विपक्ष के लिए नाम प्रोजेक्ट करना जरूरी नहीं

विपक्षी पार्टियों के गठबंधन में अब इस बात पर बहस हो रही है कि अगले लोकसभा चुनाव में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के मुकाबले विपक्ष की ओर से कौन चेहरा होगा? कुछ समय पहले तक लग रहा था कि यह मुद्दा नहीं बनेगा, लेकिन ‘इंडिया’ की नई दिल्ली में हुई चौथी बैठक में अनायास ममता बनर्जी ने यह मुद्दा उठा दिया। उन्होंने प्रस्तावित किया कि कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे को प्रधानमंत्री पद का दावेदार बना कर विपक्ष को चुनाव लड़ना चाहिए। अरविंद केजरीवाल ने इसका समर्थन किया। यह गठबंधन के भीतर बने दबाव समूह का काम था, जिसका निशाना राहुल गांधी की दावेदारी सामने आने से पहले ही उसे पंक्चर करने का था। लेकिन दिलचस्प बात यह है कि उसके बाद से यह चर्चा शुरू हो गई है और अखबारों में लेख लिखे जाने लगे हैं कि विपक्ष के लिए क्या अच्छा होगा। राजनीतिक विश्लेषकों की जमात इस पर बंटी हुई है लेकिन ज्यादातर ने खड़गे का समर्थन किया है और नरेंद्र मोदी के मुकाबले उनका चेहरा पेश करके लड़ने को अच्छा विकल्प माना है।

इस बहस से दो सवाल खड़े होते हैं। पहला, क्या सचमुच विपक्षी गठबंधन को प्रधानमंत्री पद का दावेदार पेश करके चुनाव लड़ना चाहिए? और दूसरा, अगर दावेदार पेश करना है तो क्या खड़गे सबसे अच्छा विकल्प हैं? दूसरे सवाल का जवाब बहुत आसान है लेकिन उस पर बाद में आएंगे। पहले इस सवाल पर विचार की जरूरत है कि क्या विपक्ष को चेहरे की जरुरत है? इसका भी जवाब बहुत जटिल नहीं है। विपक्ष को नरेंद्र मोदी के मुकाबले कोई चेहरा पेश करने की जरुरत नहीं है। इसके कई ठोस कारण हैं। पहला कारण तो यह है कि विपक्ष के पास अभी जो चेहरे हैं वो मोदी का विकल्प नहीं हो सकते हैं। उन्हीं चेहरों की प्रतिक्रिया में तो जनता मोदी को लगातार चुन रही है। जब भी किसी व्यक्ति से मोदी के विकल्प के बारे में बात करें तो वह कहता मिलेगा कि मोदी को नहीं तो क्या राहुल को चुन दें, केजरीवाल को चुन दें, मायावती को चुन दें या लालू को चुन दें। उसकी बातों से ऐसा प्रतीत होगा कि वह राजनीति के तमाम पुराने चेहरों से ऊबा हुआ है और उनकी प्रतिक्रिया में मोदी को चुन रहा है।

मोदी के मुकाबले कोई बहुत लोकप्रिय और स्वीकार्य चेहरा नहीं होने के अलावा कोई चेहरा उतारने में दूसरी समस्या यह है कि ज्यादातर चेहरों को केंद्र सरकार की एजेंसियों की कार्रवाई और मीडिया के प्रचार से भ्रष्ट या परिवारवादी साबित किया जा चुका है। कांग्रेस से लेकर आम आदमी पार्टी, सपा, राजद, डीएमके, शिव सेना, एनसीपी सहित तमाम विपक्षी पार्टियों के ऊपर केंद्रीय एजेंसियों की कार्रवाई चल रही है। सबको ईडी या सीबीआई ने बुला कर पूछताछ किया है या पूछताछ के लिए समन जारी किया हुआ है। अगर ऐसा कोई नेता प्रोजेक्ट होता है तो उससे कोई सकारात्मक मैसेज नहीं बनेगा और उलटे चेहरा सामने आते ही केंद्रीय एजेंसियों की कार्रवाई तेज हो जाएगी।

तीसरी समस्या यह है कि जैसे ही एक चेहरा प्रोजेक्ट होगे वैसे ही बाकी प्रादेशिक पार्टियों और उनके समर्थकों की चुनाव में दिलचस्पी खत्म हो जाएगी। जिस राज्य का नेता प्रोजेक्ट किया जाएग उस राज्य में तो हो सकता है कि माहौल उसके पक्ष में बने लेकिन बाकी राज्यों में उसके नाम पर वोट मिलने की संभावना बहुत कम हो जाएगी। ऐसा इसलिए है क्योंकि विपक्षी गठबंधन की पार्टियों में किसी के पास ऐसा नेता नहीं है, जो पिछले 20 साल या उससे ज्यादा समय से देश का प्रधानमंत्री बनने की तैयारी में राजनीति कर रहा हो या जिसकी पूरे देश में अपील हो। नरेंद्र मोदी नब्बे के दशक से यह राजनीति कर रहे थे। ढाई दशक की तैयारी और प्रतीक्षा के बाद वे प्रधानमंत्री पद के दावेदार के तौर पर प्रस्तुत हुए थे। विपक्ष के पास ऐसा कोई नेता नहीं है। मोदी ने अपनी ब्रांडिंग हिंदुत्व के अखिल भारतीय आईकॉन की तरह की थी। लेकिन विपक्ष के किसी नेता की अखिल भारतीय राजनीति को ध्यान में रख कर ऐसी ब्रांडिंग नहीं हुई है।

राहुल गांधी इसके अपवाद हैं। कांग्रेस के अखिल भारतीय जनाधार और उनकी भारत जोड़ो यात्रा से उनकी ब्रांडिंग ऐसी हुई है। लेकिन उनके साथ मुश्किल यह है कि भाजपा ने अपने प्रचार के दम पर पिछले 10 साल में उनको नासमझ और अपरिपक्व नेता के तौर पर ब्रांड किया है और साथ ही यह धारणा बनवाई है कि वे जबरदस्ती राजनीति में उतारे गए हैं। ऊपर से नेशनल हेराल्ड केस का मामला है, जिसमें वे जमानत पर हैं। तीसरे, उनकी मां सोनिया गांधी की पृष्ठभूमि के जरिए राहुल को इटली से जोड़ा जाता है। राहुल के अलावा विपक्ष के लगभग सभी नेता अपने राज्य और जाति-समुदाय के दायरे में बंधे हुए हैं। इसलिए मोदी के मुकाबले किसी को भी पेश करते ही पलड़ा मोदी के पक्ष में झुक जाएगा। एक तरफ मोदी की लार्जर दैन लाइफ छवि है, जिसे बड़ी मेहनत से गढ़ा गया है तो दूसरी ओर एक एक राज्य में सिमटे ऐसे नेता हैं, जिनकी छवि भ्रष्ट और परिवारवादी नेता की बना दी गई है।

अब सवाल है कि विपक्ष अगर चेहरा पेश करके नहीं लड़ता है उसके क्या फायदे और नुकसान हैं? नुकसान तो यह है कि अगर विपक्षी पार्टियां किसी नेता को प्रोजेक्ट करके चुनाव नहीं लड़ती हैं तो भाजपा बार बार पूछेगी कि मोदी के मुकाबले विपक्ष का चेहरा कौन है? विपक्षी बारात का दूल्हा कौन है यह भी पूछा जाएगा। लेकिन ‘मोदी के मुकाबले अमुक’ की बजाय ‘मोदी के मुकाबले कोई नहीं’ का नैरेटिव कम नुकसानदेह है। क्योंकि तब विपक्षी गठबंधन की तमाम प्रादेशिक पार्टियां अपने अपने राज्य में अपने नेता के नाम पर चुनाव लड़ पाएंगी। प्रादेशिक नेता अपने असर वाले राज्य में नैरेटिव बना सकते हैं कि अगर विपक्ष जीतता तो वे भी प्रधानमंत्री बन सकते हैं। प्रादेशिक पार्टियां राज्यों में अस्मिता का कार्ड खेल सकती हैं। बंगाल में ममता बनर्जी देश के पहले बंगाली प्रधानमंत्री का दांव चल सकती हैं तो महाराष्ट्र में शरद पवार पहले मराठी और कर्नाटक में मल्लिकार्जुन खड़गे पहले कन्नड़ प्रधानमंत्री का दांव खेल सकते हैं। यह दांव विधानसभा चुनाव में भाजपा हर जगह खेलती है। अभी पांच राज्यों में उसने दस-दस दावेदार बना दिए थे। इसका फायदा उसको हुआ था। लोकसभा चुनाव में एक दावेदार की बजाय कई दावेदार होने का फायदा ‘इंडिया’ को मिल सकता है। हालांकि भाजपा यह धारणा बनवाएगी कि अगर इनको जिताया तो खींचतान होगी और बारी बारी से सब प्रधानमंत्री बनेंगे लेकिन एक चेहरा प्रोजेक्ट कर लड़ने से पहले ही हार जाने की बजाय कोई चेहरा नहीं पेश करके सामूहिक नेतृत्व में लड़ना ज्यादा बेहतर रणनीति होगी।

जहां तक दूसरे सवाल यानी खड़गे को दावेदार बना कर लड़ने की बात है तो वह अच्छी रणनीति नहीं होगी। इससे उत्तर और दक्षिण का विभाजन बढ़ाने का भाजपा को मौका मिलेगा। विपक्ष दक्षिण भारत तक सिमटेगा और उत्तर, पूर्वी व पश्चिमी भारत में भाजपा 80 फीसदी से ज्यादा सीटें जीतेगी। खड़गे अगर दावेदार बन कर उत्तर भारत के किसी राज्य से लड़ते भी हैं तो उनका माहौल मोदी की तरह व्यापक नहीं होगा। मोदी हिंदू आईकॉन की तरह लड़े थे, जबकि खड़गे दलित पहचान के साथ लड़ेंगे। इसके बावजूद उत्तर, पूर्वी और पश्चिमी भारत के दलित उनके साथ जुड़ेंगे इसमें संदेह हैं। ऊपर से दलित अस्मिता का ज्यादा प्रचार हुआ तो नुकसान यह होगा कि पिछड़े, आदिवासी और सवर्ण सब नाराज होंगे। यह नहीं हो सकता है कि दलित नेता का चेहरा आगे कर रहे हैं तो पिछड़े, आदिवासी साथ आ जाएंगे। जमीनी स्तर पर उनका आपसी सामाजिक संघर्ष बहुत गहरा है। दलित अगर दबंग पिछड़ी जातियों से प्रताड़ित हैं तो बिहार, उत्तर प्रदेश, राजस्थान, मध्य प्रदेश सहित ज्यादातर राज्यों में दलित एक्ट के तहत मुकदमा झेल रहे लोगों में बड़ी संख्या पिछड़ी जातियों के लोगों की है। सो, इनकी राजनीतिक एकता मुश्किल है। एक समस्या खड़गे की उम्र को लेकर भी है। वे 82 साल के हैं इसलिए युवा मतदाताओं में जोश जगाने का काम वे नहीं कर सकते हैं। हालांकि मोदी भी 73 साल के हैं लेकिन अपनी बातों और एजेंडे से उन्होंने युवाओं को दिवाना बनाया हुआ है।

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