चुनाव हार जाना गुनाह नहीं है

यह कांग्रेस का दुर्भाग्य है कि आज हर आदमी उसकी कमियां बता रहा है, सुधार कोई नहीं सुझा रहा है। यह भी दुर्भाग्य है कि लोग या तो कांग्रेस के संपूर्ण विरोध में खड़े हैं या संपूर्ण समर्थन में। कांग्रेस की स्थिति पर तार्किक विचार का स्पेस खत्म हो गया है। गुलाम नबी आजाद ने भी कांग्रेस छोड़ी तो पांच पन्नों की चिट्ठी लिख कर कांग्रेस की कमियां बताईं। उन्होंने कोई समाधान नहीं बताया, जबकि वे पांच दशक तक कांग्रेस से जुड़े रहे हैं और कांग्रेस के दो सबसे करिश्माई नेताओं- इंदिरा और राजीव गांधी के साथ काम किया है। इससे पहले भी कांग्रेस के जो नेता पार्टी छोड़ कर गए, उन्होंने पार्टी नेतृत्व के प्रति सिर्फ अपनी भड़ास निकाली और यह बताया कि उन्होंने पार्टी के लिए कितना कुछ किया है। बिना किसी अपवाद के सबने यह कहा कि पार्टी लगातार चुनाव हार रही है। लेकिन चुनाव हार जाना कोई गुनाह है, जैसे चुनाव जीत जाना ही राजनीति की सार्थकता नहीं है। इसलिए किसी पार्टी का चुनाव हारना उसको छोड़ने का पर्याप्त कारण नहीं हो सकता है।

हैरानी की बात है कि कांग्रेस के नेता पार्टी के चुनाव हारने की मिसाल देकर पार्टी छोड़ रहे हैं और मीडिया से लेकर सामान्य नागरिकों की चर्चाओं में भी इसको सही ठहराया जा रहा है। गुलाम नबी आजाद ने भी कहा कि पिछले आठ साल में कांग्रेस दो लोकसभा और 39 विधानसभा चुनाव हारी है। पार्टी लगातार चुनाव हार रही है तो क्या वे पार्टी छोड़ देंगे? उन्होंने अपने आसपास भी देखना जरूरी नहीं समझा कि कितनी पार्टियां लगातार चुनाव हार रही हैं फिर भी उनके नेता पार्टी नहीं छोड़ रहे हैं।

देश की कम्युनिस्ट पार्टियों ने सैकड़ों चुनाव हारे होंगे। 2004 के लोकसभा चुनाव में ऐतिहासिक प्रदर्शन करने के बाद लगातार उनकी सीटें घट रही हैं और एक एक करके पार्टी राज्यों की सत्ता से बाहर हो गई है। फिर भी कहीं यह सुनने को नहीं मिला कि उसके नेता पार्टी छोड़ रहे हैं। इक्का-दुक्का अपवाद हों तो वह अलग बात है। भारतीय जनसंघ और भाजपा लगातार चुनाव हारते रहे हैं। भाजपा का गठन 1980 में हुआ था और अगले लोकसभा चुनाव में वह सिर्फ दो सीटें जीत पाई थी। इसके बावजूद उसके नेता पार्टी छोड़ कर नहीं भाग रहे थे। वे चुनाव जीतने का रास्ता तलाश रहे थे।

अगर और मिसाल देखनी है तो ब्रिटेन की लेबर पार्टी को देख सकते हैं। लेबर पार्टी 2010 से विपक्ष में है। पिछल 12 साल से वह चुनाव हार रही है। उससे पहले 1997 से 2010 तक सरकार में रही थी लेकिन उससे पहले 1979 से 1997 तक पार्टी विपक्ष में रही। 1994 में टोनी ब्लेयर ने न्यू लेबर का नारा दिया और अपनी पार्टी के सिद्धांतों को समय के मुताबिक नया स्वरूप देकर जनता के बीच गए और लेबर पार्टी 1997 में सत्ता में आई। जब लेबर पार्टी 13 साल सत्ता में रही तब न कंजरवेटिव पार्टी के नेता चुनावी हार पर छाती पीट कर पार्टी छोड़ रहे थे और न अब जबकि लेबर पार्टी पिछले 12 साल से सत्ता से बाहर है तो उसके नेता छाती पीट कर पार्टी छोड़ रहे हैं। यह परिघटना सिर्फ ‘दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र’ की सबसे पुरानी पार्टी में ही देखने को मिलती है। पार्टी सत्ता से बाहर होती नहीं है कि नेता स्यापा करते हुए पार्टी छोड़ने लगते हैं। जाहिर है उनका पार्टी के सिद्धांतों, नीतियों या पार्टी के इतिहास से कोई लेना-देना नहीं होता है। उनका अपना हित सबसे ऊपर होता है और जब लगता है कि पार्टी या उसका मौजूदा नेतृत्व उनके हितों को पूरा करने में सक्षम नहीं है तो उन्हें पार्टी छोड़ने का फैसला करने में कोई समय नहीं लगता है।

गुलाम नबी आजाद भी उन्हीं नेताओं में से हैं, जिन्होंने निष्ठा और वैचारिक प्रतिबद्धता के ऊपर अपने निजी स्वार्थ को तरजीह दी। उन्होंने उस परिवार की तमाम कमियां बताईं, जिसकी परिक्रमा करके अपने जीवन की सारी उपलब्धियां हासिल की हैं। लेकिन पांच पन्नों की अपनी चिट्ठी में कोई वैचारिक सवाल नहीं उठाया। उन्होंने कांग्रेस के ऊपर वैचारिक विचलन या सिद्धांतों से समझौता करने का आरोप नहीं लगाया है।

उन्होंने यह भी नहीं बताया कि कांग्रेस अभी जो राजनीति कर रही है उसमें क्या कमी है? क्या कांग्रेस ने समाजवादी आर्थिक नीतियों, समरसता के सिद्धांत और धर्मनिरपेक्षता के विचार का त्याग किया है? क्या कांग्रेस ने अपने पारंपरिक मूल्यों के साथ कोई समझौता किया है? क्या राहुल गांधी केंद्र की जनविरोधी नीतियों का विरोध नहीं कर रहे हैं? क्या कांग्रेस पार्टी सांप्रदायिक और विभाजनकारी नीतियों के खिलाफ खड़ी नहीं है? उन्हें बताना चाहिए था कि इन मामलों में या इन नीतियों को लेकर वे कहां खड़े हैं! कांग्रेस ने तो बिलकिस बानो से बलात्कार के दोषियों की रिहाई का विरोध किया लेकिन खुद गुलाम नबी आजाद ने क्या किया?

हकीकत यह है कि आजाद की अपनी कोई वैचारिक प्रतिबद्धता नहीं है। उन्होंने कांग्रेस के अंदर की ऐसी समस्याएं बताई हैं, जिन्हें भारतीय राजनीति के परिप्रेक्ष्य में कोई समस्या नहीं माना जा सकता। कम्युनिस्ट पार्टियों को छोड़ दें तो बाकी सभी पार्टियों के अंदर फैसला करने का वहीं सिस्टम है, जो कांग्रेस में है और राजनीति करने का तरीका भी वहीं है, जैसे कांग्रेस कर रही है। भाजपा में भी फैसले राष्ट्रीय कार्यकारिणी में या संसदीय बोर्ड में नहीं होते हैं।

वहां भी फैसला अभी नरेंद्र मोदी और अमित शाह करते हैं और पहले अटल बिहारी वाजपेयी और लालकृष्ण आडवाणी करते थे। भाजपा भी व्यक्तियों के चेहरे और उनके निजी करिश्मे पर ही चुनाव लड़ती है। भले आरएसएस के स्वंयसेवक जमीनी स्तर पर काम करते हों लेकिन 1980 में अटल बिहारी वाजपेयी के चेहरे को आगे करके राजनीति करने और चुनाव लड़ने की जो परंपरा शुरू हुई वह आज तक जारी है। इसलिए अगर व्यक्तिवाद कोई बुराई है तो वह सिर्फ कांग्रेस पार्टी की नहीं है, बल्कि सभी पार्टियों की है।

सो, अच्छा होता कि गुलाम नबी आजाद पार्टी में रह कर नेहरू-गांधी परिवार के नेतृत्व को चुनौती देते। उनके एक साथी नेता मनीष तिवारी ने कहा है कि वे कांग्रेस में हिस्स

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