दलित राजनीति का मंडल काल
जिस तरह से नब्बे के दशक में मंडल आयोग की रिपोर्ट लागू होने के बाद पिछड़ी जातियों की राजनीतिक चेतना का उफान आया था और देश की पूरी राजनीति बदल गई थी उसी तरह अभी दलित चेतना का उफान आया है। कह सकते हैं कि देश में दलित राजनीति का मंडल काल चल रहा है। सामाजिक स्तर पर भी दलित चेतना जाग्रत हुई है, जिसका बड़ा राजनीतिक असर आने वाले दिनों दिनों में देखने को मिल सकता है। मंडल आयोग की रिपोर्ट लागू होने के बाद जिस राजनीतिक चेतना का प्रसार हुआ उसके कई लाभार्थी हुए। एचडी देवगौड़ा का प्रधानमंत्री बनना उसी राजनीति का एक पड़ाव था। पिछड़ी जातियों के नियंत्रण वाली कई राजनीतिक पार्टियों का गठन हुआ। लालू प्रसाद से लेकर मुलायम सिंह यादव और नीतीश कुमार से लेकर एचडी कुमारस्वामी तक अनेक प्रादेशिक क्षत्रपों को इस जागृति का लाभ मिला। इतना ही नहीं मध्य प्रदेश में पहले उमा भारती और फिर बाबूलाल गौर और शिवराज सिंह चौहान से होते हुए मोहन यादव तक पिछले दो दशक से ज्यादा का राजनीतिक सफर पिछड़ी जातियों की राजनीति को स्थापित करने का था।
कहने का आशय यह है कि मंडल की राजनीति ने सिर्फ पिछड़ी जातियों के वर्चस्व वाली पार्टियों को ही जन्म नहीं दिया या उनको सत्ता नहीं दी, बल्कि राष्ट्रीय दलों को भी मजबूर किया कि वे पारंपरिक राजनीति छोड़ कर पिछड़ी जातियों का नेतृत्व आगे करें। मंडल की राजनीति के बरक्स भाजपा ने कमंडल यानी मंदिर की राजनीति शुरू की थी लेकिन उसका राष्ट्रीय नेतृत्व दूरगामी सोच वाला था तो उसने मंडल और कमंडल के समन्वय की राजनीति भी उसी समय शुरू कर दी थी। उत्तर प्रदेश में कल्याण सिंह का प्रयोग हो या मध्य प्रदेश में उमा भारती का या महाराष्ट्र में गोपीनाथ मुंडे का, यह भाजपा की सोशल इंजीनियरिंग का प्रयोग था। इसका नतीजा यह हुआ कि जब मंडल की यानी पिछड़ी जातियों की राजनीति केंद्रीय तत्व के तौर पर स्थापित हुई तो भाजपा उसकी सबसे बड़ी लाभार्थी बनी। नरेंद्र मोदी का प्रधानमंत्री बनना और लगातार तीन चुनावों में जीतना सिर्फ कमंडल यानी मंदिर या हिंदुत्व की राजनीति का नतीजा नहीं है, बल्कि यह मंडल के साथ समन्वय की राजनीति की जीत है। कांग्रेस इसमें पिछड़ गई और जब अस्तित्व पर संकट आया तो राहुल गांधी ओबीसी की माला जपते घूम रहे हैं।
करीब साढ़े तीन दशक में मंडल की राजनीति स्थापित होने के बाद अब दलित चेतना का उभार है और दलित राजनीति का समय आया हुआ है। परंतु सवाल है कि दलित चेतना के इस उफान का राजनीतिक लाभार्थी कौन होगा? यह दलित पुनर्जागरण का नया दौर है और इस दौरे में कोई नई राजनीतिक ताकत उभरेगी या दलित राजनीति की सबसे बड़ी ताकत रही बहुजन समाज पार्टी व मायावती इस मौके का लाभ लेंगे या दलित आईकॉन के तौर पर उभरे चंद्रशेखर आजाद को इसका लाभ मिलेगा? इसी तरह यह भी सवाल है कि भाजपा और कांग्रेस जैसी राष्ट्रीय पार्टियां इस नई राजनीति के हिसाब से अपने को ढालेंगी और इस मौके का फायदा उठाएंगी या अरविंद केजरीवाल जैसे नए नेता अपनी चतुराई से बाबा साहेब भीमराव अंबेडकर के नाम की राजनीति को साध लेंगे? आगे क्या होगा यह नहीं कहा जा सकता है कि लेकिन इतना तय है कि बाकी सभी पार्टियों के नेताओं के मुकाबले अरविंद केजरीवाल ज्यादा दूरदर्शी थे, जिन्होंन बरसों पहले महात्मा गांधी की तस्वीर उतार कर उसकी जगह डॉक्टर भीमराव अंबेडकर की तस्वीर लगा ली थी। उन्होंने अंबेडकर के साथ भगत सिंह की तस्वीर लगाई क्योंकि उनको पता था कि गांधी और नेहरू के मूल्य अपनी जगह हैं लेकिन अंबेडकर और भगत सिंह का रोष उनकी समूची सक्रियता का आक्रोश ज्यादा युवाओं को या ज्यादा बड़े समूह को आकर्षित कर सकता है। मोटे तौर पर यह बात सबको पता है कि अंबेडकर ने समाज में मौजूद छुआछूत और सामाजिक गैरबराबरी को दूर करना अपने जीवन का लक्ष्य बनाया था तो भगत सिंह सामाजिक के साथ साथ आर्थिक गैरबराबरी मिटाने की बात करते थे। आज अगर कोई भी राजनेता या पार्टी सामाजिक व आर्थिक गैर बराबरी को मुदा बना कर राजनीति करती है तो दूसरी किसी भी विचारधारा या सोशल इंजीनियरिंग के मुकाबले ज्यादा बड़े समूह को साथ में जोड़ सकता है।
बहरहाल, दलित चेतना का मौजूदा उभार विपक्षी गठबंधन की भाजपा विरोधी राजनीति के चलते संभव हो पाया है। विपक्षी पार्टियों ने जितने जोर शोर से यह मुद्दा उठाया कि देश का संविधान खतरे में है और भाजपा की केंद्र सरकार संविधान को समाप्त करना चाहती है, आरक्षण खत्म करना चाहती है और बाबा साहेब भीमराव अंबेडकर का अपमान कर रही है, उतने ही व्यापक रूप से अंबेडकर का प्रचार हुआ। लेकिन इस नए दौर से पहले भाजपा ने कांग्रेस विरोध में अंबेडकर को राजनीति में केंद्रीय जगह दी थी। असल में केंद्र में सत्ता में आने के बाद भाजपा ने बहुत कायदे से नेहरू गांधी परिवार की विरासत को कमतर करने का प्रयास किया। इसके लिए जरूरी था कि नए नायक खोजे जाएं और उनको बड़ा किया जाए। इस प्रयास में भाजपा ने सरदार वल्लभ भाई पटेल, नेताजी सुभाष चंद्र बोस, लाल बहादुर शास्त्री, मदन मोहन मालवीय, विनायक दामोदार सावरकर और डॉक्टर भीमराव अंबेडकर की जय जयकार शुरू की। भाजपा इस बात का श्रेय लेती है कि उसने देश भर में अंबेडकर से जुड़े पंचतीर्थों पर बड़े स्मारक और बड़ी इमारतें बनवाई हैं। भाजपा ने नेहरू गांधी परिवार के योगदान को कमतर करने के लिए अंबेडकर का ऐसा प्रचार किया कि सचमुच यह बात स्थापित हो गई कि उन्होंने ही भारत का संविधान बनाया था और अगर वे नहीं होते तो दलितों, आदिवासियों और पिछड़ों को संविधान से जो अधिकार मिले हैं, वह नहीं मिलते।
अब स्थिति यह है कि कोई भी नेता इस नैरेटिव को बदल नहीं सकता है। इसमें दलित मतदाताओं की नाराजगी का जोखिम है। यह जोखिम कोई पार्टी नहीं ले सकती है। तभी कांग्रेस हो या भाजपा या आम आदमी पार्टी हो या बसपा, आजाद समाज पार्टी जैसी प्रादेशिक पार्टियां हों सब इस मौके का लाभ लेने को लपकी हैं। इस समय देश में अंबेडकर सबसे बड़ा विमर्श हैं। उनके नाम के टीशर्ट स्टोर्स में बिक रहे हैं, ऑनलाइन उपलब्ध हैं और लोग उन्हें पहन कर तस्वीरें खिंचवा रहे हैं, उसे सोशल मीडिया पर शेयर कर रहे हैं, लोग अंबेडकर के नाम के टीशर्ट पहन कर बाजारों में घूम रहे हैं। नीला रंग वैसे तो इस सहस्त्राब्दी का रंग माना गया है लेकिन यह बड़ा राजनीतिक मैसेज डिलीवर करने वाला रंग बन गया है। गौरतलब है कि बहुजन राजनीति के प्रतीक के तौर पर नीला रंग इसलिए अपनाया गया ताकि यह मैसेज बनाया जा सके कि नीले आसमान के नीचे सब समान है, कोई गैर बराबरी नहीं है, कोई भेदभाव नहीं है। बहरहाल, दलित जातियों के गायक उभरे हैं, जो गर्व से अपनी जाति का नाम गानों में इस्तेमाल कर रहे हैं। अंबेडकर को दलितों का भगवान या भगवान से भी ऊपर बताने वाले गाने लिखे जा रहे हैं। देश में इस समय भगवान की आलोचना हो सकती है, सनातन धर्म की आलोचना हो सकती है लेकिन अंबेडकर आलोचना से परे हो गए हैं। यह भारतीय राजनीति का नया दौर है, जिसमें अंबेडकर को महापुरुष से ऊपर उठा कर भगवान के आसन पर बैठा दिया गया है।
संयोग ऐसा है कि बहुजन समाज पार्टी अपनी स्थापना के बाद के सबसे खराब दौर से गुजर रही है। सवाल है कि क्या कोई पार्टी या कोई नेता इस उभार का वैसा ही फायदा उठा सकता है, जैसा मंडल के बाद नेताओं और पार्टियों ने उठाया? क्या दलित समाज में राजनीतिक एकरूपता संभव है? क्या यूपी में बसपा और आसपा या बिहार में हम व लोजपा या महाराष्ट्र में आरपीआई या वीबीए या तमिलनाडु में वीसीके जैसी पार्टियां इस समय की राजनीति से फलफूल सकती हैं या जिस तरह से आजादी के बाद से सेकुलरिज्म के नाम पर गैरमुस्लिम नेताओं ने ही मुसलमानों की राजनीति की है वैसे ही गैर दलित ही क्या दलित राजनीति करेंगे? इस पर कल विचार करेंगे।