सुप्रीम कोर्ट के फैसले का सबक
इस साल दूसरी बार हुआ है, जब संवैधानिक और प्रशासनिक नियुक्तियों को लेकर सुप्रीम कोर्ट ने अहम फैसले सुनाए हैं। पहले मार्च में मुख्य चुनाव आयुक्त और चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति के संबंध और फिर जुलाई में प्रवर्तन निदेशालय यानी ईडी के प्रमुख की नियुक्ति के मामले में। दोनों फैसले सरकार के कामकाज पर सवालिया निशान लगाने वाले हैं। तभी सवाल है कि क्या सरकार इससे कुछ सबक लेगी या सब कुछ पहले की तरह एक ढर्रे पर चलता रहेगा? सुप्रीम कोर्ट के दो अहम फैसलों के बाद भी यह सवाल इसलिए है क्योंकि मौजूदा सरकार अधिकारियों की नियुक्ति के मामले में बिल्कुल अलग पैटर्न पर काम कर रही है।
बड़ी छानबीन के बाद अधिकारियों की नियुक्ति हो रही है और एक बार नियुक्ति हो जाने पर उस अधिकारी को लंबे समय तक पद पर बनाए रखा जाता है। संवेदनशील पदों पर भी ऐसे अधिकारी काम कर रहे हैं, जो सेवा विस्तार पर हैं या संविदा पर रखे गए हैं। इसमें सरकार की मंशा भले कुछ भी हो परंतु संदेश ऐसा जा रहा है कि सरकार अधिकारियों पर तलवार लटकाए रखना चाहती है ताकि उनसे मनमाना काम कराया जा सके।
प्रवर्तन निदेशालय के निदेशक संजय कुमार मिश्रा का मामला भी ऐसा ही है। उनको नवंबर 2018 में दो साल के निश्चित कार्यकाल के लिए नियुक्त किया गया था। नवंबर 2020 में कार्यकाल पूरा होने से पहले उनको एक साल का सेवा विस्तार दिया गया। उसी समय इस फैसले को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी गई। सर्वोच्च अदालत ने इस पर सुनवाई के बाद केंद्र सरकार को निर्देश दिया कि नवंबर 2021 में विस्तारित कार्यकाल खत्म होने के बाद सरकार उनको फिर से नियुक्ति नहीं देगी। लेकिन सरकार ने उनको पद पर बनाए रखने के लिए एक अध्यादेश जारी कर दिया, जिसमें कहा गया कि सरकार ईडी और सीबीआई के निदेशकों को दो साल के बाद तीन साल तक एक एक साल का सेवा विस्तार दे सकती है।
यानी उनको पांच साल तक पद पर रख सकती है। बाद में सरकार ने केंद्रीय सतर्कता आयोग (संशोधन) कानून 2021 और दिल्ली विशेष पुलिस स्थापना (संशोधन) कानून 2021 संसद से पास कराया। सुप्रीम कोर्ट ने संसद से पारित इन कानूनों की वैधता को स्वीकार किया लेकिन ईडी के तौर पर संजय कुमार मिश्रा को मिले तीसरे सेवा विस्तार को अवैध ठहराते हुए कहा कि वे 31 जुलाई तक ही पद पर रह सकते हैं। इस बीच सरकार नए ईडी प्रमुख की नियुक्ति करे। सुप्रीम कोर्ट ने 31 जुलाई तक का समय विशुद्ध रूप से प्रशासनिक कारणों से दिया ताकि प्रवर्तन एजेंसी का कामकाज प्रभावित न हो।
इस प्रकरण से कुछ गंभीर सवाल खड़े हुए हैं, जिन पर सरकार को विचार करना चाहिए। पहला सवाल तो यह है कि कोई भी व्यक्ति, चाहे किसी भी पद पर हो वह कैसे संवैधानिक नियमों, परंपराओं और अदालती आदेशों से ऊपर हो सकता है? दूसरा सवाल यह है कि कोई भी अधिकारी इतना अपरिहार्य कैसे हो सकता है कि उसके बगैर काम नहीं चले? ध्यान रहे सुप्रीम कोर्ट में सरकार ने मिश्रा को सेवा विस्तार देने के फैसले को इसी आधार पर न्यायसंगत ठहराया था कि वे कई महत्वपूर्ण और गंभीर मामलों की जांच कर रहे हैं इसलिए उनको नहीं हटाया जा सकता है।
सवाल है कि अब जबकि सुप्रीम कोर्ट ने उनको हटा दिया तो उन गंभीर और महत्वपूर्ण मामलों का क्या होगा? क्या अब उनकी जांच नहीं होगी? अगर कोई एक व्यक्ति इतना महत्वपूर्ण हो जाए कि उसके बगैर किसी संस्था का काम नहीं चले तो फिर इससे संस्था और व्यवस्था की कमजोरी जाहिर होती है। इससे यह पता चलता है कि व्यवस्था में कोई संरचनात्मक या संस्थागत खामी आ गई है। उसे तत्काल दूर किया जाना चाहिए।
सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने एक लंबा ट्विट करके कई बहुत अच्छी बातें कहीं, जिससे ऊपर उठाए गए सवालों का जवाब भी मिलता है। उन्होंने लिखा- ईडी एक संस्था है, जो किसी भी व्यक्ति से ऊपर है और यह प्रतिबद्ध है अपने लक्ष्य को हासिल करने के लिए। इसका लक्ष्य है- धन शोधन के अपराध और विदेशी मुद्रा कानूनों के उल्लंघन की जांच करना। सोचें, हर संस्था वहां काम करने वाले व्यक्तियों यानी अधिकारियों से ऊपर हो इससे अच्छी बात क्या हो सकती है! यह किसी भी लोकतांत्रिक व्यवस्था का बुनियादी सिद्धांत है कि व्यक्ति या अधिकारी संस्था के लिए होते हैं, संस्थाएं अधिकारियों या व्यक्तियों के लिए नहीं होती हैं।
संस्थाएं दशकों, सदियों तक नियमों के अनुपालन और हजारों, लाखों लोगों के अनथक परिश्रम का परिणाम होती हैं। उन्हें किसी एक व्यक्ति या व्यक्तियों के समूह पर निर्भर नहीं बनाया जा सकता है। हैरानी है कि अमित शाह इस बात को जानते हैं, जैसा कि उन्होंने ट्विट किया फिर भी उनकी सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में कहा था कि मौजूदा ईडी प्रमुख कई महत्वपूर्ण और गंभीर मामलों की जांच कर रहे हैं इसलिए उनको नहीं हटाया जा सकता है।
ध्यान रहे संवैधानिक, वैधानिक और प्रशासनिक पदों पर नियुक्ति की शुचिता, गरिमा और उस पर लाखों, करोड़ों लोगों का विश्वास तभी बनता है, जब उसमें पारदर्शिता हो और लोगों को लगे कि सरकार ने बिना किसी पक्षपात या पूर्वाग्रह के नियुक्ति की है। ऐसा हो या न हो लेकिन सार्वजनिक तौर पर ऐसा दिखना जरूर चाहिए। दुर्भाग्य से पिछले कुछ समय से नियुक्तियां इस अंदाज में हो रही हैं और इस अंदाज में अधिकारियों को सेवा विस्तार दिया जा रहा है, जिसमें पारदर्शिता की कमी दिख रही है। उनसे ऐसा मैसेज जा रहा है कि सरकार किसी खास मकसद से किसी अधिकारी को नियुक्त कर रही है या किसी अधिकारी को किसी खास पद पर लंबे समय तक बनाए रख रही है। पिछले साल चुनाव आयुक्त के तौर पर अरुण गोयल की नियुक्ति के मामले में भी ऐसा ही हुआ था।
सुप्रीम कोर्ट ने खुद सरकार का ध्यान इस ओर दिलाया था। जस्टिस केएम जोसेफ की अध्यक्षता वाली पांच जजों की संविधान पीठ ने फैसले में लिखा- हम इस बात से थोड़े हैरान हैं कि अधिकारी ने 18 नवंबर को स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति के लिए आवेदन कैसे किया था, अगर उन्हें नियुक्ति के प्रस्ताव के बारे में पता नहीं था। ध्यान रहे अरुण गोयल 1985 बैच के पंजाब काडर के आईएएस अधिकार हैं। उनको 31 दिसंबर 2022 को रिटायर होना था लेकिन उन्होंने 18 नवंबर को अचानक स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति के लिए आवेदन किया और अगले दिन यानी 19 नवंबर को उनको चुनाव आयुक्त बना दिया गया। उन्होंने 21 नवंबर को कार्यभार भी संभाल लिया। मौजूदा मुख्य चुनाव आयुक्त राजीव कुमार फरवरी 2025 में रिटायर होंगे और उसके बाद अरुण गोयल मुख्य चुनाव आयुक्त बन सकते हैं। सुप्रीम कोर्ट ने गोयल की नियुक्ति पर कोई फैसला नहीं सुनाया लेकिन सरकार से कहा कि मुख्य चुनाव आयुक्त और चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति का कानून बनने तक तीन सदस्यों के पैनल के जरिए इनकी नियुक्ति की जाए। पैनल में प्रधानमंत्री, सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस और लोकसभा में सबसे बड़ी पार्टी के नेता सदस्य होंगे। सीबीआई निदेशक की नियुक्ति भी ऐसे ही होती है।
ध्यान रहे पहले सीबीआई निदेशक की नियुक्ति सिर्फ सरकार की मर्जी से होती थी और तब भी विपक्षी पार्टियां इस एजेंसी के दुरुपयोग के आरोप लगाती थीं। बाद में सुप्रीम कोर्ट की पहल पर ही तीन सदस्यों के पैनल के जरिए नियुक्ति होने लगी। हालांकि इससे सीबीआई पर पक्षपात के आरोप लगने बंद नहीं हो गए। इस व्यवस्था में ही सीबीआई के इतिहास का सबसे बुरा विवाद कुछ समय पहले हुआ था, जब निदेशक को आधी रात को हटाया गया था और सीआरपीएफ की सुरक्षा में एक अधिकारी को कार्यकारी निदेशक बनाया गया था। बहरहाल, इन दोनों मामलों का सबक यह है कि सरकार को सभी महत्वपूर्ण नियुक्तियों में पारदर्शिता बरतनी चाहिए और यह भी ध्यान रखना चाहिए कि लोगों में यह संदेश नहीं जाए कि सरकार अपनी पसंद के अधिकारी बनाने या बनाए रखने के लिए नियमों को तोड़-मरोड़ रही है। सरकार अपने भरोसे से अधिकारी लाने की बजाय सभी अधिकारियों पर भरोसा करने लगे तो ऐसी समस्या नहीं आएगी।