अगला चुनाव जाति के मुद्दे पर?
नरेंद्र मोदी 2014 में प्रधानमंत्री पद के दावेदार के रूप में चुनाव लड़ रहे थे तब चुनाव लगभग पूरी तरह से सत्ता विरोधी लहर पर लड़ा गया था। भाजपा और नरेंद्र मोदी की प्रचार टीम के सारे नारे सत्ता विरोध वाले थे। मनमोहन सिंह पर कमजोर नेतृत्व का आरोप था तो महंगाई और भ्रष्टाचार का मुद्दा था। इसके अलावा वह चुनाव उम्मीदों और आकांक्षाओं वाला था। अच्छे दिन के वादे वाला था। उसके बाद के किसी चुनाव में अच्छे दिन की बात नहीं हुई। प्रधानमंत्री के रूप में मोदी 2019 में पहला लोकसभा चुनाव लड़े और वह पूरी तरह से राष्ट्रवाद के मुद्दे पर था। पुलवामा कांड की पृष्ठभूमि और सर्जिकल स्ट्राइक व बालाकोट स्ट्राइक के नाम पर चुनाव हुआ था। इन दोनों चुनावों में हिंदुत्व का मुद्दा सतह के अंदर अंडरकरंट की तरह था। इस बार के चुनाव में वह मुख्य मुद्दा बनता दिख रहा है और उसके साथ साथ राष्ट्रवाद, मोदी का मजबूत नेतृत्व और भारत के विश्वगुरू होने का नैरेटिव है।
दूसरी ओर 2014 और 2019 के चुनाव में पूरी तरह से बिखरा और किंकर्तव्यविमूढ़ रहा। पर इस बार विपक्ष एकजुट होकर एक साझा नैरेटिव पर चुनाव लड़ने की तैयारी कर रहा है। कहने को विपक्षी पार्टियां बता रही हैं कि आम लोग सरकार से नाराज हैं, महंगाई और बेरोजगारी से त्रस्त हैं और इसलिए सत्ता विरोध की लहर है। हालांकि जमीन पर ऐसा कुछ नहीं दिख रहा है। सत्ता विरोध प्रत्यक्ष नहीं दिख रहा है। हो सकता है कि लोगों के मन में नाराजगी हो लेकिन वह नाराजगी भाजपा और मोदी के खिलाफ वोट में कितनी तब्दील होगी यह नहीं कहा जा सकता है। यह बात विपक्ष को भी पता है इसलिए ऊपरी तौर पर सत्ता विरोधी लहर की बात कही जा रही है लेकिन अंदरूनी रणनीति में जाति को मुख्य मुद्दा बनाने की तैयारी होती दिख रही है।
तभी कांग्रेस सहित तमाम विपक्षी पार्टियां जातियों की गिनती कराने और आरक्षण बढ़ाने की बात कर रही हैं। जातियों की गणना और आरक्षण का दायरा बढ़ाने की बात पर सभी पार्टियों में सहमति है और इस बात पर भी सहमति है कि कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे इस मुद्दे को हाईलाइट करें। हाल में दो जगह खड़गे ने इससे जुड़े बयान दिए। मध्य प्रदेश में उन्होंने कहा कि राज्य में कांग्रेस की सरकार बनी तो जातियों की गिनती कराएगी। इसके बाद वे तेलंगाना में प्रचार करने गए तो वहां वादा किया कि कांग्रेस की सरकार बनी तो अनुसूचित जाति का आरक्षण बढ़ा कर 18 फीसदी और अनुसूचित जनजाति का आरक्षण बढ़ा कर 12 फीसदी करेंगे। कर्नाटक में कांग्रेस पहले ही घोषणा कर चुकी है कि वह आरक्षण की सीमा 75 फीसदी तक ले जाएगी। सो, जाति और आरक्षण की जो राजनीति पहले बिहार और उत्तर प्रदेश में सबसे ज्यादा दिखती थी उसका विस्तार मध्य प्रदेश से लेकर कर्नाटक और तेलंगाना तक दिखने लगा है।
यह जरूर है कि इस बार भी शुरुआत बिहार से ही हुई है। बिहार की सरकार ने तमाम कानूनी बाधाओं और राजनीतिक अड़चनों के बावजूद जातियों की गिनती कराई है। इसके बाद संभव है कि राज्य सरकार आरक्षण को लेकर कुछ बड़े फैसले करे। मसलन आरक्षण की सीमा बढ़ाई जा सकती है, आरक्षण के भीतर आरक्षण का दायरा बढ़ सकता है, निजी सेक्टर में आरक्षण के बारे में स्टैंड तय किया जा सकता है और न्यायपालिका में आरक्षण का दबाव बढ़ाया जा सकता है। यह सब जातियों के आंकड़े आने के बाद होगा। पारंपरिक अनुमान के मुताबिक बिहार में 54 फीसदी आबादी अन्य पिछड़ी जाति की है। सो, आबादी के अनुपात में आरक्षण बढ़ाने की दिशा में राज्य सरकार बढ़ेगी। वहां से यह मुद्दा पूरे देश में जाएगा और अगले चुनाव का मुख्य मुद्दा बनेगा। भाजपा को इसका अंदाजा है इसलिए केंद्र ने इसके वैधानिक पक्ष पर अपनी राय रखते हुए सुप्रीम कोर्ट में दिए हलफनामे में कहा कि जनगणना का अधिकार सिर्फ केंद्र सरकार को है। हालांकि बाद में सरकार ने यह हलफनामा वापस ले लिया, जिससे लगता है कि भाजपा खुद इस मामले में दुविधा में है।
बहरहाल, ऐसा नहीं है कि भाजपा इस राजनीति में बहुत पीछे है। वह पहले से पिछड़ी जातियों और उसमें भी अन्य पिछड़ी जातियों में काम कर रही है। बिहार, उत्तर प्रदेश सहित देश के अनेक राज्यों में अत्यंत पिछड़ी जातियों के बीच भाजपा का वोट आधार बढ़ा है। सीएसडीएस के आंकड़ों के मुताबिक 2019 के लोकसभा चुनाव में दबंग या मजबूत पिछड़ी जातियों का 40 फीसदी वोट भाजपा को मिला, जबकि अत्यंत पिछड़ी जातियों का 48 फीसदी वोट भाजपा को गया। धीरे धीरे यह परिघटना मजबूत हुई है। मुख्य रूप से इसके दो कारण हैं। पहला तो यह है कि नरेंद्र मोदी पहले दिन से बहुत व्यवस्थित तरीके से इस बात का प्रचार कर रहे हैं कि वे अत्यंत पिछड़ी जाति से आते हैं। अपनी जाति बताने के साथ साथ वे अपनी सरकार में पिछड़ी जातियों, दलित व आदिवासियों का प्रतिनिधित्व बढ़ाते गए हैं। साथ ही इसकी जानकारी भी सार्वजनिक रूप से देते गए हैं। सो, अत्यंत पिछड़ी जातियों के बीच यह मैसेज गया है कि मोदी ने उनको सत्ता में हिस्सेदारी दी है। दूसरा कारण राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ द्वारा जमीनी स्तर पर किया गया काम है। बिहार, उत्तर प्रदेश या कुछ और हिंदी भाषी राज्यों में पिछले 10 साल में गैर यादव जिन जातियों का उभार देखने को मिला है उसके पीछे कहीं न कहीं संघ और भाजपा की मेहनत है। बिहार और उत्तर प्रदेश में निषाद नेताओं का उभार इसकी मिसाल है। इसके अलावा कुर्मी, कोईरी, राजभर जैसी जातियों की पार्टियां बनी हैं और इन समाजों में सत्ता में हिस्सेदारी की ललक पैदा हुई है। ओबीसी की कमजोर जातियों को ध्यान में रख कर ही प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने लाल किले से साढ़े 13 हजार करोड़ रुपए के विश्वकर्मा योजना की घोषणा की। इसका लाभ लोहार, बढ़ई, नाई, चर्मकार जैसे सामाजिक व आर्थिक रूप से अत्यंत पिछड़ी जातियों को मिलेगा। सो, भाजपा अत्यंत पिछड़ी जातियों में अपनी पकड़ मजबूत बनाने का प्रयास कर रही है।
देश की सबसे बड़ी विपक्षी पार्टी कांग्रेस इस राजनीति का मुकाबला करने की स्थिति में नहीं है। इसका कारण यह है कि पिछड़ी जातियों के बीच कांग्रेस अपना आधार पिछले दो दशक से खोती जा रही है। उसका यही आधार प्रादेशिक पार्टियों को गया है, जो आज उसकी सहयोगी हैं। यह कमाल का विरोधाभास है। मंडल आयोग की रिपोर्ट लागू होने के बाद भी कांग्रेस को 1996 तक अन्य पिछड़ी जातियों का एक चौथाई यानी 25 फीसदी वोट मिलता रहा था। लेकिन अब वह घट कर 13-14 फीसदी रह गया है। यह सही है कि कांग्रेस को यह वोट बहुत कम मिलता है और भाजपा ने इसमें अपना आधार बढ़ाया है लेकिन कई राज्यों में यह अब भी प्रादेशिक पार्टियों का मजबूत वोट आधार है। हालांकि 2019 आते आते इस वोट में प्रादेशिक पार्टियों को भी नुकसान हुआ है। बिहार, उत्तर प्रदेश सहित कई राज्यों में मजबूत पिछड़ी जातियों का समर्थन प्रादेशिक पार्टियों के साथ रहा है लेकिन मझोली और निचली पिछड़ी जातियों का लगभग आधा वोट भाजपा को चला गया है।
ध्यान रहे कुल आबादी में 30 फीसदी अत्यंत पिछड़ी जातियां हैं। यानी पिछड़ी आबादी में आधे से ज्यादा हिस्सा उनका है। इनमें भाजपा ने अपना मजबूत आधार बनाया है। समूचे हिंदी भाषी क्षेत्र में बिहार एकमात्र राज्य है, जहां नीतीश कुमार की पार्टी जदयू का अत्यंत पिछड़ी जातियों में मजबूत आधार है। यही कारण है कि भाजपा को बिहार में नीतीश की जरूरत महसूस होती रहती है। अब गैर यादव दूसरी जातियों के नेताओं के साथ लेकर भाजपा वहां स्वतंत्र रूप से अपना वोट आधार बढ़ाने की कोशिश कर रही है लेकिन उसमें बहुत कामयाबी नहीं मिल पाई है। भाजपा को पता है कि उसे दबंग पिछड़ी जातियों की बजाय कमजोर पिछड़ी जातियों पर काम करना है। विपक्षी पार्टियां भी इसी समूह को लक्ष्य कर रही हैं। सो, यह देखना दिलचस्प होगा कि कौन पहला दांव चलता है? जस्टिस रोहिणी आयोग ने आंखें खोलने वाली रिपोर्ट दी है। उसने बताया है कि आरक्षण का पूरा लाभ दबंग पिछड़ी जातियों को मिला है। देश की 37 सौ जातियों में से नौ सौ से ज्यादा जातियां ऐसी हैं, जिनको एक भी नौकरी आरक्षण के तहत नहीं मिली। अगर इस रिपोर्ट के आधार पर केंद्र सरकार दायरा बढ़ा कर अत्यंत पिछड़ी जातियों के लिए आरक्षण के भीतर आरक्षण करे तो वह बड़ा दांव होगा। विपक्षी पार्टियों को उससे पहले अपना दांव चलना होगा।