अखाड़ा न बन जाए इस बार संसद

लोकसभा चुनाव, 2024 के जनादेश की एक बड़ी सटीक व्याख्या यह हो रही है कि इस बार मतदाताओं ने ऐसा जनादेश दिया है कि हारने वाला जीत की भावना से भरा है और जश्न मना रहा है तो जीतने वाल हार की फीलिंग लिए हुए है और बैकफुट पर है। कांग्रेस के नेतृत्व वाले गठबंधन ‘इंडिया’ को बहुमत नहीं मिला है। गठबंधन की सबसे बड़ी पार्टी कांग्रेस ने 99 सीटें जीती हैं और समूचे गठबंधन को कुल 204 सीटें मिली हैं यानी बहुमत से 68 सीट कम है। दूसरी ओर भाजपा के नेतृत्व वाले एनडीए को पूर्ण बहुमत मिला है। भाजपा को अकेले 240 सीटें मिली हैं और एनडीए को 293 सीटें मिली हैं, जो बहुमत के जादुई आंकड़े से 21 ज्यादा है।

हां, यह जरूर है कि भाजपा की अपनी सीटें, जिसे 370 तक ले जाने का दम भरा था प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने वह 303 से घट कर 240 रह गई। भाजपा को 63 सीटों का नुकसान हुआ है। इसी आधार पर विपक्ष दावा कर रहा है कि नरेंद्र मोदी प्रधानमंत्री बनने का नैतिक अधिकार खो चुके हैं। हालांकि पिछले 40 साल में यानी 1984 के चुनाव के बाद मोदी के अलावा कोई दूसरा नेता 240 या उससे ज्यादा सीट लेकर प्रधानमंत्री नहीं बना है। 1984 के बाद कांग्रेस को सबसे ज्यादा सीटें 1991 में मिली थीं। उसने 232 सीटें जीती थीं, जिसके सहारे पीवी नरसिंह राव प्रधानमंत्री बने थे। उसके बाद एक बार 145 और दूसरी बार 206 सीटों के साथ कांग्रेस के मनमोहन सिंह प्रधानमंत्री बने थे।

लेकिन राजनीति आंकड़ों या सही तथ्यों के आधार पर नहीं चलती है। वह झूठ और मिथ्या धारणा के आधार पर चलती है। सो, विपक्ष का दावा है कि मोदी हार चुके हैं और उनको सरकार बनाने का नैतिक अधिकार नहीं है। इस दावे के साथ ही विपक्ष ने यह धारणा बनाई है और कई विपक्षी नेता तो सचमुच मानने भी लगे हैं कि उनकी जीत हुई है। सो, कह सकते हैं कि इस बार लोकसभा में दो जीते हुए पक्ष बैठे हैं। एक सत्तापक्ष है, जिसके पास बहुमत है और दूसरा विपक्ष है, जिसके पास बहुमत नहीं है लेकिन पिछली बार के मुकाबले लगभग दोगुनी सीटें हैं और उसी आधार पर वह अपने को जीता हुआ मान रहा है।

विपक्ष अपने को इतना जीता हुआ मान रहा है कि कांग्रेस के एक दिग्गज नेता और विचारक पी चिदंबरम ने अंग्रेजी के एक अखबार में लेख लिख कर कहा है कि सरकार को कांग्रेस पार्टी के घोषणापत्र के हिसाब से काम करना चाहिए। उन्होंने कांग्रेस के घोषणापत्र की उन बातों का जिक्र भी किया है, जिसके हिसाब से सरकार के काम करने की वे इच्छा रखते हैं।

बहरहाल, विपक्ष ने जनादेश को लेकर जो धारणा बनाई है उसकी वजह से विपक्ष के नेताओं में एक किस्म की आक्रामकता आ गई है। वे सचमुच यह मानने लगे हैं कि मतदाताओं ने भाजपा और नरेंद्र मोदी को हरा दिया है और अब विपक्ष की बारी है कि वह संसद के अंदर सरकार को हरा दे या उसे स्थायी रूप से दबाव में रखे। तभी प्रोटेम स्पीकर को लेकर विपक्ष ने इतना बड़ा वितंडा खड़ा किया। जीते हुए सांसदों को कौन शपथ दिलाएगा, यह क्या विवाद का विषय हो सकता है? क्या प्रोटेम स्पीकर के हाथ में यह अधिकार होता है कि वह जिसे चाहे शपथ दिला सकता है या जैसे चाहे वैसे सदन का संचालन कर सकता है? हकीकत यह है कि प्रोटेम स्पीकर के पास कोई अधिकार नहीं होता है।

उसे सिर्फ चुने गए सदस्यों को शपथ दिलानी होती है। इसलिए सात बार चुना हुआ सांसद शपथ दिला रहा है या आठ बार जीता हुआ सांसद शपथ दिला रहा है, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता है। लेकिन संसदीय परंपरा के आधार पर कांग्रेस ने इसे बड़ा मुद्दा बना दिया। हालांकि कांग्रेस के नेता भी मानते हैं कि लंबे समय तक बीजू जनता दल में रहे भ्रतृहरि महताब अच्छे नेता हैं और बेहतरीन सांसदों में से एक हैं। लेकिन वे सात बार जीते हैं और कोडिकुन्निल सुरेश आठ बार जीते हैं तो कांग्रेस ने इसे मुद्दा बनाया है कि सुरेश को प्रोटेम स्पीकर बनाया जाना चाहिए। यह अलग बात है कि कांग्रेस ने खुद ही कभी कोडिकुन्निल सुरेश की वरिष्ठता का सम्मान नहीं किया। पिछली लोकसभा में वे सातवीं बार जीत कर आए थे लेकिन कांग्रेस ने पांच बार जीते अधीर रंजन चौधरी को सदन में पार्टी का नेता बनाया। सुरेश ने अधीर रंजन के नीचे उप नेता के तौर पर काम किया। लेकिन अब कांग्रेस ने मुद्दा बना दिया है कि सुरेश दलित हैं इसलिए उनको नहीं बनाया गया।

प्रोटेम स्पीकर के पद को लेकर विपक्ष ने जैसा विवाद खड़ा किया उससे साफ हो गया है कि विपक्ष इस बार पहले दिन से टकराव के मूड में है। नई मिली ताकत के दम पर विपक्ष हर मसले पर सरकार को झुकाने की राजनीति करेगा। कांग्रेस नेता राहुल गांधी ने चुनाव नतीजों के तुरंत बाद प्रेस कांफ्रेंस करके आरोप लगाया था कि एक्जिट पोल के अनुमानों के जरिए शेयर बाजार में बड़ा खेल हुआ है। उन्होंने इसमें घोटाले के आरोप लगाते हुए कहा था कि संसद में विपक्ष इस पर संयुक्त संसदीय समिति की जांच की मांग करेगा। जब एक पत्रकार ने उनसे पूछा कि संयुक्त संसदीय समिति की जांच की मांग पर सदन में गतिरोध बनेगा और कामकाज ठप्प होगा, जिससे जनता के पैसे की बरबादी होगी तो राहुल गांधी ने उस महिला पत्रकार को भाजपा का एजेंट ठहरा दिया था। इससे राहुल गांधी के मिजाज का अंदाजा लगता है। वे शेयर बाजार के कथित घोटाले पर टकराव के लिए तैयार हैं।

उनकी उस प्रेस कांफ्रेंस के बाद नेशनल टेस्टिंग एजेंसी यानी एनटीए द्वारा आयोजित की जाने वाली प्रतियोगिता और प्रवेश परीक्षाओं में एक के बाद एक कई गड़बड़ियां सामने आई हैं। इसमें मेडिकल में दाखिले के लिए हुई नीट यूजी की परीक्षा सबसे अहम है। इसमें पेपर लीक से लेकर परीक्षा में धांधली तक की खबरें हैं। इसके अलावा यूजीसी नेट की परीक्षा में प्रश्नपत्र लीक होने की वजह रद्द हुई। नीट पीजी, सीएसआईआर यूजीसी की परीक्षा भी रद्द हो चुकी है। विपक्ष इसे संसद के पहले सत्र में ही बड़ा मुद्दा बनाएगा। सरकार को जवाबदेह ठहराने के लिए विपक्ष को संसद बाधित करने में भी परेशानी नहीं है। आखिर भाजपा के ही अरुण जेटली ने इस सिद्धांत पर बड़ा जोर दिया था कि गतिरोध भी संसदीय कार्यवाही का हिस्सा है।

तीसरा मुद्दा तीन आपराधिक कानूनों का है। इसे पिछले साल शीतकालीन सत्र में पास किया गया था। तब विपक्ष ने इस पर सवाल उठाया था लेकिन यह बड़ा मुद्दा नहीं बन पाया था। संसद के बाहर भी विपक्ष ने इसे मुद्दा नहीं बनाया। चुनाव प्रचार में कहीं इसका जिक्र सुनने को नहीं मिला। लेकिन इस बार चुनाव में जब विपक्ष की ताकत बढ़ गई है तो उसने इस पर भी संसद में सवाल उठाने और इस पर अमल रोकने के लिए दबाव बनाने का फैसला किया है। इसमें कोई संदेह नहीं है कि सरकार ने जो कानून बनाया है उसमें बहुत कमियां हैं। सिर्फ प्रधानमंत्री का नाम इतिहास में दर्ज कराने के लिए अंग्रेजों के जमाने के कानून बदले गए हैं।

हालांकि इसमें 80 फीसदी कानूनी प्रावधान पुराने ही हैं। तीन कानूनों के सिर्फ नाम बदले गए हैं और कुछ कानूनों की धाराएं बदल दी गई हैं। इसमें जितने संबंधित पक्ष हो सकते हैं उनसे राय मशविरा भी नहीं किया गया था। लेकिन विपक्ष इस वजह से इनका विरोध नहीं कर रहा है। अगर इस वजह से विरोध करना होता तो पहले से विरोध चल रहा होता। विपक्ष इस वजह से विरोध कर रहा है कि अब उसके पास ताकत आ गई है। उसका विरोध सैद्धांतिक कम है और ताकत का प्रदर्शन ज्यादा है। तभी इस बात का अंदेशा है कि संसद इस बार हर मसले पर पक्ष और विपक्ष के बीच लड़ाई का अखाड़ा बन कर न रह जाए।

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