एमएसपी की कमेटी तो बनी, होगा क्या?
तीन विवादित कृषि कानूनों को वापस लेते हुए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 19 नवंबर 2021 को किसानों से वादा किया था कि न्यूनतम समर्थन मूल्य यानी एमएसपी पर किसानों की मांगों पर विचार करने के लिए जल्दी ही एक कमेटी बनाई जाएगी। उस घोषणा के आठ महीने बाद कमेटी बन गई है। वैसे कमेटी का गठन 12 जुलाई को हो गया था लेकिन उसकी अधिसूचना एक हफ्ते बाद 18 जुलाई को सार्वजनिक हुई। कमेटी का जो एजेंडा बनाया गया है और जिस तरह के लोगों को कमेटी में शामिल किया गया है उसे देख कर लग रहा है कि इससे कुछ हासिल नहीं होने वाला है। यह कमेटी एक तरह से किसानों को उलझाए रखने का जरिया बनेगी। जैसे आंदोलन के समय किसानों के साथ सरकार की वार्ताएं होती थीं और कुछ नतीजा नहीं निकलता था वैसे ही इस कमेटी की वार्ताओं में भी होगा। कमेटी के गठन के साथ ही कई कारण दिख रहे हैं, जिनसे लग रहा है कि यह कमेटी किसानों की मांग के साथ न्याय नहीं कर पाएगी या इसका फेल होना तय है।
सबसे पहला कारण तो यह है कि इसे सरकारी बाबुओं की कमेटी बना दिया गया है। अध्यक्ष के साथ साथ केंद्र व राज्य सरकार के दर्जनों अधिकारी इसके सदस्य होंगे। इसके अध्यक्ष कृषि व किसान कल्याण मंत्रालय के सचिव रहे संजय अग्रवाल हैं और उनके साथ साथ नीति आयोग के सदस्य रमेश चंद को इस कमेटी का सदस्य बनाया गया है। सोचें, रमेश चंद तीनों विवादित कानूनों का मसौदा तैयार करने वालों में थे और संजय अग्रवाल के सचिव रहते उन्हें लागू किया गया था। प्रधानमंत्री द्वारा तीनों कानूनों को वापस लेने की घोषणा से ठीक पहले तक ये दोनों लोग कानूनों का बचाव कर रहे थे। जब प्रधानमंत्री ने बिना शर्त तीनों विवादित कानूनों को वापस ले लिया तब इन्होंने चुप्पी साध ली। लेकिन अब सरकार किसानों की एक अहम मांग पर विचार के लिए कमेटी में इन दोनों को लेकर आई है। सवाल है कि जब किसान आंदोलन के समय हर बार उनके साथ वार्ता राजनीतिक नेतृत्व की हुई तो अब क्यों पूर्व कृषि सचिव वार्ता करेंगे? अगर सरकार गंभीर होती तो कमेटी का नेतृत्व राजनीतिक व्यक्ति को दिया जाता और उसमें सदस्य सचिव की तरह किसी अधिकारी को रखा जा सकता था।
इस कमेटी के फेल होने का दूसरा कारण यह है कि इसमें बड़ी संख्या में ऐसे लोगों को शामिल किया गया है, जो भाजपा या राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ या ऐसे कृषि व सहकारी संगठनों से जुड़े हैं, जो सरकार का समर्थन करती हैं। इसमें संयुक्त किसान मोर्चा के लिए तीन सदस्यों की जगह छोड़ी गई है, जो उनकी ओर से नाम दिए जाने के बाद भरी जाएगी। सवाल है कि जब चार-पांच दूसरे किसान संगठनों के सदस्यों के नाम इसमें शामिल करके उनकी घोषणा कर दी गई है तो उसी तरह कमेटी के गठन से पहले संयुक्त किसान मोर्चा से बात करके उनके तीन नाम लेकर एक साथ ही घोषणा क्यों नहीं की गई? आखिर भारतीय कृषक समाज या शेतकरी संगठन या भारतीय किसान संघ सहित जिन किसान संगठनों के लोगों के नाम घोषित किए गए हैं उनसे भी तो पहले बातचीत हुई होगी? क्या जिन लोगों के नाम घोषित किए गए हैं वे सरकार को अपने अनुकूल लगे इसलिए उनका नाम पहले घोषित हो गया और संयुक्त किसान मोर्चा को बाद के लिए छोड़ दिया गया?
तीसरा कारण यह है कि इस कमेटी में बहुत से लोग सदस्य हैं। इसमें कई दर्जन सदस्य बनाए गए हैं। कई किसान संगठनों के लोग इसमें सदस्य हैं तो कई सहकारी संगठनों के लोगों को भी इसमें शामिल किया गया है। कृषि वैज्ञानिक, कृषि विश्वविद्यालय से जुड़े अध्येता, केंद्र सरकार के अधिकारी और राज्य सरकारों के अनेकानेक अधिकारी इसमें शामिल किए गए हैं। केंद्र और राज्य सरकार के प्रतिनिधि के तौर पर जिन अधिकारियों को सदस्य बनाया गया है वे पदेन हैं। यानी अधिकारी बदलेंगे तो सदस्य बदल जाएगा। सोचें, ऐसी कमेटी क्या काम करेगी? वैसे भी जिस कमेटी में बहुत ज्यादा सदस्य होते हैं वह नतीजे नहीं दे पाती है।
इसके फेल होने का चौथा कारण यह है कि इसके लिए कोई समय सीमा तय नहीं की गई है कि कमेटी कब तक सिफारिश करेगी। यानी कमेटी की बैठकें अनंतकाल तक चलती रह सकती हैं। पांचवां कारण यह है कि इसकी सिफारिशें केंद्र सरकार पर बाध्यकारी नहीं हैं यानी कमेटी सिर्फ अनुशंसा करने का काम करेगी और उसे मानना या न मानना सरकार पर निर्भर है। इसके विफल होने का छठा कारण यह है कि कमेटी को सिर्फ एमएसपी पर विचार नहीं करना है, बल्कि कृषि से जुड़े अनेक मसलों पर विचार करना है। आंदोलन करने वाले किसान एमएसपी की कानूनी गारंटी की मांग कर रहे थे। वे ऐसा कानून बनाने की मांग कर रहे थे, जिसमें यह अनिवार्य किया जाए कि कोई भी कारोबारी, देश में कहीं भी एमएसपी से कम कीमत पर अनाज नहीं खरीद सके। ऐसी खरीद को गैरकानूनी बनाया जाए। लेकिन कमेटी के एजेंडे में एमएसपी की कानूनी गारंटी की बजाय कई दूसरी चीजें शामिल कर दी गई हैं।
कमेटी का एजेंडा अपने आप में इसके विफल होने का एक कारण बनेगा। कमेटी की घोषणा करते हुए कृषि और किसान कल्याण मंत्रालय की ओर से कहा गया है कि ‘जीरो बजट आधारित कृषि को बढ़ाना देने, फसल का पैटर्न बदलने और न्यूनतम समर्थन मूल्य यानी एमएसपी को अधिक प्रभावी व पारदर्शी बनाने के लिए एक समिति का गठन किया गया है’। इसमें लिखा गया है कि कमेटी एमएसपी को अधिक प्रभावी व पारदर्शी बनाने पर विचार करेगी, जबकि किसान चाहते हैं कि एमएसपी की कानूनी गारंटी देने पर विचार हो। फसलों का पैटर्न बदलने या जीरो बजट कृषि को बढ़ावा देने के मसले पर पहले से काम हो रहा है और किसानों की असली चिंता वह नहीं है। आंदोलन करने वाले किसान एमएसपी की गारंटी चाहते थे। लेकिन यह कमेटी उस पर विचार नहीं करेगी। हो सकता है कि कमेटी के सामने एमएसपी की गारंटी करने वाले कानून का मुद्दा ही न आए। ध्यान रहे इस साल सरकार ने अनाज की बहुत कम खरीद की है। पिछले साल के मुकाबले लगभग आधी खरीद हुई है। दूसरी ओर अंतरराष्ट्रीय हालात को देखते हुए निजी कारोबारियों ने निर्यात के लिए खूब खरीद की और कई जगह किसानों को एमएसपी से ज्यादा कीमत मिली। लेकिन इसका यह मतलब नहीं है कि एमएसपी अप्रासंगिक हो गया। एमएसपी की जरूरत है और आगे भी रहेगी। सरकार की खरीद कम होने के बाद इसकी जरूरत और बढ़ गई है कि एमएसपी की कानूनी गारंटी दी जाए।