सुनक पर असंगत और तर्कहीन बहस
भारतीय मूल के ऋषि सुनक का ब्रिटेन का प्रधानमंत्री बनना पूरी दुनिया के लिए दिलचस्पी का विषय है। दुनिया भर में इस बात पर चर्चा है कि वे ब्रिटेन को आर्थिक संकट से निकाल पाएंगे या नहीं? उन्होंने छह दिन में अपनी आर्थिक योजना पेश करने का वादा किया है। सबकी नजर उस पर है कि वे महंगाई को काबू में करने, ब्याज दरों में बढ़ोतरी और बाजार की उथल-पुथल को काबू में करने के लिए क्या चमत्कारिक योजना लाते हैं। उनकी पूर्ववर्ती प्रधानमंत्री लिज ट्रस ने बिना किसी योजना के अपने मिनी बजट में टैक्स कटौती करने और सरकारी खर्च बढ़ाने की घोषणा की थी, जिससे ब्रिटेन की अर्थव्यवस्था गंभीर संकट में फंस गई थी। सुनक इससे अलग क्या करते हैं, जिससे तात्कालिक संकट टले और लंबे समय में ब्रिटेन आर्थिक मंदी की चपेट में आने से बचे इस पर दुनिया की नजर है। लेकिन भारत में इसे लेकर कोई चर्चा नहीं है। कहीं यह सुनने को नहीं मिला कि सुनक की वित्तीय योजना पर नजर रखने की जरूरत है क्योंकि भारत भी गंभीर आर्थिक संकट में है और महंगाई आसमान छू रही है।
इसके उलट भारत में चर्चा है कि सुनक भारतीय मूल के हैं, हिंदू हैं, गाय की पूजा करते हैं, गीता की शपथ लेते हैं और उन्होंने रामनामी गमछा रखा था। सोशल मीडिया में ’75 साल में लगान से लगाम तक’ के मीम्स बन रहे हैं। चर्चिल की मशहूर उक्ति कि ‘भारतीयों को राज करना नहीं आता’ का जिक्र करके मजाक बनाए जा रहे हैं। हिंदुओं के अंग्रेजों से बदला ले लेने की बात हो रही है तो अमिताभ बच्चन जैसा आदमी ट्विट करके कह रहा है कि ब्रिटेन में भारत का वायसराय नियुक्त हो गया! पी चिदंबरम जैसे गंभीर राजनेता और अर्थव्यवस्था के जानकार इसमें दिलचस्पी नहीं दिखा रहा है कि सुनक और उनकी टीम क्या वित्तीय योजना लेकर आ रहे हैं, बल्कि उन्होंने कहा कि ब्रिटेन और अमेरिका की तरह भारत में भी अल्पसंख्यक को कमान मिले। शशि थरूर जैसे वैश्विक कूटनीति के जानकार कह रहे हैं कि वे चिदंबरम की बात से सहमत हैं और ऐसा होगा तो उनको बड़ी खुशी होगी। महबूबा मुफ्ती और असदुद्दीन ओवैसी ऐसी बात कर रहे हैं तो समझ में आता है पर चिदंबरम और थरूर जैसों को ऐसी बात क्यों करनी चाहिए?
भारत में जो कथित सबसे समझदार, सेकुलर और लिबरल विद्वान हैं वे सोनिया गांधी और ऋषि सुनक की तुलना करके भाजपा पर हमला कर रहे हैं और 2004 में सुषमा स्वराज द्वारा सोनिया गांधी को प्रधानमंत्री बनने से रोकने लिए कही बातों की याद दिला रहे हैं। लेकिन इस क्रम में वे भूल जा रहे हैं कि हिंदू होने और भारतीय मूल का होने की वजह से सुनक को ब्रिटेन में कितना विरोध झेलना पड़ा है। अभी कोई 50 दिन पहले इसी वजह से वे प्रधानमंत्री का चुनाव हार गए थे। कंजरवेटिव पार्टी के स्थायी सदस्यों में गोरों और इसाइयों का बहुमत है, जिन्होंने अपना और देश का भला-बुरा सोचने की बजाय अस्मिता के मुद्दे पर सुनक को हरा दिया था। इस बार भी हिंदू होने और भारतीय मूल का होने की वजह से सुनक का कम विरोध नहीं हो रहा है। लेकिन कंजरवेटिव पार्टी ने इस विरोध की परवाह किए बगैर उनको नेता चुन दिया। ऐसी हिम्मत कांग्रेस पार्टी भी 2004 में दिखा सकती थी लेकिन भारत की धार्मिक व सामाजिक स्थितियों को देखते हुए कांग्रेस व सोनिया गांधी ने हिम्मत नहीं दिखाई।
बहरहाल, देश के धर्मनिरपेक्ष, उदार बुद्धिजीवियों को लग रहा है कि सोनिया और सुनक की तुलना करके वे भाजपा को शर्मिंदा कर रहे हैं या उसका दोहरा रवैया उजागर कर रहे हैं या उसको नीचा दिखा रहे हैं। लेकिन असल में इस तरह की बहस से वे भाजपा के एजेंडे को मजबूत कर रहे हैं। भाजपा चाहती है कि सारी चर्चा सुनक की हिंदू पहचान और भारतीय मूल के ऊपर केंद्रित रहे। भाजपा कतई नहीं चाहती है कि ब्रिटेन की आर्थिक स्थिति से भारत की आर्थिक स्थिति की तुलना हो और गलती से भी कहीं यह चर्चा हो कि अर्थव्यवस्था सुधारने और लोगों को महंगाई से मुक्ति दिलाने के लिए एक बार प्रधानमंत्री बदल कर देखते हैं, जैसा ब्रिटेन में किया गया है। भाजपा को पता है कि अगर बहस आर्थिक नीतियों और लोगों की वित्तीय मुश्किलों की होगी तो वह फंसेगी। इसलिए बुनियादी मुद्दे को गौण करके वह अवांतर प्रसंगों को उछाल रही है। देश के तमाम बुद्धिजीवी जाने अनजाने में इस जाल में फंस रहे हैं। सुनक के ब्रिटेन के प्रधानमंत्री बनने की पूरी परिघटना में उनका हिंदू होना या भारतीय मूल का होना विचार का मुद्दा ही नहीं था। वहां सिर्फ मेरिट पर चर्चा हुई और सुनक को चुन लिया गया। वहां उनके धर्म से ज्यादा इस बात का विरोध हुआ कि वे बहुत अमीर हैं तो आम ब्रिटिश नागरिक के हित में कैसे सोचेंगे।
इसके उलट भारत में सारी चर्चा उनके धर्म को लेकर हो रही है और इस बात पर गर्व किया जा रहा है कि वे भारतीय मूल के हैं। हालांकि भारतीय मूल का होने की वजह से वे भारत के प्रति नरमी दिखाएंगे या हिंदुओं को फायदा पहुंचाने वाली नीतियां बनाएंगे, ऐसा कतई नहीं सोचना चाहिए। उन्होंने भारतीय मूल की महिला सुएवा ब्रेवरमैन को फिर से गृह मंत्री बना कर अपना इरादा जाहिर कर दिया है। ब्रेवरमैन लिज ट्रस की सरकार में भी गृह मंत्री थीं और उनके यहां से वह रिपोर्ट लीक हई थी, जिसमें कहा गया था कि वीजा की अवधि बीत जाने के बाद नियम तोड़ कर ब्रिटेन में रूके रहने वालों में सबसे ज्यादा भारतीय हैं। वे भारत और ब्रिटेन के बीच होने वाले मुक्त व्यापार समझौते की विरोधी हैं क्योंकि उनको लगता है कि इससे ब्रिटेन मे बसने वाले भारतीयों की संख्या बढ़ जाएगी। उनको फिर से गृह मंत्री बनाने से सहज ही अंदाजा लगाया जा सकता है कि सुनक नीतियां कैसी होंगी! हैरानी है कि भारत के लोग कमला हैरिस का अनुभव भी याद नहीं रखे हुए हैं। उनके उप राष्ट्रपति बनने के बाद अमेरिका ने कौन सी नीति भारत के पक्ष में बना दी है? बाइडेन और हैरिस का शासन आने के बाद पाकिस्तान को आर्थिक मदद मिलने लगी है और वह एफएटीएफ की ग्रे लिस्ट से भी बाहर हो गया। चीन के लोगों को अमेरिकी वीजा के लिए दो दिन का इंतजार करना पड़ रहा है तो भारत के लोगों के लिए दो साल तक वेटिंग है!
इसलिए भारत के लोगों को धर्म और पहचान के नाम पर इतना उत्साह दिखाने से बचना चाहिए। इस बहस को भी बंद करना चाहिए कि भारत में भी कोई अल्पसंख्यक प्रधानमंत्री बने। दो फीसदी से कम आबादी वाले अल्पसंख्यक समूह के मनमोहन सिंह देश के प्रधानमंत्री रहे हैं। सबसे बड़े अल्पसंख्यक समूह के जाहिर हुसैन, फखरूद्दीन अली अहमद और एपीजे अब्दुल कलाम राष्ट्रपति रहे हैं। मोहम्मद हिदायतुल्ला देश के चीफ जस्टिस रहे हैं। देश के गृह मंत्री और शिक्षा मंत्री मुस्लिम रहे हैं। अनेक राज्यों में मुस्लिम मुख्यमंत्री रहे हैं और अब भी मुस्लिम राज्यपाल हैं। ब्रिटेन के बहाने मुस्लिम प्रधानमंत्री की जरूरत बता कर या जिक्र छेड़ कर कांग्रेस के नेता और बुद्धिजीवी भाजपा का फायदा पहुंचा रहे हैं। चिदंबरम और थरूर को अंदाजा नहीं है कि उनके बयान का कैसा चुनावी मुद्दा बनेगा। भाजपा लोगों को बताएगी कि कांग्रेस की सरकार बनी तो मुस्लिम प्रधानमंत्री बन सकता है। यह धार्मिक ध्रुवीकरण का बड़ा मुद्दा बन सकता है। इसलिए सुनक पर होने वाली चर्चा को भाजपा के बनाए नैरेटिव पर ले जाने की बजाय आर्थिक मुद्दे पर रखा जाए तो देश का ज्यादा भला होगा।