संवेदनशील मुद्दों को चुनाव से दूर रखें

राज्य और राजनीति का संबंध चोली दामन का है। लेकिन राजनीति का अस्तित्व राज्य के पहले से है। जब राज्य की उत्पत्ति नहीं हुई थी तब भी राजनीति थी। आज भी राज्य से इतर हर जगह राजनीति मौजूद है। परिवारों में राजनीति होती है, काम करने की जगहों पर होती है, खेल के मैदान में होती है आदि आदि। कहने का मतलब यह है कि कोई भी जगह ऐसी नहीं है, जहां राजनीति नहीं है। इसके बावजूद कुछ चीजें ऐसी होती हैं, जिनकी संवेदनशीलता को ध्यान में रखते हुए उन्हें राजनीति से दूर रखना चाहिए।

अगर उनको राजनीति में शामिल किया गया तो उससे किसी का भला नहीं होगा, उलटे देश की सामाजिक व आर्थिक संरचना बहुत बुरी तरह से प्रभावित होगी। ऐसी चीजों में खान-पान शामिल है, पहनावा और भाषा-बोली का मुद्दा शामिल है। धर्म और जाति को इसमें इसलिए नहीं जोड़ते हैं क्योंकि ये दोनों भारत की समाज व्यवस्था के आधार स्तंभ हैं। वैयक्तिकता से ज्यादा इसमें सामाजिकता का अंश है इसलिए इनको राजनीति से अलग नहीं रख सकते। दशकों पहले प्रोफेसर रजनी कोठारी ने जाति को लेकर कहा था कि यह भारतीय समाज का सबसे महत्वपूर्ण स्तंभ है इसलिए यह सोचना गलत होगा कि राजनीति बिना जाति के हो। यह एक काल्पनिक स्थिति होगी।

बहरहाल, खान-पान और पहनावा नितांत वैयक्तिक मामला है, जिसे राजनीति में नहीं घसीटना चाहिए और इसी तरह भाषा का मामला भी बेहद संवेदनशील है, जिस पर राजनीति नहीं करनी चाहिए। जाति से ज्यादा भाषा बड़े समूहों की अस्मिता से जुड़ी है। वह क्षेत्र विशेष की न सिर्फ संस्कृति का प्रतिनिधित्व करती है, बल्कि नागरिक समूहों की पहचान का भी प्रतिनिधित्व करती है। तभी कांग्रेस नेता राहुल गांधी ने तमिलनाडु की रैली में भाजपा पर हमला करने के लिए भाषा का मुद्दा उठा कर अच्छा नहीं किया।

उनका निशाना भाजपा पर था लेकिन यह कह कर उन्होंने तमिल लोगों की दुखती रग पर हाथ रखा कि भाजपा एक देश, एक भाषा लाना चाहती है। इसमें संदेह नहीं है कि भाजपा हिंदी को प्रोत्साहित कर रही है लेकिन वह तमिलनाडु में या कर्नाटक और आंध्र प्रदेश में हिंदी नहीं थोप रही है। भाषा को राजनीति का मुद्दा बनाने का काम कर्नाटक में कांग्रेस की सरकार भी कर रही है। चुनाव से ऐन पहले राज्य सरकार ने 60 फीसदी साइन बोर्ड कन्नड़ भाषा में लिखने का नियम बनाया। कुछ समय पहले भी भाषा का विवाद हआ था, जब कई जगह हिंदी में लिखे गए नामों पर कालिख पोती गई थी। भाषा का विवाद अंततः विभाजन की ओर ले जाता है।

ध्यान रहे भारत में राज्यों का पुनर्गठन भाषायी आधार पर हुआ था और आज तक इसका विवाद नहीं सुलझा है। कर्नाटक के एक हिस्से के लिए महाराष्ट्र के लोग लड़ रहे हैं तो महाराष्ट्र की राजधानी मुंबई को लेकर गुजरात के लोगों के दिलों में कसक बनी हुई है। कई राज्यों में इस तरह के विवाद चल रहे हैं। अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी भाषा बेहद संवेदनशील मुद्दा है। आखिर रूस के राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन ने यूक्रेन के उस पूर्वी हिस्से को निशाना बनाया, जहां रूसी बोलने वालों की आबादी ज्यादा थी।

इस आधार पर उन्होंने इन इलाकों पर अपना हक जताया था। इतिहास पढ़ने वालों को पता है कि हिटलर ने भी पहले चेकोस्लोवाकिया के उन हिस्सों पर दावा किया था, जहां जर्मन बोलने वालों की आबादी ज्यादा थी। तभी विंस्टन चर्चिल ने संधि की बात कर रहे नेताओं से कहा था कि भेड़िए के सामने मांस का एक टुकड़ा फेंक कर उसको हमेशा के लिए शांति नहीं कराया जा सकता है। अंत में वही हुआ और पूरे चेकोस्लोवाकिया पर कब्जा करने के बाद हिटलर ने पोलैंड पर भी हमला कर दिया। सो, भाषा की वजह से अंतरराज्यीय और अंतरराष्ट्रीय लड़ाइयां हुई हैं। इसका ध्यान रखना चाहिए।

इसी तरह का मामला खान-पान का है। यह व्यक्ति का नितांत निजी व्यवहार है, जिससे राज्य को या राजनीतिक दलों को कोई मतलब नहीं होना चाहिए। अगर लालू प्रसाद और राहुल गांधी सावन के महीने में मटन पका रहे थे और उसका वीडियो डाला था या चैत्र नवरात्रि के पहले दिन तेजस्वी यादव और मुकेश सहनी ने मछली खाने की वीडियो डाली तो उससे किसी को कोई मतलब नहीं होना चाहिए।

लेकिन दुर्भाग्य से भारतीय जनता पार्टी के कई नेताओं ने इसे मुद्दा बनाया और अंत में खुद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी चुनावी सभा में इसका जिक्र किया। इतना ही नहीं उन्होंने वीडियो डालने को मुगलिया मानसिकता बताते हुए कहा कि इसके जरिए लोगों को चिढ़ाया जा रहा है। अब यह बड़ा राजनीतिक मुद्दा बन गया है। विवाद बिहार से शुरू हुआ लेकिन पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी कह रही हैं कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को मछली खाने वाले लोग पसंद नहीं हैं। उनको पता है कि मछली खाना पूर्वी भारत के एक बड़े हिस्से में अस्मिता से जुड़ा हुआ है।

बहरहाल, यह बिल्कुल समझ में नहीं आने वाली बात है कि भारत सरकार के नेशनल फैमिली हेल्थ सर्वे के मुताबिक जिस देश में 80 फीसदी पुरुष और 70 फीसदी महिलाएं नियमित या कभी कभी मांसाहार करती हैं वहां मांस या मछली खाने को राजनीतिक मुद्दा कैसे बनाया जा सकता है? शाकाहार और मांसाहार की जो बहस अकादमिक स्तर पर चलती थी, पिछले कुछ समय से इसे सार्वजनिक विमर्श का विषय बनाया जा रहा है। बहुत कम संख्या में होने के बावजूद शाकाहार करने वाला समूह मांसाहार को गलत साबित करने का नैरेटिव चला रहा है। असल में यह भारत में जाति प्रथा और छुआछूत की परंपरा का ही एक हिस्सा है। शुद्ध शाकाहारी का पूरा सिद्धांत ही छुआछूत की मान्यता पर आधारित है।

जाति की जो संरचना और एक खास वर्ग में जातीय श्रेष्ठता का जो भाव आया उसकी बुनियाद में खान-पान की परंपराएं रहीं। इसका एक दूसरा पहलू यह भी है कि जाने अनजाने में हिंदू समाज को वैष्णव मानने या बनाने की गलती हो रही है। हिंदू धर्म में वैष्णव एक धारा है, जिसके ज्यादातर लोग मांसाहार नहीं करते हैं। लेकिन उतना ही मजबूत शाक्त संप्रदाय है, जिसके लोग बलि भी देते हैं और धार्मिक अवसरों पर भी मांसाहार करते हैं। तो क्या शिव और शक्ति को मानने वालों को सत्ता प्रतिष्ठान के बल पर वैष्णव बनाने का प्रयास चल रहा है?

अगर किसी के दिमाग में ऐसी सोच है तो उसे हिंदू धर्म के अलग अलग संप्रदायों के संघर्षों का इतिहास भी देखना चाहिए। उनकी परंपराओं और मान्यताओं के बारे में भी जानना चाहिए। देश के आदिवासी और अनुसूचित जाति समूहों की खान-पान की संस्कृति के बारे में भी जानना चाहिए और चुनावी लाभ हानि के लिए ऐसी संवेदनशील मुद्दों को राजनीति में नहीं लाना चाहिए।

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