चुनाव आयोग व सरकार दोनों की अब साख का सवाल
लोकसभा चुनाव 2024 भारत के चुनाव आयोग और केंद्र सरकार दोनों की साख के लिए बहुत अहम हो गया है। वैसे हर चुनाव महत्वपूर्ण होता है और दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र होने की वजह से भारत के चुनाव पर सबकी नजर भी होती है। लेकिन इस बार चुनाव से पहले विपक्षी नेताओं के खिलाफ केंद्रीय एजेंसियों की कार्रवाई और विपक्ष के शोर मचाने की वजह से दुनिया का ध्यान भारत के चुनाव की ओर ज्यादा दिख रहा है।
तभी कांग्रेस के बैंक खाते सीज किए जाने और आयकर नोटिस की घटना के बाद अमेरिका और संयुक्त राष्ट्र ने कहा था कि सबको समान अवसर सुनिश्चित किया जाना चाहिए। अमेरिका ने यह भी कहा था कि उसकी नजर चुनावों पर रहेगी। हालांकि उसकी नजर बांग्लादेश और श्रीलंका के चुनाव पर भी थी और रूस के चुनाव पर भी थी लेकिन इन देशों में जिस तरह से चुनाव हुए उसमें उसने क्या कर लिया?
लेकिन भारत इन देशों से अलग है। भारत का लोकतंत्र इन देशों के मुकाबले ज्यादा जीवंत है और यहां के चुनाव आयोग की भी एक साख रही है। ऊपर से भारत 140 करोड़ लोगों का देश है, जिसमें करीब एक सौ करोड़ मतदाता है। इसलिए यहां अगर चुनाव की स्वतंत्रता, निष्पक्षता और पारदर्शिता पर सवाल उठता है या संदेह पैदा होता है तो उसका बहुत बड़ा असर होगा।
तभी इस बार का चुनाव केंद्र सरकार और चुनाव आयोग दोनों के लिए बहुत अहम है। चुनाव आयोग निष्पक्ष दिखे और निष्पक्ष व पारदर्शी तरीके से काम करे यह बेहद जरूरी है। इस लिहाज से कह सकते हैं कि पहली जरुरत विपक्षी पार्टियों के खिलाफ चल रही केंद्रीय एजेंसियों की कार्रवाई रोकने की है। हालांकि यह चुनाव आयोग के हाथ में नहीं है या इसे आचार संहिता का उल्लंघन नहीं कहा जा सकता है। लेकिन सबको पता है कि लोकतंत्र सिर्फ कानूनों के जरिए नहीं चलता है, बल्कि कई चीजें परंपरा से स्थापित हैं और उनका पालन किया जाना जरूरी है।
पता नहीं चुनाव आयोग की ओर खुल कर केंद्र सरकार से इस बारे में कुछ कहा गया है या नहीं लेकिन सबसे बड़ी विपक्षी पार्टी कांग्रेस के खिलाफ आयकर विभाग ने साढ़े तीन हजार करोड़ रुपए की नोटिस पर कार्रवाई नहीं करने का जो भरोसा दिया है और जिस तरह से ईडी ने आम आदमी पार्टी के नेता संजय सिंह की जमानत का विरोध नहीं किया उससे ऐसा लग रहा है कि सरकार भी सावधान हो गई है।
सरकार को भी लगा है कि विपक्ष के खिलाफ बहुत ज्यादा कार्रवाई से चुनावी राजनीति पर तो पता नहीं क्या असर होगा लेकिन अंतरराष्ट्रीय समुदाय में बहुत ज्यादा बदनामी हो जाएगी। हो सकता है कि सरकार को यह भी लगा हो कि चुनाव आयोग की साख बचाना जरूरी है अन्यथा चुनाव की पूरी प्रक्रिया संदिग्ध हो जाएगी। इसलिए भी उसने विपक्षी पार्टियों को राहत देने वाले कुछ कदम उठाए हों।
तभी कांग्रेस को नोटिस जारी होने या विपक्षी नेताओं पर कार्रवाई से जो विवाद खड़ा हुआ था और विपक्षी पार्टियों सहित दुनिया के देशों को स्वतंत्र व निष्पक्ष चुनाव पर सवाल उठाने का मौका मिला था उसको फिलहाल रोक दिया गया है या कम कर दिया गया है। आमतौर पर चुनाव के समय जो भी कार्रवाई होती है वह चुनाव आयोग की देख रेख में और उससे तालमेल बना कर किया जाता है। इसलिए एजेंसियों की स्वतंत्र कार्रवाई की बजाय अब आयोग से समन्वय बना कर कार्रवाई होने की संभावना बढ़ गई है।
चुनाव आयोग अपनी कार्रवाइयों में संतुलन बनाने के दबाव में भी है। तभी कांग्रेस नेता सुप्रिया श्रीनेत और भाजपा के सांसद दिलीप घोष के खिलाफ मिली शिकायत पर आयोग ने एक समान रूप से कार्रवाई की है और दोनों के बयानों की निंदा करते हुए उनको चेतावनी दी है।
असल में चुनाव आयोग का या केंद्रीय एजेंसियों का निष्पक्षता से काम करना जितना जरूरी है उतना ही जरूरी निष्पक्ष दिखना भी है। अभी इनका रवैया एकतरफा दिख रहा था। कह सकते हैं कि विपक्ष की बड़ी साझा रैली और आरोपों की निरंतरता का असर यह हुआ है कि चुनाव आयोग निष्पक्षता से काम करते दिखने की कोशिश कर रहा है। अगले दो महीने तक चलने वाली चुनाव प्रक्रिया में कई बार इसकी परीक्षा होगी। विपक्ष चाहता है कि चुनाव आयोग निष्पक्ष होकर काम करे और सभी पार्टियों के लिए समान अवसर की उपलब्धता सुनिश्चित करे।
चुनाव आयोग की बैठक में इस पर विचार किया गया है। विपक्षी पार्टियां चाहती हैं कि उनके खिलाफ कार्रवाई बंद हो। नेताओं को समन किया जाना बंद हो और उनके ऊपर लटकी केंद्रीय एजेंसियों की तलवार हटाई जाए। विपक्षी पार्टियों ने गिरफ्तार नेताओं को रिहा करने की भी मांग की है। ध्यान रहे 1977 में इमरजेंसी के दौरान जब चुनाव हो रहे थे तब इंदिरा गांधी ने एकाध को छोड़ कर बाकी सभी नेताओं को जेल से रिहा कर दिया था। इसी तरह विपक्ष अरविंद केजरीवाल, हेमंत सोरेन आदि को रिहा करने की मांग कर रहा है। हो सकता है कि रिहाई नहीं हो लेकिन अभी चल रही कार्रवाई भी रूक जाए, जैसे कांग्रेस के खिलाफ आयकर की कार्रवाई रूकी है तो उसका बड़ा मैसेज जाएगा।
इसके बाद अगले दो महीने चुनाव आयोग को हर कदम पर निष्पक्ष दिखने का प्रयास करना होगा। क्योंकि उसके हर कदम पर बहुत बारीकी से नजर रखी जा रही है। आयोग को चुनिंदा तरीके से कार्रवाई करने से बचना होगा। इसे समझने के लिए एक मिसाल पर्याप्त है। हर साल की तरह एक अप्रैल से टोल टैक्स में बढ़ोतरी होती है। लेकिन चुनाव आयोग ने इस बार इसे रूकवा दिया है। उसने सरकार से कहा कि यह बढ़ोतरी चुनाव के बाद की जाए। सोचें, इसका क्या मतलब है? अगर टोल टैक्स में बढ़ोतरी होती तो हर दिन लाखों लोग इसे महसूस करते, जिसका कुछ नुकसान सत्तारूढ़ दल को हो सकता था। इसे चुनाव आयोग ने रूकवा दिया।
लेकिन कॉमर्शियल रसोई गैस के सिलेंडर के दाम में 30 रुपए की कटौती हुई है उसे चुनाव आयोग ने नहीं रूकवाया। अगर आचार संहिता के बीच टोल टैक्स में बढ़ोतरी रोकी जा सकती है तो सिलेंडर के दाम में कटौती क्यों नहीं रोकी जानी चाहिए? इसी तरह चुनाव आयोग ने दवाओं की कीमत में बढ़ोतरी पर भी रोक नहीं लगाई है। एक अप्रैल से अनेक दवाओं की कीमत में मामूली ही सही लेकिन बढ़ोतरी हो गई। आचार संहिता लागू होने के बाद केंद्र सरकार ने मनरेगा की मजदूरी में तीन से 10 फीसदी तक की बढ़ोतरी की है, जो एक अप्रैल से लागू हो गई है। पार्टियां इस पर चुप हैं क्योंकि उनको लग रहा था कि मनरेगा की मजदूरी में बढ़ोतरी का विरोध किया तो उसका नुकसान होगा। लेकिन चुनाव आयोग को तो इसका ध्यान रखना चाहिए था।
चुनाव आयोग की निष्पक्षता का एक बड़ा मुद्दा इलेक्ट्रोनिक वोटिंग मशीन यानी ईवीएम से जुड़ा है। विपक्ष चाहता है कि चुनाव बैलेट पेपर से हो लेकिन अब यह संभव नहीं लग रहा है कि इस समय आयोग ईवीएम छोड़ कर बैलेट की ओर लौटेगा। लेकिन वीवीपैट की पर्चियों की गिनती अब भी संभव है। इसका मामला सुप्रीम कोर्ट में है और सर्वोच्च अदालत ने चुनाव आयोग व सरकार दोनों से इस पर जवाब मांगा है।
विपक्ष चाहता है कि सभी वीवीपैट मशीनों की पर्चियों की गिनती हो और उसका मिलान ईवीएम के नतीजों से किया जाए। ऐसा करने से नतीजे आने में दो तीन दिन की देरी हो सकती है। इसके अलावा इसमें कोई समस्या नहीं है। चुनाव आयोग को इस मामले को गंभीरता से देखना चाहिए आखिर यह दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र, जिसे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी लोकतंत्र की जननी कहते हैं उसकी जीवंतता और साख दोनों का सवाल है।