बिहार की राजनीति में नया कुछ भी नहीं

जाति गणना के आंकड़े आने और आरक्षण की सीमा बढ़ाने के बिहार सरकार के फैसले के बाद हर तरफ यह सुनने को मिल रहा है कि नीतीश कुमार और लालू प्रसाद ने राजनीति की दिशा बदल दी है। ऐसा लग रहा है जैसे इन दोनों नेताओं ने कोई नई राजनीति की है। लेकिन असल में इस राजनीति में कुछ भी नया नहीं है। पिछले 50 साल से ज्यादा समय से बिहार में यही राजनीति हो रही है और कुछ हद तक प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी व मंडल राजनीति से मजबूत हुए अन्य पिछड़ी जाति के नेताओं की कृपा से पूरे देश में भी यही राजनीति चल रही है। हर नेता सोशल इंजीनियरिंग करता हुआ है और आरक्षण को चुनाव जीतने का रामबाण नुस्खा मान कर किसी न किसी तरह उसका इस्तेमाल करने की वकालत कर रहा है। कांग्रेस, राजद, जदयू आदि के नेता आरक्षण की सीमा बढ़ा रहे हैं या बढ़ाने का दावा कर रहे हैं तो भाजपा के नेता मौजूदा आरक्षण का वर्गीकरण करके पिछड़ों में अति पिछड़ों और दलितों और अत्यंत दलितों को अतिरिक्त आरक्षण देने का दांव चल रहे हैं। तभी सोचें कि इस राजनीति में क्या नया है?

इसका जवाब खोजते-खोजते वर्तमान हिंदी कविता के सबसे चमकदार नक्षत्र कुमार विश्वास का ध्यान आता है। उन्होंने कोई 20 साल पहले एक कविता लिखी, ‘कोई दीवाना कहता है, कोई पागल समझता है’, जो कि बेहद मशहूर हुई। उसके बाद से वे थोड़े थोड़े अंतराल पर इसी कविता में कुछ नई पंक्तियां जोड़ते चलते हैं। उन्होंने कुछ अन्य कविताएं भी लिखीं लेकिन उनको वह लोकप्रियता नहीं मिली, जो उनकी इस कविता को मिली। इसलिए नई कविता लिखने, नए प्रयोग करने की बजाय वे अपनी पुरानी और मशहूर कविता में नई पंक्तियां जोड़ते जाते हैं। उसी तरह बिहार में राजद और जदयू के नेताओं ने कुछ और राजनीति भी आजमाई लेकिन उसमें कामयाबी नहीं मिली या कामयाबी मिलने की संभावना नहीं दिखी तो फिर से पुरानी और सफल रही राजनीति में नई लाइनें जोड़नी शुरू कर दीं। लालू प्रसाद और नीतीश कुमार अब भी वही राजनीति कर रहे हैं, जिसके दम पर दोनों सफल हुए, मुख्यमंत्री बने और पिछले 33 साल से बिहार की सत्ता पर काबिज हैं।

असल में यह राजनीति सत्तर के दशक से ही चल रही है। कर्पूरी ठाकुर के मुख्यमंत्री बनने के समय पिछड़ा और अति पिछड़ा का वर्गीकरण करके उनके लिए क्रमशः आठ और 12 फीसदी आरक्षण का प्रावधान किया गया था। बाद में पिछड़ी जातियों का आरक्षण 12 फीसदी और अत्यंत पिछड़ी जातियों का 18 फीसदी कर दिया गया था, जिसे अब फिर से बढ़ाने की घोषणा की गई है। लालू प्रसाद और नीतीश कुमार की जो कथित नई राजनीति है उसके तहत पिछड़ी जातियों को 18 फीसदी और अत्यंत पिछड़ी जातियों को 25 फीसदी आरक्षण दिया जाएगा। राज्य की नीतीश कुमार सरकार ने ऐसा करने के लिए जाति गणना को आधार बनाया है, जिसके तहत पिछड़ी जातियों की आबादी 27 फीसदी और अत्यंत पिछड़ी जातियों की आबादी 36 फीसदी बताई गई है। इसमें मुस्लिम समाज की पिछड़ी जातियां भी शामिल हैं। सो, कह सकते हैं कि बिहार में कर्पूरी ठाकुर से लेकर नीतीश कुमार तक इतनी तरक्की हुई है कि पिछड़ी जातियों का आरक्षण आठ से बढ़ा कर 18 फीसदी किया जा रहा है और अत्यंत पिछड़ी जातियों का आरक्षण 12 से बढ़ा कर 25 फीसदी किया जा रहा है!

सोचें, इसको नई राजनीति कैसे कह सकते हैं? यह नई बोतल में पुरानी शराब जैसी है, फर्क इतना है कि इस बार बोतल बड़ी कर दी गई है। याद करें 2015 के बिहार विधानसभा चुनाव में जब लालू प्रसाद और नीतीश कुमार एक साथ आए थे तब उन्होंने क्या राजनीति की थी? तब भी आरक्षण ही केंद्रीय मुद्दा था। असल में चुनाव से पहले राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ के प्रमुख मोहन भागवत ने आरक्षण की समीक्षा का एक बयान दे दिया था, जिसे बिहार की दोनों प्रादेशिक पार्टियों के नेताओं ने मुद्दा बना दिया। हालांकि ऐसा नहीं था कि मोहन भागवत बयान नहीं देते तो दोनों पार्टियां विकास, उद्योग, शिक्षा या स्वास्थ्य के मुद्दे पर चुनाव लड़ने जा रही थीं। दोनों तब भी जातिगत आरक्षण के मुद्दे पर ही चुनाव लड़तीं। उस चुनाव के 10 साल बाद 2025 फिर से दोनों पार्टियां साथ मिल कर विधानसभा का चुनाव लड़ेंगी तब भी उनके पास कोई दूसरा मुद्दा या एजेंडा नहीं है। वे उसी मुद्दे पर लड़ने जा रही हैं, जिस पर 2015 में लड़ा था या 1990 में लड़ा था। हालांकि इसका यह मतलब नहीं है कि पहले इस मुद्दे पर लड़ चुके हैं तो इस बार लड़ने पर इसका फायदा नहीं मिलेगा। यह कोई काठ की हांडी जैसी नहीं है कि दोबारा चूल्हे पर नहीं चढ़ा सकते। बिहार की जनता हो सकता है कि फिर से इस मुद्दे पर मतदान करे और मंडल के मसीहाओं को चुनाव जिताए।

लालू प्रसाद और नीतीश कुमार को इस मुद्दे पर कितना भरोसा है इसका अंदाजा इस बात से भी लगा सकते हैं कि दोनों ने 33 साल के अपने शासन की पोल खोलने वाले सामाजिक-आर्थिक सर्वेक्षण के आंकड़े भी जनता के सामने पेश कर दिए हैं। खुद मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने विधानसभा में इसके आंकड़े पेश किए और बताया कि बिहार के एक तिहाई से ज्यादा करीब 34 फीसदी परिवार ऐसे हैं, जिनकी मासिक कमाई छह हजार रुपए से कम है। सोचें, अगर पांच लोगों का एक परिवार है तो हर व्यक्ति की मासिक कमाई 12 सौ रुपए यानी 40 रुपए रोज से कम है। राज्य में सिर्फ सात फीसदी आबादी ग्रेजुएट है और महज पांच फीसदी लोगों के पास किसी तरह का मोटराइज्ड वाहन है। सिर्फ पांच फीसदी लोग सरकारी या निजी नौकरी में हैं और 17 फीसदी मजदूरी करते हैं। सिर्फ सात फीसदी लोग कृषि कार्य करते हैं और 67 फीसदी आबादी की एक श्रेणी है, जिसे राज्य सरकार ने गृहिणी व विद्यार्थी कहा है। यानी इनके पास आय उपार्जित करने का कोई काम नहीं है।

सोचें, बिहार की भयावह गरीबी व बदहाली की तस्वीर दिखाने वाली इस रिपोर्ट को पेश करने के बाद भी सरकार चला रही दोनों पार्टियां विकास का कोई एजेंडा पेश करने और अगले 25 साल के विकास का कोई रोडमैप बना कर लोगों के सामने रखने की बजाय यह कहा कि सरकार आरक्षण बढ़ा कर 75 फीसदी करेगी। सवाल है कि बिहार की 13 करोड़ आबादी में से सिर्फ 60 लाख लोगों के पास नौकरी है, जिसमें से कुछ लोगों के पास सरकारी नौकरी है और बाकी संगठित या असंगठित क्षेत्र की निजी नौकरी करते हैं वहां आरक्षण की सीमा बढ़ा देने से कितनी आबादी को क्या हासिल हो जाएगा? अगर रोजगार के अवसर नहीं बढ़ाए जाते हैं या रोजगार आधारित विकास का मॉडल नहीं बनता है तो आरक्षण बढ़ाने से क्या होगा? लेकिन ऐसा लगता है कि इससे बिहार की जनता को भी कोई फर्क नहीं पड़ता है। वह जाति गणना और आरक्षण बढ़ाने के प्रतीकात्मक व भावनात्मक मुद्दे को ही जीवन का सार समझ कर अपना कीमती वोट दे सकती है। दुर्भाग्य से यही राजनीति पूरे देश में हो रही है और लगभग सभी पार्टियां कर रही हैं।

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