नरेंद्र मोदी नौ साल चले अढ़ाई कोस

नरेंद्र मोदी ने रायसीना पहाड़ी के अपने सिंहासन पर नौ बरस पूरे कर लिए। 3286 दिन-रात जिस तरह उन्होंने बिताए, भारत के किसी प्रधानमंत्री ने नहीं बिताए। औसतन तीन प्रतिदिन के हिसाब से नरेंद्र ने इस बीच तक़रीबन दस हज़ार बार अपने परिधान बदले होंगे। औसतन एक हर रोज़ के हिसाब से उन्होंने तीन हज़ार उद्घाटन/लोकार्पण किए होंगे। हर महीने एक के हिसाब से वे सौ बार अपने ‘मन की बात’ देशवासियों को बता ही चुके हैं।

नौ साल में नरेंद्र मोदी ने क़रीब सवा सौ बार विदेश यात्राएं कीं। वे 64 देशों में गए। दो देश – अमेरिका और जापान – ऐसे हैं, जहां वे सात-सात बार गए। फ्रांस और जर्मनी वे छह-छह बार गए। चीन, रूस और नेपाल पांच-पांच बार गए। सिंगापुर और संयुक्त अरब अमीरात वे चार-चार बार गए। ब्रिटेन, श्रीलंका और उज़बेकिस्तान तीन-तीन बार गए। 16 देशों की यात्रा उन्होंने दो-दो बार की और 36 देश ऐसे हैं, जहां नरेंद्र मोदी एक बार गए। इन यात्राओं पर कुल मिला कर क़रीब पच्चीस अरब रुपए खर्च हुए।

नरेंद्र मोदी ने नौ बरस में 588 घरेलू यात्राएं कीं। यानी हर पांचवे दिन। इनमें से 253 यात्राएं ग़ैर-सरकारी थीं। मतलब यह हुआ कि हमारे प्रधानमंत्री के देश के भीतर हुए दौरों में से 43 प्रतिशत निजी थे। सिर्फ़ 57 प्रतिशत घरेलू यात्राएं सरकारी कामकाज के मक़सद से हुईं। मुझे नहीं मालूम कि जब प्रधानमंत्री निजी यात्राएं करते हैं तो उन पर होने वाला खर्च कौन उठाता है? बहरहाल! विदेशी और घरेलू दौरों को मिला कर नरेंद्र मोदी औसतन हर चौथे दिन दिल्ली से बाहर रहे।

प्रधानमंत्री ने नौ साल में क़रीब ढाई हज़ार भाषण दिए। इनमें सरकारी आयोजनों में किए गए उद्बोधन भी शामिल हैं और चुनावी सभाओं में दिए गए भाषण भी। यानी नरेंद्र मोदी हर 30-35 घंटे में एक भाषण देते रहे हैं। संसद के दोनों सदनों की बैठकों में वे हर साल औसतन 60-65 घंटे ही हिस्सा लेते हैं। नरेंद्र मोदी के राज में संसद की बैठकों का सालाना औसत गिर कर 64 दिन रह गया है। एक ज़माने में यह डेढ़ सौ दिनों से ज़्यादा हुआ करता था।

इन नौ वर्षों में देश भर में ढाई लाख से ज़्यादा हत्याएं हुईं। 70 लाख से ज़्यादा लोगों ने आत्महत्या कर ली। क़रीब साढ़े 8 लाख अपहरण हुए। पौने 3 लाख से ज़्यादा बलात्कार हुए। 37 लाख से ज़्यादा सड़क दुर्घटनाएं हुईं और उन में तक़रीबन 14 लाख लोगों की जानें गईं। कोरोना-काल में लाखों लोगों ने प्राण गंवाए और करोड़ों प्रवासी कामगारों को हज़ारों मील पैदल चल कर अपने घर पहुंचने की असहनीय दिक़्कत झेलनी पड़ी। सरकार ने कोरोना वैक्सीन बनाने वाली कंपनियों को 35 हज़ार करोड़ रुपए से ज़्यादा यानी साढ़े तीन खरब रुपए से अधिक का भुगतान किया। कुछ वैक्सीन निर्माताओ ने कोरोना-काल में मुंबई और लंदन में सैकड़ों करोड़ रुपए के महल खरीद लिए।

इन नौ साल की एक बड़ी उपलब्धि काला धन बाहर लाने के लिए की गई नोटबंदी थी, जिससे कितना काला धन सामने आया, किसी को मालूम नहीं, लेकिन यह सब को मालूम है कि इस की वज़ह से लाखों लोग कई-कई दिन बैंकों के सामने कतार में खड़े रहे और सैकड़ों की जान चली गई। आज़ादी के बाद बनाए गए महत्वपूर्ण सरकारी उपक्रमों में से दर्जनों इन नौ बरस में या तो पूरी तरह निजी कारोबारियों को बेच दिए गए या उन का एक बड़ा हिस्सा निजी निवेशकों को दे दिया गया। ये सौदे चार लाख करोड़ रुपए यानी 40 खरब रुपए की औनी-पौनी कीमतों पर हुंए।

नौ साल में भारतीय खरबपतियों की तादाद चार गुनी बढ़ गई। 2014 में भारत में 230 खरबपति थे। अब क़रीब 900 हैं। नरेंद्र के चहेते माने जाने वाले एक उद्योगपति की संपत्ति इन नौ बरस में तेरह गुनी बढ़ गई। इस बीच ग़रीबी और असमानता तेज़ी से बढ़ी। सब से कम कमाने वाली दस प्रतिशत आबादी की आमदनी 40 प्रतिशत तक और घट गई। 23 करोड़ लोगों की आमदनी प्रति व्यक्ति राष्ट्रीय आय से नीचे चली गई। बेरोज़गारी की दर साढ़े छह फ़ीसदी का आंकड़ा पार कर गई। ज़रूरी चीज़ों की कीमतों में 35 प्रतिशत तक का इज़ाफ़ा हो गया। जीडीपी वृद्धि की दर ओंधे मुंह गिर कर शून्य से भी साढ़े छह प्रतिशत तक नीचे पहुंच गई। एक साल के भीतर सवा दस प्रतिशत की ऐसी गिरावट देश ने पहले कभी नहीं देखी थी।

आवश्यक दवाओं की कीमतें नौ साल में तीन गुनी तक बढ़ गईं। अस्पताल और इलाज़ भी तीन गुने महंगे हो गए। स्कूली और महाविद्यालयीन शिक्षा ढाई गुनी तक महंगी हो गई। मध्यम वर्ग की आमदनी 35 प्रतिशत तक कम हो गई। मकान किराए दुगने हो गए और यातायात भाड़े में तीन गुनी तक बढ़ोतरी हो गई। सौंदर्य प्रसाधनों का बाज़ार नरेंद्र भाई के ज़माने में चार गुना बढ़ गया और फटेहाल घूमने वाले बच्चों की तादाद भी ढाई गुनी बढ़ गई।

ख़ुशहाली के विश्व सूचकांक में भारत इन नौ वर्षों में लगातार नीचे गिरा। सामान्य आज़ादी, मीडिया की आज़ादी और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के मामले में भी हम लगातार नीचे लुढ़के। सामाजिक दुर्भाव तेज़ी से बढ़ा। सामुदायिक वैमनस्य की घटनाएं तेज़ी से बढ़ीं। संवैधानिक संस्थाओं का तेज़ी से क्षरण हुआ। राजनीति में प्रतिशोध के वाक़ये तेज़ी से बढ़े। सार्वजनिक जीवन में भद्दी भाषा का इस्तेमाल रोज़मर्रा की बात हो गई। ये तमाम धब्बे इन नौ साल में नरेंद्र मोदी की पगड़ी में उभरे।

लोकतांत्रिक व्यवस्था का हाल इन नौ साल में भले ही कुछ भी हुआ हो, अगले आम चुनाव के वक़्त भारत में मतदाताओं का आंकड़ा एक अरब की संख्या को छू रहा होगा। नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद से देश की मतदाता सूची में 16-17 करोड़ नए मतदाता जुड़ चुके होंगे। वे 18 से 28 साल की आयु-समूह के होंगे। डेढ़ करोड़ से कुछ ज़्यादा मतदाता ऐसे होंगे, जो पहली बार मताधिकार का इस्तेमाल करेंगे। इस मतदाता-समूह की आधुनिक, उदारवादी और स्वतंत्र सोच-प्रक्रिया ने नौ-दस साल के दौर में घटी घनघोर नकारात्मक घटनाओं पर अगर अपनी क्षुब्ध प्रतिक्रिया ज़ाहिर की तो 2024 में भारतीय जनता पार्टी की मुश्क़ि़लें अपरंपार भी हो सकती हैं।

नरेंद्र मोदी के राज में जो हुआ है, उसे बहुत बढ़-चढ़ कर दिखाया गया है। जो नहीं हुआ है, उसे बहुत बढ़-चढ़ कर दबाया गया है। यह दौर मीठा-मीठा गप्प और कड़वा-कडवा थू की राह पर चलने का था। अगले चुनावों तक यह राह और तेज़ रफ़तार से तय होगी। लेकिन मौजूदा सरकार की इस ठेंगा-शैली ने जन-मन में उकताहट की एक मोटी परत जमा दी है। सो, यह चुप्पी जब टूटेगी तो सैलाब-सा आएगा। नौ साल में चले अढ़ाई कोस के अनवरत महिमामंडन का गुब्बारा लिए आख़िर कोई कितने वक़्त कुदकता रह सकता है?

लोकसभा का कार्यकाल आज से कुल 386 दिन बचा है। इन शेष दिनों का एक-एक दिन अगर नरेंद्र मोदी ने बिना शिकन के निकाल लिया तो मुझे तो बहुत हैरत होगी। भाजपा हर राज्य में जिस तरह भीतर से खदबदा रही है और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के झरने में जिस तरह की खिन्न लहरें दिखाई दे रही हैं, वे नरेंद्र मोदी के माथे की लकीरों को आने वाले दिनों में और गहरा ही करेंगी। इसलिए अब हर दिन उनके चेहरे को ग़ौर से देखते रहिए।

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