विपक्ष सिर्फ 2024 पर फोकस कर एकजुट हो!
राजनीतिक समझ का असल इम्तहान तेलंगाना में है। वहां मुख्यमंत्री केसीआर खुलकर मोदी के विरोध में हैं। पेंच यह है कि तेलगांना में सीधा मुकाबला सत्तारुढ़ केसीआर से कांग्रेस का है। तो आपस में लडेंगे या समझदारी दिखाएंगे? यहीं अक्ल का और राजनीति का खेल है। जिसमें इन्दिरा गांधी माहिर थी। सो इसमें कांग्रेस के नए अध्यक्ष खडगे कैसे रास्ता निकालते हैं? नीतीश और बाकी विपक्षी नेता कितनी सकारात्मक भूमिका अदाकरते हैं? यह सब देखना दिलचस्प होगा। राजनीति में क्या संभव नहीं है!लक्ष्य बस 2024 होना चाहिए। अर्जुन की तरह चिड़िया की आंख के अलावा और कुछ नहीं दिखना चाहिए।
कांग्रेस थोड़ी सोई हुई पार्टी है। इसलिए कह नहीं सकते कि कर्नाटक से आ रही जीत की खुशबू को वह सही ढंग से महसूस कर पा रही है या नहीं। मगर विपक्ष के नेताओं को यह खुशबू खूब अच्छी तरह आ गई है। या इसे यूं भी कह सकते हैं कि वहां भाजपा की खराब स्थिति की खबर उसने सही ढंग से पहचान ली है।
कांग्रेस अभी भी थोड़ी शंका की बात करती है। यह सावधानी नहीं उसका हिला हुआ आत्मविश्वास है। जैसे क्रिकेट में लगातार हारती टीम किसी जीतते हुए मैच को भी निराश मानसिकता के साथ खेलती है कुछ वैसे ही। जीत के बाद उसे यकीन भी देर से आता है। और आत्मविश्वास दो चार और मैच जीतने के बाद। आज कांग्रेस की हालत वही है। लगातार हार ने उसका शिराजा बिखेर दिया है।
2014 से हार ही हार रही है। बीच में कुछ जीत मिलीं मगर उसका उपयोग उसने खुद के सुधार के लिए नहीं किया। बल्कि जीत को वापस नुकसान में बदल दिया। राजस्थान अपने आप में सबसे बड़ा उदाहरण है। जहां चार साल से ज्यादा हो गए है मगर कांग्रेस वहां गुटबाजी पर नियंत्रण नहीं कर पाई। हर बार ऐसा आभास दिया कि अब सोनिया गांधी कुछ करने वाली हैं। राहुल करने वाले हैं। मामला प्रियंका के पास है वे करेंगी। नए बने अध्यक्ष खडगे करेंगे। मगर ढाक के वही तीन पात। चुनाव सिर पर आ गए। और अनुशासनहीनता, गुटबाजी भी बिल्कुल बेलगाम स्थिति में। मध्यप्रदेश में पार्टी की गुटबाजी को ही नियंत्रित न कर पाने के कारण सरकार गई। और छत्तीसगढ़ में यह समस्या जब तब सिर उठाती
ही रहती है।
अब इसके बरअक्स एक उदाहरण भाजपा का। वहां हरियाणा में उन्होंने एक अनाम नेता खट्टर को लाकर डाला। नौ साल हो गए। क्या मजाल कि कोई असंतुष्ट गतिविधि हो जाए। कांग्रेस इसे अपनी उदारता और आन्तरिक लोकतंत्र में आस्था के तौर पर लेती है। मगर यह कमजोरी है। बड़े बड़े शब्दों का इस्तेमाल करने से फैसला नहीं ले पाने की कमजोरी ताकत नहीं बन जाती। दो-तीन विकेट लगातार जल्दी-जल्दी गिरने से हताश कप्तान कहता है कोई भी चले जाओ। मगर हिम्मती कैप्टन कहता है तुम नहीं तुम जाओ। राजनीति हो या क्रिकेट हर चीज आत्मविश्वास से होती है।
तो खैर यह कांग्रेस के सोए रहने की कहानी तो हरि अनंत हरि कथा अनंता की तरह है, जो कभी खत्म नहीं होगी। मगर फिलहाल 2024 सिर पर है और कर्नाटक से आई खुशबू के बाद विपक्ष जाग गया है। यह बड़ा डवलपमेंट है। विपक्ष का सक्रिय दिखना ही भाजपा के लिए सबसे बड़ा खतरा है। हमने पहले भी लिखा है कि मीडिया हर खबर को हजम कर जाता है। अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर देश का मान बढ़ाने वाले पहलवानों का रोना, सड़क पर सोना भी वह मामूली खबर में तब्दील कर देता है। पुलवामा के वीर जवानों की चालीस लाशें उसे नहीं दिखती हैं। वह कहता है सबूत लाओ। चालीस लाशों के ताबूत, उनके अस्सी मां बाप, पत्नी, बच्चे, बहन भाई कोई नहीं दिखते हैं।
पूरी बेशरमी से कहा जा रहा है, सबूत कहां हैं? किस बात के सबूत चाहिए उसको? शहीद हुए जवानों की मृत्यु घोषणापत्र मांग रहे है! जिनके शवों के भी चिथड़े उड़ गए उनके परिवार वालों से पूछ रहा है कि तुम्हारे घर से हजारों किलोमीटर दूर तुम्हारे बेटे, पति, पिता की मृत्यु क्यों और कैसे हुई बताओ? सिवा और सिवा सरकार के और कौन बता सकता है। मगर उनसे पूछने के बदले वह दुःख जताने वालों से पूछ रहा है क्यों रो रहे हो? क्या आधार है तुम्हारे रोने का? यह वैसा ही है जैसा इन्सपैक्टर मातादीन जो बताते थे ( कुछ तो परसाई जी ने लिखा बाकी बहुत कुछ अनलिखा भी रह गया) कि अदालत में जाकर दम से कहना कि हमने लाश को कई बार उठा पटक कर देखा मगर वह नहीं बोला उसने किसी का नाम नहीं बताया। लाश कोई भी सबूत देने में असमर्थ रही इसलिए यह बहुत सारे गहरे घावों के बावजूद हत्या नहीं खुद को नुकसान पहुंचाने की ही कोई घटना लगती है।
मीडिया हर खबर दबा सकता है। मगर आज भी ऐसी स्थिति बची हुई है कि वह चुनाव में जीत की खबरें और विपक्ष के नेताओं के एक दूसरे से मिलने की खबरें अख़बार और टीवी से गायब नहीं कर पा रहा। इतनी हिम्मत नहीं हो रही है। इससे पहले कि उसका दुस्साहस इतना बढ़ जाए विपक्ष को होशियार हो जाना चाहिए। उसके पास यह आखिरी मौका है। अगर 2024 भी हार गया तो फिर क्या आज की भाषा का शब्द लिख दें! यह गंभीर लेखन में तो अभी भी अश्लील है। मगर आजकल तो लड़के, लड़कियों सबमें चलन में है और सोशल मीडिया में भी कि फिर
क्या बचेगा बाबा जी का …!
जब यह शब्द या मुहावरा नया नया शुरू हुआ था और अख़बार में अंग्रेजी शब्दों का चलन भी और चुटकले, हल्कापन भी तब एक दिन मीटिंग में संपादक जी ने इस नए सुने शब्द को फर्स्ट लीड पर हेडिंग बनाने का सुझाव दिया। अनपेक्षित रूप से उन्हें समर्थन भी मिला। बड़ी मुश्किल से उन्हें समझाया जा सका। तो आज विपक्ष ने यह हालत कर ली है कि 2024 भी अगर हार गए तो फिर उनके पास वही बाबाजी वाला मुहावरा ही बचा रहेगा। बाकी थोड़ा उससे बेहतर ठन ठन गोपाल! तो विपक्ष समझ तो रहा है। और यह भी जैसे कर्नाटक में बीजेपी के अन्तरविरोध सामने आ गए। ऐसे ही अन्य राज्यों में भी आए थे बिहार, बंगाल, मध्य प्रदेश, राजस्थान, छत्तीसगढ़ जहां वह हारी तो ऐसा 2024 लोकसभा में भी हो सकता है। मगर उसके लिए मेहनत करनी होगी। मोदी जी को राज्यों के हारने से ज्यादा फर्क नहीं पड़ता। उन्हें फर्क पड़ेगा 2024 लोकसभा के नतीजों से।
नीतीश ने अच्छी धूम मचाई है। जब उन्होंने तीन महीने पहले बिहार में सीपीआईएमएल के सम्मेलन में विपक्षी एकता का आव्हान करते हुए कहा था कि अगर यह हो गया तो बीजेपी को 150 के अंदर रोक देंगे। उस समय कांग्रेस ने ही उनका सबसे ज्यादा मजाक उड़ाया था। उनसे ही सवाल पूछना शुरू कर दिए थे। अरे यह बात तो सबको मालूम है कि वे बीजेपी के साथ थे। इस बात पर उन पर क्या कटाक्ष करना? महत्वपूर्ण तो यह है कि अब वे बीजेपी के विरोध में विपक्षी एकता कर रहे हैं।
खैर कांग्रेस नेतृत्व की समझ में आ गया। उसने अकादमिक सवाल उठाने वाले और मजा लेने वाले अपने नेताओं को नजरअंदाज करके नीतीश और तेजस्वी से प्यार से मुलाकात की। और फिर देखा कि किस तरह नीतीश और तेजस्वी ने करीब करीब सभी विपक्षी नेताओं के साथ पहले राउंड की बातचीत कंपलीट कर ली। अब कांग्रेस कर्नाटक ठीक से लड़ ले। किसी गलत बाल को न खेले। उनके हिन्दू- मुसलमान जाल में न फंसे तो नतीजे विपक्ष के लिए हौसला बढ़ाने वाले औरभाजपा के लिए समस्याओं की शुरूआत हो सकते हैं। यहां कांग्रेस मुख्य रोल में है। कर्नाटक के बाद होने वाले चार राज्यों के चुनाव में भी उसका ही रोल मुख्य है। मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, राजस्थान में भी उसका सीधा मुकाबला भाजपा से है। लेकिन असली राजनीतिक समझ का इम्तहान तेलंगाना में है। वहां मुख्यमंत्री केसीआर खुलकर मोदी के विरोध में हैं। दो बार बहुत दम से राहुल के पक्ष में पहली बार असम के मुख्यमंत्री हेमंत बिस्वा के बेहद निम्न स्तर के बयान के खिलाफ दूसरी बार लोकसभा सदस्यता लेने पर खड़े हो चुके हैं। लेकिन पेंच यह है कि तेलगांना में सीधा मुकाबला है। सत्तारुढ़ केसीआर से कांग्रेस का।
यहीं अक्ल का और राजनीति का खेल है। जिसमें इन्दिरा गांधी माहिर थीं, वाजपेयी और अब मोदी जी भी हो गए हैं। उसमें नए अध्यक्ष खडगे कैसे रास्ता निकलाते हैं। नीतीश और बाकी विपक्षी नेता कितनी सकारात्मक भूमिका अदा करते हैं। यह सब देखना दिलचस्प होगा। राजनीति में क्या संभव नहीं है!लक्ष्य बस 2024 होना चाहिए। अर्जुन की तरह चिड़िया की आंख के अलावा औरकुछ नहीं दिखना चाहिए।