प्रजातंत्र में ‘बहुमत’ वरदान या अभिशाप…?
आज से करीब एक सौ साल पहले अंग्रेजों के गुलाम भारत को आजाद कराने का संघर्ष चलाने वाले हमारे स्वतंत्रता सेनानियों ने क्या कभी प्रजातंत्र के गुणों के साथ दोषों पर भी विचार किया था? ….और प्रजातंत्र में बहुमत की सरकार के बारे में भी चिंतन मनन किया था? शायद नहीं…. क्योंकि उन्हें इस बात की कल्पना ही नहीं की थी कि स्वतंत्र प्रजातांत्रिक देश में बहुमत के आधार पर चलने वाली सरकार कभी तानाशाह निरंकुश भी हो सकती है? किंतु आज विश्व में प्रजातंत्र देशों का ‘सिरमौर’ बना हमारा भारत इसी रास्ते की ओर अग्रसर हो रहा है, भारत के प्रथम प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू और उनकी बेटी इंदिरा जी के करीब साढ़े तीन दशक के शासनकाल के दौरान ही प्रजातंत्री भारत के बहुमत की सरकार में इस अवगुण ने प्रवेश किया, जिसके दर्शन आज भी यहां होने लगे हैं, बहुमत पाने के बाद सत्ताधारी दल व उसका नेतृत्व यह भूल जाता है कि वह एक लोकतंत्री या प्रजातंत्री देश का शासक है जिसका मूल मंत्र “जनता का, जनता द्वारा, और जनता के लिए” शासन है, वह उसे अपने दल की धरोहर समझ लेता है और अपनी सत्ता के भविष्य के कथित सुनहरे सपनों में विचरण करने लगता है, आज हमारे भारत में भी यही हो रहा है।
जिसमें ना सिर्फ प्रधानमंत्री जी के बयान के लिए अविश्वास प्रस्ताव लाना पड़ रहा है और प्रधानमंत्री जी अगले चुनाव के 200 दिन पहले ही एक कुशल भविष्यवक्ता की तरह अपने भावी शासनकाल की परिकल्पना में खोते नजर आते हैं, अब इसे हमारे प्रजातंत्री प्रणाली के दोष से जोड़कर देखा जाए या व्यक्ति विशेष के भावी सुनहरे सपनों से? सपने तो यहां तक बुने जा रहे हैं कि अगले याने तीसरे शासनकाल में भारत विश्व की 3 बड़ी हस्तियों वाले देशों में से एक होगा और वह स्वर्णिम काल होगा? …और यह बात प्रधानमंत्री जी गारंटी के साथ कह रहे हैं, क्या इस तरह चुनाव पद्धति से सरकार बनाने वाले देश के साथ अन्याय नहीं हैं?
और यदि हमारे माननीय प्रधानमंत्री जी के इन ‘अमृत वचनों’ को ‘बहुमत’ के दोषों के साथ जोड़कर देखा जाए तो क्या गलत है? बहुमत प्राप्त सरकार में अहम की भावना तो आ ही जाती है, क्योंकि आज हमारे प्रजातंत्री देश में बहुमत के अर्थ और संदर्भ जो बदल गए हैं? क्योंकि आज का एक अहम चिंतनीय विषय यह भी है कि क्या जिस देश के साथ लोकतंत्री या प्रजातंत्री शीर्ष जुड़ा हो, उस देश की सरकार को ‘प्रजा या लोक’ के हित की तनिक भी भावना शेष रही? सत्ता प्राप्ति के बाद जो भी सत्ता में होता है, वही बहुमत का दुरुपयोगी दल बन जाता है और सत्ता प्राप्ति के बाद ‘प्रजा या लोक’ से उसका संबंध खत्म हो जाता है, क्या बहुमत के इस अहम दोष की हमारे देश के पूर्व कर्णधारों ने कभी कल्पना भी की थी? इसलिए आज चिंता का सबसे बड़ा विषय ही यही है कि बहुमत प्राप्त सत्ताधारी दल में देश या लोक के हित की भावना कितनी निहित है?
…. फिर भी आज की इस दूषित परिपाटी के लिए केवल देश की राजनीति ही नहीं बल्कि हम सब देश के लोग भी जिन्होंने समय रहते इस दोष की पहचान नहीं की और इस बहुमत के दोष को पनपने दिया, इसलिए आज ‘बहुमत’ में ‘निरंकुशता’ व कथित ‘तानाशाही’ का समावेश हो गया है और देश की जनता को दर्शक दीर्घा में ही बैठे रहने को मजबूर होना पड़ रहा है।
अब समय रहते यदि इस महारोग का उचित इलाज नहीं खोजा गया तो वह दिन दूर नहीं जब हमें किसी विदेशी नहीं बल्कि स्वदेशी का ही गुलाम होकर रहना पड़ेगा।