में यह देश के लिए एक मुश्किल समस्या बन सकती है।

दो बातें हमें याद रखना पड़ेंगी। एक ब्रिटेन में लोकतंत्र की वह खूबसुरती जो धर्म, रंग, नस्ल से बहुत उपर है और भावनाओं नहीं यथार्थ के धरातल पर काम करती है। एक भारतीय मूल के व्यक्ति को अपना प्रधानमंत्री बनाने में जरा भी नहीं हिचकती। दूसरे पड़ोसी देश पाकिस्तान की वह धर्म आधारित राजनीति जिसने उस देश को कहीं का नहीं छोड़ा। और अगर कोई कहे कि मजहब के लिए तो वहां मजहब भी नहीं है। मजहब या धर्म या रिलिजन अपने आप में अकेला, स्वयंभू, सेल्फ सफिशेयन्ट नहीं रह सकता। उसे अपने लिए व्यक्ति चाहिए। और अच्छे लोग। अगर सारा शिराजा ही बिखर जाए तो धर्म वहां क्या करेगा? तो पाकिस्तान की हालत आज न खुदा ही मिला न विसाले सनम वाली हो गई है। वे दीन के रहे न दुनिया के। दीन मतलब धर्म।

तो मोदी जी के बाद केजरीवाल जिस धार्मिक पिच पर देश को ले जा रहे हैं। वहां क्या होगा कहना मुश्किल है। नेहरू ने काम धंधे, खेती रोजगार, शिक्षा, बड़े बांध, कारखानों के जरिए देश में समृद्धि लाने का काम किया। केजरीवाल नोटों पर धार्मिक चित्रों के जरिए लाएंगे।

इससे पहले मोदी जी पकौड़े बेचने और कब्रिस्तान, श्मशान की राजनीति से देश को आगे बढ़ाने के गुर बता चुके हैं। देश कहां जाएगा! यह जनता को सोचना है। उसमें सोचने समझने की शक्ति अभी बची हुई है। बंगाल में 2021 में और उससे पहले बिहार में 2020 और 2015 में उसने विवेक दिखाया है। 2018 में एक साथ तीन हिन्दी प्रदेशों राजस्थान, छत्तीसगढ़, मध्यप्रदेश में उसने भाजपा को हराया। 2014 के बाद कई करिश्मे होते रहे हैं। मगर यह है कि उनमें निरंतरता नहीं है। जनता विपक्ष के साथ तो आती है। मगर फिर विपक्ष खुद बिखरने लगता है। 2015 में बिहार, अभी महाराष्ट्र में शिवसेना का टूटना, मध्यप्रदेश, गोवा में कांग्रेस की टूट, राजस्थान में लगातार जारी गुटबाजी यह सब उसे भ्रमित कर जाता है।

नेहरू ने जनचेतना बढ़ाने पर सबसे ज्यादा जोर दिया था। इसलिए उनका प्रमुख नारा था अफवाहें देश की दुश्मन है। अफवाहबाज समझ गए कि यह नाऱा उन्हें एक्सपोज कर देगा। तो उन्होंने नेहरू देश का दुश्मन है प्रचारित करना शुरू कर दिया। कांग्रेस इससे नहीं लड़ सकी। लड़ना तो दूर उसके बड़े नेता समाजवादी बैकग्राउन्ड के इस नारे को और विस्तार देते हुए कहने लगे- गूंजे धरती नभ पाताल, हमारे नहीं जवाहर लाल! वे कहते थे हम ( हमसे मतलब कांग्रेस) नेहरुवादी नहीं। कांग्रेस से नेहरू को खत्म करने का मतलब कांग्रेस की आत्मा खत्म करना है। नेहरू वैज्ञानिक चेतना की बात करते थे। साइंटिफिक टेंपर उनके विश्व विख्यात भाषण ट्रिस्ट विद डेस्टिनी ( नियति से साक्षात्कार) का केन्द्रीय तत्व था।

कांग्रेस के कुछ नेताओं से लेकर भाजपा और अन्य कई दल नेहरू की समाजवादी, वैज्ञानिक, धर्मनिरपेक्ष और आम जनता की तरफ झुकी हुई विचारधारा को हमेशा अपने हितों के खिलाफ मानते रहे। इसलिए आज भी जब नेहरू के निधन को 58 साल से उपर हो गए है उनका वैसा ही विरोध है। बल्कि जब से मोदी जी आए हैं। रोज बढ़ता ही जा रहा है। उनके कबूतर छोड़ने तक पर कटाक्ष हो रहे हैं। लेकिन विरोध करने वाले यह भूल जाते हैं कि नेहरू में कोई एक गुण या विशेषता नहीं थी। वे तो बहुआयामी थे। कबूतर तो एक शांति का प्रतीक है जो वह दुनिया तक पहुंचाना चाहते थे और दुनिया उनकी इस शांति, प्रेम, सद्भाव की इज्जत करती थी। नेहरू का काम बोलता था। इसीलिए अभी ब्रिटेन के पहले अश्वेत और वह भी भारतीय मूल के प्रधानमंत्री बनने वाले रिशी सुनक ने कहा कि मैं शब्दों से नहीं काम से देश को जोडूंगा।

देश से मतलब उनका अपने देश से हैं। ब्रिटेन से। जहां वे प्रधानमंत्री बन रहे हैं। जोड़ना इस समय की दुनिया की सबसे बड़ी जरूरत है। टूटना हर तरफ हो रहा है। विभाजन का सोच बढ़ रहा है। राहुल गांधी भी जोड़ने में ही लगे हुए हैं। यह दिलचस्प समय है। एक तरफ नफरत और विभाजन की राजनीति है। धार्मिक प्रतीकों के जरिए देश में समृद्धि लाने के उपाय बताए जा रहे हैं। लोगों की रोजमर्रा की जिन्दगी, रोजी रोटी की समस्याओं से उनका ध्यान हटाया जा रहा है।

प्रधानमंत्री मोदी और केजरीवाल दोनों देश को उग्र धार्मिक राजनीति की तरफ ले जाना चाहते हैं। परिणामों की उन्हें चिन्ता नहीं है। उन्हें अगर बस फिक्र है तो एक ही कि राहुल को किस तरह रोकें। कांग्रेस नेहरू गांधी परिवार के नेतृत्व से मुक्त हो गई है। मगर राहुल की जो भारत जोड़ो यात्रा है वह वास्तव में सफल होती दिख रही है। हर एक प्रदेश में दूसरे से ज्यादा भीड़ आ रही है। हजारों हजार लोग रोज राहुल के साथ पैदल चल रहे हैं। यह मोदी और केजरीवाल दोनो के लिए सबसे बड़ी चुनौति है। जिसका तोड़ उनके पास धर्म की राजनीति के सिवा और कुछ भी नहीं है।

देखना दिलचस्प होगा कि केजरीवाल की मांग पर क्या प्रतिक्रियाएं आती हैं। खुद उनके शासित राज्य पंजाब में लोग क्या कहते हैं। औवेसी इस पर बोलकर इसे हवा तो नहीं देते हैं। मुसलमानों को इस पर बिल्कुल नहीं बोलना चाहिए। इस तरह के मुद्दे उन्हें बहस में खींचने के लिए लाए जाते हैं। ओवेसी अगर भाजपा चाहती है तो हवा देते हैं। और इससे ध्रुवीकरण की राजनीति चल पड़ती है। मगर चुनावों में अब मुसलमानों ने ओवेसी को दरकिनार करना शुरू कर दिया है। यह नोटों का मुद्दा भी ऐसा है, जो विशुद्ध राजनीति का मामला है। मुसलमानों को इसमें पड़ने के बदले अपने काम धंधे, पढ़ाई, लिखाई और शांत बने रहने पर ही ध्यान देना होगा। मोदी और केजरीवाल को लड़ने दें। धर्म के मामले में बिल्कुल बोले ही नहीं। देखिएगा जल्दी ही बहुसंख्यक हिन्दु समुदाय ही दोनों को सबक सिखाएगा। ये नौटकियां ज्यादा समय तक चलने वाली नहीं हैं।

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