समान नागरिक संहिता क्या राज्यों का मामला है?

भारतीय जनता पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष जेपी नड्डा ने कहा है कि उनकी पार्टी राज्यों के जरिए समान नागरिक संहिता यानी यूसीसी को लागू करेगी। हिमाचल प्रदेश के विधानसभा चुनाव के लिए जारी संकल्प पत्र में इसका जिक्र किया गया है और गुजरात में भी भाजपा की राज्य सरकार ने चुनाव की घोषणा से ठीक पहले यूसीसी पर विचार करने के लिए एक कमेटी बनाने का ऐलान कर दिया। इसी साल के शुरू में उत्तराखंड में लगातार दूसरी बार सरकार बनाने के बाद भाजपा ने यूसीसी पर विचार के लिए कमेटी बनाने का ऐलान किया। उत्तर प्रदेश सहित अनेक भाजपा शासित राज्यों में अलग अलग इसका ऐलान किया गया है या किया जा रहा है, जिससे स्वाभाविक रूप से यह समझ आ रहा था कि भाजपा एक चुनावी एजेंडे के तौर पर इसका इस्तेमाल कर रही है। लेकिन अब पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष ने पार्टी की सैद्धांतिक स्थिति स्पष्ट कर दी है। उन्होंने कहा है कि भाजपा राज्यों के जरिए समान नागरिक संहिता लागू करेगी।

अब सवाल है कि क्या समान नागरिक संहिता का मामला राज्यों का मामला है? अगर यह राज्यों का मामला है तो कितने बरसों से अनेक राज्यों में भाजपा की सरकार चल रही थी तो वहां उसे क्यों नहीं लागू किया गया? गुजरात में तो भाजपा की सरकार 27 साल से है, जिसमें 13 साल तक खुद नरेंद्र मोदी मुख्यमंत्री रहे हैं, फिर भी गुजरात में इसे क्यों नहीं लागू किया गया? यह भी बड़ा सवाल है कि अगर यह राज्यों का मुद्दा है तो लोकसभा के हर चुनाव में भारतीय जनता पार्टी के घोषणापत्र में इसका जिक्र क्यों किया जाता रहा है? ध्यान रहे लोकसभा के हर चुनाव में भाजपा अपने घोषणापत्र में वादा करती है कि केंद्र में उसकी सरकार बनी तो वह समान नागरिक संहिता लागू करेगी। सोचें, भाजपा को जब यह योजना केंद्रीय स्तर पर लागू करनी थी तो उसने क्यों और कब इरादा बदल दिया और राज्यों के जरिए लागू कराने का फैसला किया? इस फैसले का क्या कारण है?

ध्यान रहे यह भारतीय जनसंघ और भारतीय जनता पार्टी दोनों की ओर से किए जाने वाले सबसे पुराने वादों में से यह एक है। यह भी हकीकत है कि यह एकमात्र बड़ा वादा है, जिसे भाजपा अभी पूरा नहीं कर पाई है। दशकों से भाजपा के घोषणापत्र में अनुच्छेद 370 खत्म करने और कश्मीर का विशेष दर्जा समाप्त करने का वादा होता था, जिसे इस बार चुनाव जीतने के बाद पूरा कर दिया गया। अयोध्या में भव्य राममंदिर का निर्माण दूसरा बड़ा वादा था और वह भी सुप्रीम कोर्ट के आदेश से पूरा हो गया है। जमीन का फैसला सुप्रीम कोर्ट से हुआ लेकिन उसके बाद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कोरोना के बीच भव्य समारोह में भूमिपूजन किया और संघ प्रमुख मोहन भागवत भी इस दौरान मौजूद रहे। इसी तरह भाजपा की केंद्र सरकार ने नागरिकता कानून में संशोधन करके पड़ोसी देशों से प्रताड़ित होकर आने वाले गैर मुस्लिमों को नागरिकता देने का कानून बना दिया है। सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद केंद्र सरकार ने मुसलमानों में प्रचलित तीन तलाक की परंपरा को अपराध बनाने का कानून पास कराया और इस तरह से समान नागरिक संहिता की ओर एक कदम बढ़ाया।

कह सकते हैं कि नरेंद्र मोदी सरकार ने इस कार्यकाल में तमाम तरह के विवादित मसलों पर फैसला किया और लोकसभा में प्रचंड बहुमत व राज्यसभा में प्रबंधन के दम पर कानून पास कराए। तभी हैरानी है कि वह क्यों समान नागरिक संहिता के मसले पर इतना उलझा हुआ रास्ता अख्तियार कर रही है? संसद में भाजपा के पास पूरा बहुमत है। राज्यसभा में अगर संख्या कुछ कम है तो देश की कई पार्टियां उसके साथ परोक्ष रूप से जुड़ी हैं। समान नागरिक संहिता का मुद्दा ऐसा है, जिस पर कई विपक्षी पार्टियां भी उसका साथ दे सकती हैं। सबको पता है कि देश के हर नागरिक के लिए समान कानून की बात संविधान के दिशा निर्देशक तत्वों में की गई है। संविधान की रचना करने वाले महापुरुषों ने इसका कानून नहीं बनाया लेकिन उनको भी लग रहा था कि देश की एकता और अखंडता के लिए यह जरूरी है। तभी उन्होंने संविधा के अनुच्छेद 44 में शामिल किया और कहा कि राज्य भारत के पूरे क्षेत्र में नागरिकों के लिए समान नागरिक संहिता सुनिश्चित करने का प्रयास करेगा। इसके बावजूद पता नहीं क्यों केंद्र सरकार खुद पहल नहीं कर रही है?

राज्यों के जरिए समान नागरिक संहिता लागू करने का प्रयास बहुत व्यावहारिक और तर्कसंगत नहीं है। क्योंकि फिर यह पूरे देश की समान नागरिक संहिता नहीं होगी। यह हर राज्य की अपनी समान संहिता होगी, जिसमें एक राज्य का कानून दूसरे राज्य से भिन्न हो सकता है। एक राज्य का नागरिक एक तरह के कानून का पालन करेगा और दूसरे राज्य का नागरिक दूसरी तरह का। राज्यों के कानूनों में न समानता होती और न एकरूपता होगी। दूसरा खतरा यह है कि गैर भाजपा शासित राज्यों में हो सकता है कि समान नागरिक संहिता कानून न बने। कांग्रेस और दूसरी विपक्षी पार्टियां अपने शासन वाले राज्य में इसका विरोध कर सकती हैं। ऐसे में पूरे देश में समान कानून बनाने का लक्ष्य हासिल नहीं होगा। उलटे कानून में नए तरह की विसंगतियां दिखने लगेंगी।

भाजपा ने जिस तरह राज्यवार इसको लागू करने का एजेंडा बनाया है उससे यह लग रहा है कि पार्टी इस नाम पर हर राज्य में चुनाव जीतने की योजना पर काम कर रही है। अगर केंद्र सरकार इसे लागू करती है तो उसे सिर्फ लोकसभा के चुनाव में फायदा होगा लेकिन अगर राज्यवार इसकी घोषणा की जाती है तो यह ऐसा भावनात्मक और ध्रुवीकरण कराने वाला एजेंडा है कि भाजपा हर राज्य में बहुसंख्यक वोट के ध्रुवीकरण का फायदा उठा सकती है। इसके अलावा और कोई ठोस कारण समझ में नहीं आ रहा है। हालांकि भाजपा सभी राज्यों में चुनाव जीत जाए और हर राज्य में अलग अलग समान नागरिक संहिता लागू हो, तब भी कानून की विसंगतियां दूर नहीं होंगी। इसलिए केंद्र सरकार को पहल करनी चाहिए। उसे राज्यों और सभी पार्टियों के साथ विचार विमर्श शुरू करना चाहिए और एक मसौदा बना कर सबको विचार के लिए देना चाहिए। यह ऐसा मुद्दा है, जिस पर एक राय बनाई जा सकती है। दूसरा तरीका यह है कि सरकार इसे अदालत के जरिए ही लागू होने दे। जैसे तीन तलाक को अदालत ने अवैध किया उसी तरह बहुविवाह का मामला भी अदालत में है। लेकिन अदालत वाले रास्ते से समान नागरिक संहिता बनी तो उसका राजनीतिक लाभ नहीं मिल पाएगा।

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